Book Title: Sramana 2001 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 214
________________ साहित्य सत्कार सिद्धसेनशतक, अनु० एवं विवेचक मुनिश्री भुवनचंद जी, डिमाई, पृष्ठ संख्या ३०५, प्रका० जैन साहित्य अकादमी, गांधीधाम (कच्छ), मूल्य १२०/ विद्वानमुनि श्री भुवनचंदजी द्वारा संकलित, अनुवादित एवं विवेचित 'सिद्धसेनशतक' एक लम्बे समय के अन्तराल के बाद उपलब्ध सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका पर आधारित एक मौलिक रचना है। मुनिश्री ने आचार्य सिद्धसेन की द्वात्रिंशत् - द्वात्रिंशिकाओं में से उपलब्ध कुल २१ द्वात्रिंशिकाओं में से कुल १०० श्लोकों का संकलन किया है। श्लोकों की चयन शैली उनकी विद्वत्ता और अनुवाद तथा विवेचना संस्कृत भाषा पर उनके अधिकार को द्योतित करती है। प्रारम्भ में आपने ३२ द्वात्रिंशिकाओं का विहंगावलोकन कराकर पाठकों को उनकी इस विशेष रचना से परिचित कराया है एवं पुनः चयनित १०० श्लोकों में मुनिश्री ने जिन विषयों की चर्चा की है उनमें से प्रमुख भगवान् महावीर की दृष्टि, अनेकान्त की महत्ता, प्रवृत्ति और निवृत्ति, मोक्ष और उसकी प्राप्ति के साधन, कर्म और बन्धन का स्वरूप, गुरु की महत्ता आदि । ऐसे लोग जिन्हें द्वात्रिंशिकाएँ उपलब्ध नहीं हो पाईं; मुनिश्री के इस संकलन से वे सिद्धसेन दिवाकर की उत्कृष्ट प्रतिभा तथा विषय की गहराइयों तक पहुँचने की उनकी विशेषता से परिचित हो सकेंगे। वास्तव में 'सिद्धसेनशतक' सिद्धसेनकालीन दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परिवेश से तो हमें परिचित कराता ही है, साथ ही विद्वान् मुनि की दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जानने की क्षमता से भी परिचित कराता है। मुनिश्री के इस स्तुत्यप्रयास के लिए हम उन्हें बधाई देते हैं। डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय हिन्दी साहित्य और दर्शन में आचार्य सुशील कुमार का योगदान : लेखिकाआचार्य डॉ० साध्वी साधना, प्रकाशक- एल्फा पब्लिकेशन, २६४०, रोशनपुरा, नई सड़क, दिल्ली-६, प्रथम संस्करण- १९९९, मूल्य- ५००/-, पृष्ठ ६४५. प्रस्तुत ग्रन्थ, लेखिका आचार्य डॉ० साध्वी साधना द्वारा डी० लिट् ० उपाधि के लिये तैयार किया गया शोधप्रबन्ध है। ये विदुषी होने के साथ लेडिज टेलेण्ट भी हैं। इस रचना में इन्होंने अपने गुरु आचार्य सुशीलकुमार जी के दार्शनिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि विविध चिन्तनों को विवेचित किया है, जो एक सराहनीय कार्य है। आचार्य शीलकमार जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक उच्चकोटि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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