Book Title: Sramana 2001 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 139
________________ में ही होता है। पर हरिभद्रसूरि ने उपहास का मारक उपयोग किया है। इसका दुधारी तलवार की तरह उपयोग हरिभद्रसूरि के लेखकीय कौशल का प्रमाण है। आप कह सकते हैं कि हरिभद्रसूरि का उपहास, उपहास नहीं, उपहास-विलास है। जब वे सुनायी गयी अतार्किक, असम्भव कथाओं का अनुमोदन अपनी उपहास-शैली से करते हैं, तब वह ऊपर-ऊपर से भले ही कथित का अनुमोदन हो, पर भीतर-भीतर उस पर नश्तर की पैनी छुरी-सी मार भी करती चलती है। पर यह तो इसका एक शिरा है, दूसरा शिरा वह है, जो इन उपहासों द्वारा नितान्त अनुपस्थित, पर समाज में ब्राह्मण-परम्परा द्वारा फैलाये गये अन्धविश्वासों पर करारी चोट करता है। उपहास उनका होता है, जो सामने नहीं हैं, पर समाज की नस-नाड़ी में बद्धमूल हैं। वे केवल निर्दिष्ट का ही उपहास नहीं करते। उनके उपहास के दायरे में पूरी चिन्तन-कथनशैली भी आ जाती है। जैसे व्यंग्य में कभी-कभी किसी एक व्यक्ति का मजाक उड़ाकर पूरी जाति और समुदाय का मजाक उड़ाया जाता है, वैसे ही हरिभद्रसूरि पूरी ब्राह्मण-परम्परा पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। इस दृष्टि से 'धूर्ताख्यान' के अनुवादक और सम्पादक डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव का यह कथन बिल्कुल सही है कि “कथा के शिल्प-विधान का चमत्कार तथा दुरूह उलझनवाली सामाजिक विकृतियों का आख्यान-शैली में प्रत्याख्यान इस कथाग्रन्थ के आलोचकों को भी मुग्ध कर देनेवाला है। ...... शैली की दृष्टि से यह ग्रन्थ मूर्धन्य है। लाक्षणिक शैली में व्यंग्योपहास की इतनी पुष्ट रचना अन्यत्र दुर्लभ है।" __प्राकृत के सर्वप्रिय छन्द 'गाथा' में निबद्ध इस व्यंग्यकृति के गद्यानुवाद को देखकर यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि तब के कुशल रचनाकारों ने इतनी द्वन्द्व-संकुल कृति को कविता द्वारा, छन्दों द्वारा, कैसे व्यक्त किया होगा? इससे उनके अद्वितीय काव्य-सामर्थ्य का पता तो चलता ही है, यह भी स्पष्ट होता है कि तब काव्य-विधा कितनी लचीली और सर्व-समावेशी रही होगी। अब ऐसी कृति को कोई रचनाकार कविता या छन्द में कहने और लिखने की बात सोच भी नहीं सकता। तब गद्य न होने की वजह से कविता ही रचनाकारों की एकमात्र कसौटी थी। ‘गद्यं कवीनां निकष वदन्ति' की उक्ति, लगता है कि पीछे प्रचलित हई होगी। तब तो 'छन्द: कवीनां निकषं वदन्ति' की स्थिति रही होगी। ___ अच्छा हुआ कि डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव ने इस रचना को पुस्तकाकार प्रकाशित करा दिया। प्रकाशक ने इसे सचित्र छापा है। चित्र बहुत व्यंजक, विलक्षण और प्रभावपूर्ण है। यह कृति को आकर्षक बना देता है। कुछ को यह भ्रम हो सकता है कि यह कोई बाल-साहित्य है। पर यदि यह भ्रम भी हो, तो मैं इसे कुछ बुरा नहीं समझता; क्योंकि बालकों के अलावा भी बाल-साहित्य के शौकीन कितने ही प्रौढ़ पाठक होते हैं। वे इसे बाल-साहित्य समझकर उठायें और पढ़ने पर उन्हें अपेक्षाकृत अधिक प्रौढ़ अनुभूति हो, तो यह क्या कम है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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