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११५ अतिरिक्त इस समय तक गंगवंश के शासनकाल में वीरदेव, उच्चारणाचार्य, वप्पदेव, शिववर्मन्, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, श्रीदत्त, कवि परमेष्ठि आदि जैसे महान् जैनाचार्य हो चुके थे।
दुर्विनीत (४८२-५२२ ई०) गंगवश का कदाचित् सर्वाधिक शक्तिशाली जैन नरेश था। उसने पल्लवों, कदम्बों तथा वानों को युद्ध में पराजित किया। वह स्वयं विद्वान् था और विद्वानों का आदर करने वाला था। पूज्यपाद उसके गुरु और भारवि उसके दरबारी कवि थे। उसने स्वयं बृहत्कथा का संस्कृत रूपान्तरण किया था। विद्वान् और शक्तिसम्पन्न होने के बावजूद उत्तरकाल में उसके उत्तराधिकारियों पर चालुक्य-नरेशों ने कुछ समय के लिये आधिपत्य जमा लिया। फिर भी गंगवंश को नामशेष नहीं किया जा सका। लगभग २०० वर्षों तक वह संघर्ष करता रहा। बाद में राष्ट्रकूट और चालुक्यों के बीच हुए आक्रमणों ने गंगनरेश श्रीपुरुष (७२६-७७६ ई०) को शक्ति केन्द्रित करने में काफी सहयोग दिया। श्रीपुरुष ने पल्लव, पाण्डय, वाण आदि नरेशों को पराजित कर उनसे राजनैतिक सम्बन्ध प्रस्थापित किये। श्रवणबेलगोल प्रशस्ति में इसके शासनकाल में हुए कतिपय आचार्यों का उल्लेख मिलता है। उनमें प्रमुख हैं- प्रभाचन्द्र, विमलचन्द्र, परवादिमल्ल, पुष्पसेन, अनन्तकीर्ति 'प्रथम', बृहद् अनन्तवीर्य, विद्यानन्दि आदि। इन आचार्यों ने कर्नाटक प्रदेश में रहकर जैन साहित्य और संस्कृति का भरपूर पल्लवन किया। आचार्य विद्यानन्दि ने 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र' की रचना श्रीपुर के पार्श्वनाथ जिनालय में श्रीपुरुष के समक्ष ही की थी।
श्रीपुरुष के बाद शिवमार द्वितीय' (७७६-८१५ ई०) तथा राचमल्ल सत्यवाक्य 'प्रथम' (८१५-८५३ ई०) राजा हुए। विद्यानन्दि ने इन दोनों के भी आश्रय में रहकर अपनी साहित्य सर्जना की। शिवमार 'द्वितीय' ने श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर एक सुन्दर जिनालय भी बनवाया था। चन्द्रनाथ वसदि के पास से प्राप्त एक पत्थर पर कनड़ में 'सिवमारन वसदि' अंकित है (जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ३२७)। उत्तरकाल में शिवमार को राष्ट्रकूट नरेशों से पराजय का मुंह देखना पड़ा। फलतः वह उनका सामन्त बन गया। कहा जाता है वह अमोघवर्ष 'प्रथम' (८१४-८७७ ई०) का पंचमहाशब्दधारी महामण्डलेश्वर था (जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख नं० १८२)। गंगवंश की एक अन्य शाखा में पृथ्वीपति प्रथम अपराजित भी एक पराक्रमी जैन शासक रहा जिसके गुरु आचार्य अरिष्टनेमि थे। ये वही अरिष्टनेमि हैं जिनके समाधिमरण के अवसर पर पृथ्वीपति अपनी रानी कम्पिला के साथ श्रवणबेलगोल के कटवप्र पर्वत पर उपस्थित हुए थे।
गंगवंश अब पुनः उत्कर्ष की ओर बढ़ने लगा। राचमल्ल सत्यवाक्य ने बाण नरेश को पराजित किया, पल्लवों तथा राष्ट्रकूटों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें मित्र बनाया। नीतिमार्ग (८५३-८७० ई०) ने भी यही नीति अपनायी। तदनन्तर
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