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११९ गंगराज से सम्बन्ध रखने वाले और भी अनेक शिलालेख श्रवणबेलगोल में मिलते हैं। उनमें गंगराज के समय के नरेश का कोई नाम नहीं है।
उनमें अधिकांश किसी न किसी के स्मारक रूप में लिखाये गये हैं। लेख नं० ६३ (शिलालेख सं० १) में कहा गया है कि शुभचन्द्रदेव की शिष्या लक्ष्मी ने एक जिन-मन्दिर का निर्माण कराया जो अब ‘एरडुकट्टेवस्ति' के नाम से विश्रुत है। लेख नं० ६४ से ज्ञात होता है कि गंगराज ने अपनी माता पोचब्बे के हेतु कत्तलेवस्ति का निर्माण कराया। लेख नं० ६५ में गंगराज के इन्द्रकल गह (शासनवस्ति) बनवाने का उल्लेख है। लेख नं० ७५ और ७६ में गंगराज द्वारा गोम्मटेश्वर का परकोटा बनवाये जाने का उल्लेख है। श्रवणबेलगोल में ध्वंस बस्ती के समीप एक पाषाण पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि गोपनन्दि नामक आचार्य ने गंग नरेशों की सहायता से जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया- 'गंगनृपालरन्दिन विभूतिय रूढियनेय्दे माडिदं' (वही, भाग १, नं० ४९२, पद्य नं० १६)।
कलिगंग के प्रधान सामन्त भुजबलगंग परमादि वर्मदेव आचार्य मुनिचन्द्र का शिष्य था। भुजबल का पुत्र नत्रियगंग आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव का शिष्य था। ११२२ ई० के सिद्धेश्वर वसदि के शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस राजा ने जैनधर्म की विविध ढंग से प्रभावना की। श्रवणबेलगोल के प्रति इन सभी के मन में श्रद्धा-भक्ति रही है। अन्तिम समय में गंगवंशीय राजा चोलों और होयसलों के उपराजों अथवा सामन्तों के रूप में विजयनगर काल तक बने रहे। इस स्थिति में भी वे जैन संस्कृति और श्रवणबेलगोल से सम्बद्ध रहे हैं।
__ इस प्रकार गंगवंश प्रारम्भ से अन्त तक जैनधर्म, साहित्य और संस्कृति का पोषक, परिवर्धक तथा प्रश्रयदाता रहा है। उसके नरेशों में अमरत्व प्राप्त करने की अदम्य ललक तथा अर्न्ततम साक्षात्कार प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा दिखायी देती है। उसका हर परिवार किसी न किसी जैनाचार्य का शिष्य रहा है। यही कारण है कि इनके शासन काल में जैनधर्म, कुलधर्म अथवा राजधर्म बनकर चमका है। निष्कर्ष रूप से यही कहा जा सकता है कि श्रवणबेलगोल के विकास में इस वंश का सर्वाधिक योगदान रहा है तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में भी उसकी महत्तम उपलब्धि रही है। राष्ट्रकूटकालीन श्रवणबेलगोल और बाहुबली की मान्यता
राष्ट्रकूटकाल जैन संस्कृति के विकास की दृष्टि से 'स्वर्णकाल' कहा जा सकता है। इस काल में एक ओर जहाँ एलोरा और श्रवणबेलगोल जैसे कला केन्द्र अपनी मूक कलात्मक साधना के लिये विश्रुत थे वहीं दूसरी ओर वाटनगर, मान्यखेट, कोप्पण जैसे ज्ञानकेन्द्रों में वीरसेन, अकलंक, स्वयम्भू, जिनसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, विद्यानन्दि, परवादिमल्ल, अनन्तकीर्ति, देवसेन, पोन, पुष्पदन्त आदि आचार्य सरस्वती
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