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८४.
उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर आचार्य कीर्तिरत्नसूरि के शिष्य लावण्यशील की शिष्य परम्परा की जो तालिका बनती है, वह इस प्रकार है :
द्रष्टव्य- तालिका संख्या-३ सन्दर्भ १. अगरचन्द नाहटा-भंवरलाल नाहटा, सम्पादक- मणिधारीजिनचन्द्रसूरिअष्टम
शताब्दीस्मृतिग्रन्थ, दिल्ली १९७१ ई०सन्, पृष्ठ ५८ और आगे. २. अगरचन्द नाहटा - भंवरलाल नाहटा, सम्पादक-ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह,
पृ० ३६-४० मोहनलाल दलीचन्द देसाई, सम्पा०-जैनगूर्जरकविओ, भाग १, नवीन संस्करण, सम्पा०, डॉ० जयन्त कोठारी, अहमदाबाद १९८६ ईस्वी, पृ०
४७७-७८. ४. ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह, पृ० २०७-०८. ५-६. इनके सम्बन्ध में इसी लेख के अन्तर्गत आगे प्रकाश डाला गया है। ७. मणिधारीजिनचन्द्रसूरिअष्टमशताब्दीस्मृतिग्रन्थ, पृ० ५७. ८. द्रष्टव्य, सन्दर्भ क्रमांक १.. ९. ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह, पृ० ५५. १०. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग २, नवीन संस्करण,
सम्पा०-डॉ० जयन्त कोठारी, अहमदाबाद १९८७ ईस्वी, पृ० २४७ और
आगे. ११. रिपुमर्दनरास अपरनाम भुवनानन्दरास की प्रशस्ति
पामी संघ तणउ आदेश, जाणी सम तणउ लवलेस। रिपुमर्दननउ रचीउ रास, भणतां गुणतां लीलविलास।। श्रीखरतरगच्छ-गयण-दिणंद, उदयउ श्री जिनचंद सूरींद। वादी-गजभंजण केशरी, सानिधि तासु रच्चउ मई चरी।। कीर्तिरतनसूरि शाखइ जयउ, हर्षविशाल तसु वाचक थयउ। हर्षधर्म वाचक तसु सीस, साधुमंदिर तसु पाट जगीस।। विमलरंग तसु शिष्य सुजाण, सुगुण रयण गुण केसरी खांणि। तसु सुविनेय कुशलकल्लोल, सीस सुपरि कहइ लब्धिकल्लोल।। चन्द्रप्रभ जिन सानिधि करी, रच्चउ रास मुनि उलट धरी।
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