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(२) जम्बुद्दीवे णं दीवे भारहे वासेदाहिणमाहिणकुंडपुरसनिवेसाओ उत्तरखत्तियकुंडपुरसन्निवेसंसि नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगुत्तस्स तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठसगुत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करिता सुभाणं पुग्गलाणं पक्खेवं करित्ता कुच्छिंसि गब्धं साहर इ ।
आचाराङ्ग (टीका सहित), पत्र ३८८. जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में दक्षिणब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश से ( चलकर ) उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसन्निवेश में ज्ञातृक्षत्रियों के काश्यपगोत्री सिद्धार्थक्षत्रिय की (पत्नी) वासिष्ठगोत्री त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षिमें अशुभ पुगलों को हटाकर शुभ-पुद्गलों का प्रक्षेप करके गर्भ-प्रवेश कराता है।
(३) भगवान् को आचाराङ्गसूत्र में 'विदेह' कहा है
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'नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहदिने विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहंसित्ति" आचारांगसूत्र, पत्र ३८९.
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भगवान् का 'विदेह' नाम भगवान् की माता के कुल के साथ सम्बन्ध रखता है। माता त्रिशला विदेहकुल की थीं। आचाराङ्गसूत्र में लिखा है “समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिट्ठस्सगुत्ता, तीसे णं तिनि ना०, तं० - तिसला इ वा विदेहदिन्ना हूँ वा पियकारिणी इ वा। (आचाराङ्गसूत्र पत्र ३८९ ) यहाँ भगवान् की माता के तीन नाम बताये हैं- (१) त्रिशला, (२) विदेहदत्ता, (३) प्रियकारिणी। माता त्रिशला विदेह देश की नगरी वैशाली के गणसत्ताक राजा चेटक की बहिन थी, यह घराना 'विदेह' नाम से प्रसिद्ध था। इसी कारण माता त्रिशला को 'विदेहदत्ता' कहा गया है। अतएव मातृपक्षक नाम 'विदेह' भी भगवान् को मिला। इसी विदेह में ही भगवान् ने तीस वर्ष व्यतीत किये थे। उपरोक्त वर्णन कल्पसूत्र में भी ऐसा ही मिलता है। टीकाकारों द्वारा 'विदेह' के भिन्न-भिन्न अर्थ करने पर भी यह स्पष्ट है कि उनका विदेह के साथ विशेष
सम्बन्ध था।
(४) निम्न प्रमाणों में दिगम्बरशास्त्रों में भी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विदेहान्तर्गत कुण्डपुर को बताया है।
(क)
उन्मीलितावधिदशा सहसा विदित्वा
प्रणतोत्तमांगाः ।
तज्जन्मभक्ति भरतः घण्टानिनादसमवेतनिकायमुख्या
दिष्ट्या ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्राः । । १७-६१।।
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( महाकवि असग ( ई०स० ९८८) विरचित वर्धमानचरित्र)
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