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में किसी भिक्षुणी का उपदेशक के रूप में उल्लेख नहीं मिलता।
श्रमण संघ में भिक्षु की तुलना में भिक्षुणी की स्थिति निम्न अवश्य थी, परन्तु समाज में उनको वही सम्मान एवं आदर प्राप्त था, जो भिक्षु को था। ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक जीवन में नारी की जो स्थिति थी, श्रमणसंघ में भी वही रूप प्रतिबिम्बित हुआ। आचार्य सामाजिक जगत् से प्रभावित हुए बिना न रह सके, आखिर वे भी समाज के ही अंग थे। प्राय: समान परिस्थितियों में विकसित बौद्ध संघ में भी हमें यही स्थिति दिखायी पड़ती है।३१ निम्न स्थिति के बावजूद भिक्षुणियाँ अपनी शिक्षा एवं तपस्या के बल पर श्रमण एवं श्रावक दोनों संघों में विशेष आदरणीय रहीं। भिक्षु संघ के साथ उनके सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण रहें। साहित्य या अभिलेखों में दोनों के मध्य टकराहट के स्वर हमें कहीं नहीं सुनायी पड़ते।
___ जब हम श्रमण एवं श्रावक के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कर रहे हों तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कौन-सी साधना श्रेष्ठ है? सामान्य रूप से श्रमण साधना श्रावक साधना से श्रेष्ठ मानी जाती है, परन्तु यदि हम निर्वाण या मोक्ष को व्यक्ति (चाहे वह श्रमण हो या श्रावक) का अन्तिम लक्ष्य या पुरुषार्थ मानें तो दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाता। श्रमण साधना का मार्ग तो मुक्ति-पथ की ओर जाता ही है, श्रावक साधना का पथ भी दिग्भ्रमित नहीं होता। श्रावक धर्म का पालन करते हुए अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है और इसका पूरा विश्वास जैन आगम कराते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र स्पष्ट रूप से इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।३२ यही नहीं, साधना के पथ में कुछ गृहस्थ श्रमणों से श्रेष्ठ होते हैं- यह भी उत्तराध्ययन स्पष्ट करता है।३३ उपासकदशाङ्ग में श्रावक आनन्द का जो चरित्र वर्णित है, वह किसी भी मुनि के लिये स्पर्धा का विषय हो सकता है। हाँ, यह अवश्य है कि जैनधर्म की दिगम्बर-परम्परा गृहस्थ मुक्ति का निषेध करती है। उसके अनुसार अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मुनि धर्म अर्थात् दिगम्बरत्व स्वीकार करना आवश्यक है, परन्तु “जैन धर्म की श्वेताम्बर-परम्परा में गृहस्थ धर्म को भी मोक्ष-प्रदाता माना गया है। श्रमण और गृहस्थ दोनों धर्म उसी लक्ष्य की ओर ले जाने वाले हैं, इतना ही नहीं, दोनों ही स्वतन्त्र रूप से उस परम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ भी माने गये हैं।''३४
__संक्षेप में, जैन धर्म के चतुर्विध संघ में भिक्षु-भिक्षुणी अर्थात् श्रमण संघ एवं श्रावक-श्राविका अर्थात् श्रावक संघ- इन दोनों का अपना विशिष्ट महत्त्व था। दोनों ने अपने लिये विहित कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वाह करते हए जैन धर्म के विकास में अपनी प्रशंसनीय भूमिका निभायी। विशाल जैनधर्मरूपी रथ के ये दोनों सबल एवं सुदृढ़ पहिये थे। दोनों के स्वस्थ रहने पर ही रथ अविराम गति से चल सकता था। एक पहिये की रुग्णता पूरे रथ की गति को व्यवधान में डाल सकती थी- इसका आभास
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