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मन्त्र-तन्त्र, चमत्कार का प्रदर्शन करना पड़े२१..- तो वह भी स्वीकार्य था। संघ एवं समाज का संरक्षण अपरिहाय माना गया था, क्योंकि वह साधना की आधारभूमि है। इस प्रकार श्रमण एवं श्रावक दोनों ने एक दूसरे को सम्बल प्रदान किया।
यही नहीं, दोनों ने एक दूसरे पर नियन्त्रण करने का भी अधिकार प्राप्त किया। श्रमण वर्ग यदि बुरा आचरण करता था तो वह समाज की निन्दा का पात्र बनता था। श्रमण के ब्रह्मचर्य-स्खलन आदि अपराध करने पर उससे उसका वस्त्र-पात्र छीन कर उसे दण्ड दिया जाता था। यद्यपि ग्रन्थों से ऐसा कोई सन्दर्भ मैं प्राप्त नहीं कर सका, परन्तु डॉ० सागरमल जी जैन ने इसको व्यावहारिक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्वयं एक शिथिल आचरण वाले भिक्षु को उसका वस्त्र-पात्र लेकर श्रमण संघ से बहिष्कृत करवाया तथा समाज के सहयोग से उसके सांसारिक जीवन की व्यवस्था करवायी। इस प्रकार श्रमण वर्ग के ऊपर समाज या श्रावकों का नियन्त्रण रहता था, जो उन्हें उच्चादर्शों को स्थापित करने के लिये प्रेरित करता था। आगमों से ऐसा उदाहरण प्राप्त होता है जब मुनिजनों को अपने गलत व्यवहार के लिये श्रावक से खेद प्रकट करना पड़ा। उपासकदशाङ्क से स्पष्ट होता है कि श्रेष्ठि आनन्द के सम्मुख गलत तर्क देने पर स्वयं भगवान् महावीर ने अपने प्रधान शिष्य गणधर गौतम को आनन्द से क्षमा माँगने को कहा था।२२ ऐसा ही संघ, जिसे अपनी आलोचनाओं को सहन करने की क्षमता थी, प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता था।
स्पष्ट है, जैनधर्म के प्रसार काल में श्रमण एवं श्रावक संघ के मध्य सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध विकसित हुए। अब हमें श्रावक संघ में श्रावक-श्राविका एवं श्रमण संघ में भिक्षु-भिक्षुणी के मध्य परस्पर सम्बन्धों की छानबीन करनी होगी। श्रावक संघ एवं श्राविका संघ के मध्य परस्पर क्या सम्बन्ध था— इसकी हमें कोई आगमिक सूचना नहीं प्राप्त होती। यदि हम आगमिक आख्यानों में प्रयुक्त कथाओं का विश्लेषण करें तो दोनों संघों के मध्य मधुर सम्बन्धों का निदर्शन प्राप्त होता है। आश्चर्यजनक रूप से यहाँ भी स्त्रियों (श्राविकाओं) की संख्या श्रावकों से ज्यादा है। सम्भवत: स्त्रियाँ सदैव से धर्मशील रही हैं। उपासकदशाङ्ग में रेवती आदि कुछ कलुषित विचार वाली स्त्रियों का अवश्य उल्लेख है,२३ परन्तु वे अपवादस्वरूप ही हैं। अभिलेखों से भी हमें उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। मथुरा के अभिलेखों में पत्नी, पुत्री एवं माताओं द्वारा जैन संघ को दान देने का बहुश: उल्लेख मिलता है।२४ हाथीगुम्फा अभिलेख में भी खारवेल की रानी द्वारा दान देने का उल्लेख है।२५ वस्तुत: जैन संघ द्वारा अनुमोदित श्रावक धर्म का पालन पति-पत्नी एवं परिवार के सभी सदस्यों ने श्रद्धापूर्वक किया।
जहाँ तक श्रमण संघ में भिक्षु एवं भिक्षुणी के मध्य सम्बन्ध का प्रश्न है, हमें गहराई से विचार करने की जरूरत है। आगमों का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि जैन संघ में भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी। जैनधर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय ने तो
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