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उल्लेख हुआ है जिन्होंने आयागपट्ट, अर्हत् मन्दिर, स्तम्भ आदि निर्मित करवाकर चतुर्विध संघ को दान दिया था।३५
स्पष्ट है, जैनधर्म को प्रसिद्ध करने, इसके प्रचार-प्रसार में श्रावकों की भूमिका अत्यन्त ही सराहनीय रही। श्रावक-श्राविकाओं ने श्रमण वर्ग के सुन्दर-सरल उपदेशों को अपने जीवन में आचरित कर उसको प्रभावी बनाने का प्रयास किया।
चतुर्विध संघ में श्रमण संघ को एक विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया। श्रमण संघ एक केन्द्रीय धुरी के रूप में स्थित था जिसके ऊपर सम्पूर्ण व्यवस्था के नियन्त्रण का भार था। चारों संघों में परम्पर सामञ्जस्य स्थापित करने का गुरुतर भार भी मुनि के ऊपर ही था। चूँकि श्रावक वर्ग ने मुनि वर्ग को भौतिक चिन्ताओं से मुक्त कर रखा था, अतः इनका मुख्य कर्त्तव्य नीति एवं धर्म के सम्बन्ध में चिन्तन एवं मनन करना था। नैतिक एवं सदाचार की शिक्षा देने के लिये ही भिक्षु-भिक्षुणियों को ग्राम-ग्राम एवं नगर-नगर भ्रमण करने का निर्देश था। जैन आगम साहित्य से स्पष्ट है कि भिक्षु-भिक्षुणियों का अधिकांश समय स्वाध्याय एवं धर्मोपदेश में ही व्यतीत होता था। दिन और रात्रि के चार-चार भाग किये गये थे और इनमें प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ प्रहर ध्यान, स्वाध्याय एवं धर्मोपदेश के लिये था।१६ स्पष्ट है, मुनि वर्ग का अधिकांश समय धर्म एवं दर्शन के चिन्तन में ही व्यतीत होता था। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने व्यक्ति, परिवार
और कुल के साथ ही सम्पूर्ण राष्ट्र के उत्थान के सम्बन्ध में विचार किया और उसके लिये नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का निर्माण किया। जैन आचार्यों द्वारा विवेचित १० धों का उल्लेख हमें प्राचीन आगम स्थानाङ्ग में ही प्राप्त हो जाता है। इनमें ग्राम, नगर, राष्ट्र, कुल, गण, संघ आदि धर्मों की चर्चा की गयी है। इस प्रकार श्रमण वर्ग श्रावकों की नैतिकता एवं सदाचार के प्रहरी के रूप में उपस्थित हुआ। श्रावक वर्ग में अनैतिकता का प्रसार न हो तथा वह सत्मार्ग की ओर उन्मुख हो, इसका प्रमुख दायित्व श्रमण वर्ग के ऊपर था। श्रमण वर्ग ने धर्म की सरल एवं स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की। धर्म के प्रति श्रावक वर्ग की आस्था बनी रहे तथा उनमें तीर्थङ्करों एवं उनके उपदेशों के प्रति अश्रद्धा न उत्पन्न हो, श्रमण वर्ग को इसका विशेष ध्यान रखना था। इसी कारण उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि वर्षाकाल के चार महीनों को छोड़कर शेष आठ महीने वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करें। इस का मुख्य उद्देश्य श्रावकों के मध्य धर्म एवं नैतिकता का उपदेश करना तथा उनसे अपना सम्पर्क जोड़ना था।
संक्षेप में, श्रमण संघ एवं श्रावक संघ के मध्य एक अटूट, गहरा और भावनात्मक सम्बन्ध कायम हुआ। दोनों पक्ष एक दूसरे की सुख-सुविधाओं के लिये प्रयत्नशील थे। दोनों ने एक दूसरे को दिया। श्रमण एवं श्रावक संघ की परस्पर सहभागिता में ही जैनधर्म की निरन्तरता का बीज छिपा हुआ है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक, अपने में कोई मूलभूत परिवर्तन किये बिना, जैनधर्म की जो अजस्र धारा बह रही है- इसका
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