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कहलाता है। जैन विचारणा के अनुसार साधना के दो पक्ष हैं- आन्तरिक और बाह्य। श्रमण जीवन आन्तरिक साधना की दृष्टि से समत्व की साधना है, राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना है।"५ उत्तराध्ययनसत्र में स्पष्ट कहा गया है कि मण्डित होने से कोई श्रमण नहीं बनता, वरन् जो समत्व की साधना करता है, वही श्रमण होता है।
इसी प्रकार आदर्श श्रावक की भी कल्पना की गयी, जो उच्च गुणों से युक्त हो। जैन-परम्परा में श्रावक का अर्थ प्राकृत 'सावय' से लिया गया है जिसका तात्पर्य बालक या शिशु से है; अर्थात् साधना के क्षेत्र में अभी जो बालक है, उसे ही श्रावक कहा गया है। श्रावक शब्द में प्रयुक्त तीनों अक्षरों की विवेचना में बताया गया है कि श्र श्रद्धा, व विवेक, क क्रिया अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक विवेकयुक्त आचरण करता है, वह श्रावक है। उपासकदशाङ्ग में आनन्द आदि जिन श्रावक एवं श्राविकाओं का चरित्र वर्णित है, वे ही जैन-परम्परा के आदर्श श्रावक माने गये।
अपने विकास के प्रारम्भिक काल से ही श्रावक संघ का श्रमण संघ के साथ एक आत्मीयपूर्ण भावनात्मक सम्बन्ध विकसित हआ। प्रत्येक श्रावक भिक्ष-भिक्षणी की सेवा-सुश्रुषा एवं आदर-सम्मान के लिये सर्वदा तत्पर रहता था। भिक्ष या भिक्षणी के उपस्थित होने पर प्रत्येक श्रावक श्रद्धा एवं सम्मान के साथ अभिवादन करता था। ज्ञाताधर्मकथा में चोक्खा परिव्राजिका के आने पर राजा द्वारा सम्मान करने का उल्लेख है। इसी प्रकार उपासकदशाङ्ग में श्रेष्ठि आनन्द रुग्णावस्था में भी गणधर गौतम का अभिवादन करता है। श्रावकों ने धर्म के उपदेशकों के प्रति यथोचित सम्मान प्रदर्शित किया। श्रमण वर्ग भी इस आदर-सम्मान के प्रत्युत्तर में उन्हें आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रगति के लिये आशीर्वाद देता था। परस्पर सम्मान की भावना ने एक दूसरे को प्रेम के धागे में बाँधे रखा और समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रेरित किया।
श्रावक वर्ग का एक प्रमुख कार्य श्रमण वर्ग को भोजन एवं वस्त्रादि की चिन्ताओं से मुक्त करना था। श्रावक वर्ग के इस सहयोग का ही परिणाम था कि श्रमण वर्ग अपना प्राय: सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक चिन्तन में व्यतीत कर सका। जैन आचार्यों की अति विशाल ज्ञान धरोहर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानव जीवन के सभी व्यापारों का उन्होंने गहन अध्ययन किया और उसको सुन्दर ढंग से प्रस्तुत भी किया। अतिथि, चाहे वह भिक्षु हो या गृहस्थ, भारतवर्ष में सदैव पूज्य माना गया और जैनधर्म में तो “अतिथिसंविभाग" गृहस्थ के सर्वाधिक पवित्र कर्तव्यों में से एक था। चूँकि गृहस्थ भिक्ष-भिक्षणियों के भोजन-औषधि एवं भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे, अत: उन्हें श्रमण-वर्ग का “माता-पिता'' तक कहा गया।
यह अवश्य है कि संघ की ओर से श्रमण वर्ग को यह निर्देश दिया गया था कि वे गृहस्थों के ऊपर भार न बनें। श्रमण के भिक्षावृत्ति की तुलना भ्रमर से की गयी
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