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खरतरगच्छ-कीर्तिरत्नसूरि शाखा
का संक्षिप्त इतिहास
शिवप्रसाद
खरतरगच्छीय प्रभावक आचार्यों में कीर्तिरत्नसूरि का नाम उल्लेखनीय है। इनकी विशाल शिष्यसन्तति इनके नाम पर कीर्तिरत्नसूरिशाखा के नाम से विख्यात हुई। इस शाखा में हुए अनेक निस्पृह और विद्वान् मुनिजनों ने अपने धार्मिक और साहित्यिक क्रियाकलापों से खरतरगच्छ को जीवन्त और प्रभावशाली बनाने में अतुलनीय योगदान दिया। जहाँ खरतरगच्छ की विभिन्न शाखाएँ शताब्दियों पूर्व नामशेष हो गयी वहीं बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण तक कीर्तिरत्नसूरिशाखा की निरन्तर विद्यमानता का श्रेय इस शाखा में समय-समय पर हुए विभिन्न प्रभावशाली मुनिजनों को है।
खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के पट्टधर प्रसिद्ध आचार्य जिनभद्रसूरि के शिष्य कीर्तिराज उपाध्याय अपरनाम कीर्तिरत्नसूरि द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध नेमिनाथ महाकाव्य (रचनाकाल वि० सं० १४९५ से पूर्व) का जैन महाकाव्यों में विशिष्ट स्थान है। इनके द्वारा रचित कुछ छोटी-छोटी कृतियां भी मिलती हैं। अपनी रचनाओं में यद्यपि उन्होंने अपने गुरु-परम्परा आदि के बारे में कोई सूचना नहीं दी है; किन्तु इनकी परम्परा में हुए परवर्ती ग्रन्थकारों यथा कल्याणचन्द्रगणि, ललितकीर्ति, चन्द्रकीर्ति, साधुकीर्ति आदि ने इनके जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला है। ____ आचार्य कीर्तिरत्नसूरि के ५१ शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है जिसमें कल्याणचन्द्रगणि, लावण्यशील, गुणरत्न, हर्षविशाल आदि प्रमुख थे। कल्याणचन्द्रगणि द्वारा रचित कीर्तिरत्नसूरिचउपइ, कीर्तिरत्नसूरिगीत आदि कृतियाँ मिलती हैं। इनका रचनाकाल वि०सं० १५२५ के पश्चात् माना जाता है। इनके शिष्यादि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसी प्रकार गुणरत्न के केवल एक ही शिष्य और प्रसिद्ध रचनाकार पद्ममन्दिरगणि' के बारे में तो उनकी अपनी कृतियों से जानकारी प्राप्त हो जाती है; किन्तु इनके शिष्य कौन थे, इस बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। हर्षविशाल और लावण्यशील की शिष्य-सन्तति का अत्यधिक विस्तार हुआ। इनका अलग-अलग विवरण प्रस्तुत है*. प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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