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पं० चारित्रउदय
माणिक्यउदयगणि (वि०सं० १८४९ में श्रीपालराजारास (वि० सं० १८३० में कुमारपालरास के रचनाकार)
के प्रतिलिपिकार)
वाचनाचार्य मुक्तिसिंधुरगणि
सुखशीलगणि
पं० रामचन्द्रगणि
कस्तूरचन्द्र (वि०सं० १९०४ में द्रौपदीचरित
के प्रतिलिपिकार)
वि०सं० १७०३ में थावच्चासुगसेलगचौपाई; अरहन्नकचौपाई आदि के रचनाकार राजहर्ष ने भी अपने कृतियों की प्रशस्ति में अपने गुरु के रूप में ललितकीर्ति का उल्लेख किया है।२१
कीर्तिरत्नसूरिशाखा के ही पं० जयचन्द्र ने वि०सं० १७४२ में सिंहासनबत्तीसी की प्रतिलिपि तैयार की।२२ उसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है
ललितकीर्ति
विजयराजगणि
कमलहर्ष
पं० जयचन्द्र (वि०सं० १७४२/ई०सन् १६८६ में सिंहासनबत्तीसी के
प्रतिलिपिकार) इसी शाखा के मुनि भक्तिविशाल ने वि०सं० १७३७/ईस्वी सन् १६७१ में अंजनासुन्दरीरास की प्रतिलिपि२३ की, जिसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपने गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है, जो निम्नानुसार है
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