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७२.
सबको था। श्रमण एवं श्रावक एक दूसरे के पूरक बने, एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति की, एक दूसरे पर नियन्त्रण रखा और इस प्रकार दोनों ने समान लक्ष्य की प्राप्ति की ।
सन्दर्भ
१.
भगवती आराधना, ७१४.
२. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/१३/४.
3.
४.
५.
६.
७.
Epigraphia Indica, Vol. X, p. 247.
एवं जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ० ३३.
उत्तराध्ययन, अध्याय १५; दशवैकालिक, अध्याय १०.
जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, सागरमल जैन, भाग २, पृ० ३२६-२७.
न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो || समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ।। उत्तराध्ययन, २५/३१-३२. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन,
भाग २, पृ० २५८.
ज्ञाताधर्मकथा, पृ० ७४.
८.
९.
उपासकदशाङ्ग, प्रथम अध्याय
१०. जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियई रसं ।
न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।। एमे समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाण-भत्तेसणे रया ।।
वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ ।
अहागडे रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ।। दशवैकालिक, १/२-४.
११ . वही, ५/२/१
१२ . वही, ८ / २३
13. Epigraphia Indica, Vol. 20. p. 72.
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