Book Title: Sramana 2001 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 74
________________ ६८ श्रेय श्रमण एवं श्रावक संघ के सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों में निहित है। यहाँ पर बौद्धधर्म का सन्दर्भ देना असमीचीन नहीं होगा। अपने जन्मस्थल से बौद्धधर्म के पतन एवं जैनधर्म के निरन्तर विकास को इतिहासकारों ने इसी परिप्रेक्ष्य में देखा है। बौद्ध संघ के पतन का मूल कारण ही उसका अपने उपासकों से सम्बन्ध-विच्छेद होना था। द्वितीय-प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से ही बौद्ध संघ में विहारों की स्थापना होने लगी थी। विहारों के निर्माण से भिक्षुओं का अपने उपासकों से सम्बन्ध टूट गया। सातवीं शताब्दी में आने वाले चीनीयात्री इत्सिंग ने नालन्दा महाविहार का उल्लेख किया है। उसने समीप के गांवों से बैलगाड़ियों में लदी खाद्य सामग्री को महाविहार में जाते हुए देखा था। जैन संघ में भी कालान्तर में भट्टारक सम्प्रदाय स्थापित हुआ, परन्तु जैन श्रमण संघ के अधिकांश सदस्य भिक्षावृत्ति का पालन करते रहे और जैन संघ में आज भी यह परम्परा कुछ परिवर्तन के साथ जीवित है। भिक्षावृत्ति से मुँह मोड़ने वाले सुविधाभोगी साधुओं की कड़ी आलोचना हम कालान्तर की शताब्दियों में भी सुनते हैं।८ समाज से कभी भी साधुओं का सम्पर्क विच्छेद नहीं हुआ। इस यथार्थ सत्य को हम स्वर्गीय हरमन जैकोबी के शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं It is evident that the lay-part of the community were not regarded as outsiders, as seems to have been the case in early Buddhism; their position was, from the beginning. well difined by religious duties and privileges; the bond which united them to the order of monks was an effective one. The state of a layman was one preliminary and, in many cases preparatory to the state of the monks.......... It can not be doubted that the close union between laymen and monks brought about by the similarity of their religious duties differing not in kind but in degree has enabled Jainism to avoid fundamental changes within and to resist dangers from without for more than two thousand years, while Buddhism being less exacting as regards the laymen underwent the most extraordinary evalutions and finally disappeared altogether in the country of its origin.19 श्रावक एवं श्रमण संघ की इस सहभागिता ने जैनधर्म को विपरीत परिस्थितियों में जीवनदान दिया। संघ एवं समाज की रक्षा के लिये श्रमण एवं श्रावक सदैव प्रयत्नशील रहे। विपरीत परिस्थितियों में संघ एवं समाज की रक्षा के लिये अपवाद मार्ग का भी अवलम्बन लिया जा सकता था- इसका स्पष्ट निर्देश था। निशीथविशेषचूर्णि में अनेक कहानियों के माध्यम से उपर्युक्त तर्क को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। संघ एवं समाज की रक्षा के निमित्त हिंसा एवं हत्या का सहारा लेना पड़े० अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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