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है। जिस प्रकार भ्रमर फूलों को किसी प्रकार की पीड़ा न देता हुआ उसके रस को ग्रहण कर अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है उसी प्रकार भिक्षु-भिक्षुणियों को गृहस्थों को किसी प्रकार की पीड़ा न देते हुए उनके द्वारा बनाये गये भोजन में से अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेने का निर्देश दिया गया था। भिक्षु-भिक्षुणी गृहस्थ द्वारा प्रस्तुत आहार एवं पान की निन्दा नहीं कर सकते थे, उन्हें समभाव से ग्रहण करने का निर्देश दिया गया था।११ साथ ही, श्रमण वर्ग को यह भी अनुशासित किया गया था कि स्वादिष्ट भोजन की लालच में वे किसी सम्पन्न एवं समृद्ध घर में न जायें, अपितु उन्हें सलाह दी गयी थी कि वे धनी-निर्धन सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करें।"
___ भिक्षा की इस प्रवृत्ति ने श्रमण एवं श्रावक वर्ग के सम्बन्ध को मधुर बनाने में सेतु का काम किया। जहाँ श्रावक वर्ग मुनिजनों को सेवा एवं आहार प्रदान कर अपने दायित्व का निर्वहन करता था वहाँ मुनि वर्ग भी समाज के इस अवदान का धर्म एवं दर्शन में चिन्तन कर उसका सुन्दर प्रत्युत्तर देता था। श्रावक एवं श्रमण की इस परस्पर सहभागिता ने एक दूसरे को सम्पर्क में बनाये रखा तथा एक दूसरे के सुख-दुःख का भागी बनाया।
जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में भी श्रावक वर्ग श्रमण-वर्ग के साथ ही परस्पर का सहभागी रहा है। चतुर्विध संघ में श्रावक-श्राविकाओं की संख्या सर्वदा भिक्षु-भिक्षुणियों
संख्या से ज्यादा रही है। कल्पसूत्र में प्रत्येक तीर्थङ्करों के समय के भिक्षु-भिक्षुणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं की जो संख्या दी गयी है उससे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। इस श्रावक-संघ में राजा-रंक, धनी-निर्धन, मन्त्री-सेवक सभी थे। इस संघ में राजा-मन्त्री के साथ ही सामान्य जनों का अद्भुत मिश्रण था। हमें जो आभिलेखिक सूचना प्राप्त होती है उससे कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्रकाश में आते हैं। कम से कम चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व से हमें श्रावकों की जानकारी अभिलेखों से मिलनी प्रारम्भ हो जाती है। मगध सम्राट् नन्द स्वयं जैन धर्मावलम्बी प्रतीत होते हैं और उनके काल में जैनधर्म कलिंग तक पहुँच चुका था- इसकी पुष्टि खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से होती है। इसी अभिलेख से हमें दुर्घर्ष खारवेल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है तथा जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में उनके द्वारा कृत कार्यों की सूचना मिलती है।१३ यदि हम बौद्ध सिंहली ग्रन्थ महावंस की ऐतिहासिकता पर विश्वास करें तो सम्राट अशोक के पूर्व ही जैनधर्म भारत की सीमाओं को लाँघकर श्रीलंका पहुँच चुका था। इस महाअभियान में न केवल राजाओं एवं मन्त्रियों ने अपनी भूमिका निभायी, अपितु सामान्यजन की भूमिका कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण परिलक्षित होती है। यदि हम केवल कुषाणकालीन मथुरा के अभिलेखों का अध्ययन करें तो उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों में लुहार, इत्र बेचने वाले, रंगकर्मी, सुनार, बढ़ई, चर्मकार, नृतक, ग्राम प्रमुख आदि का नाम प्रचुरता से प्राप्त होता है। आश्चर्यजनकरूप से इन अभिलेखों में कई गणिकाओं का
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