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चतुर्विध संघों के मध्य विकसित हुए पारस्परिक सहदायित्व की उज्ज्वल भावना को उजागर करना है।
जैनधर्म के विकास में संघों के पारस्परिक सम्बन्ध एवं उनके उत्तरदायित्वपूर्ण कर्त्तव्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे हैं। पारस्परिक सौहार्दपूर्ण वातावरण में ही कोई धर्म पल्लवित एवं पुष्पित हो सकता है। निश्चित ही जैनधर्म में भिक्षु-संघ का भिक्षुणी-संघ के साथ तथा श्रमण संघ (भिक्षु एवं भिक्षुणी) का श्रावक संघ (श्रावक एवं श्राविका) के साथ अत्यन्त मधुर सम्बन्ध विकसित हुआ। इसी पारस्परिक सहभागिता का यह परिणाम था कि अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी जैनधर्म की मूलधारा कोई मूलभूत परिवर्तन किये बिना अविरल बहती रही।
सामूहिक रूप से संघों के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करने के पूर्व हमें श्रमण एवं श्रावक के व्यक्तिगत गुणों का ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है। व्यक्तियों के समूह से ही संघ बनता है और संघ में किस प्रकार के व्यक्ति— पुरुष या स्त्री का प्रवेश स्वीकृत था, इसकी चर्चा अनुपयुक्त नहीं होगी। संघ में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को अपने माता-पिता, अन्य पारिवारिक सदस्यों अथवा अग्रज की अनुमति आवश्यक थी। उसे रोग-व्याधि, व्यक्तिगत अथवा राजकीय ऋण या कर्ज से मुक्त होना चाहिए ताकि संघ-प्रवेश के बाद कोई विवाद न खड़ा हो सके। किसी भी अवस्था में कोई नपुंसक क्षित न हो जाये- इसका विशेष ध्यान रखा जाता था, क्योंकि यह माना गया था कि इसमें पुरुष एवं स्त्री- दोनों के वेद होते हैं और समयानुसार यह दोनों को दूषित कर सकता है। जैन आचार्यों द्वारा संघ प्रवेश के समय कितनी कड़ी परीक्षा ली जाती थी- नपुंसकों के कितने भेद-प्रभेदों को व्याख्यायित किया गया, पढ़ कर आश्चर्य होता है। एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है अर्थात् एक व्यक्ति की अच्छाइयों एवं बुराइयों से सम्पूर्ण संघ प्रभावित हो सकता था- इसका पूर्ण ज्ञान जैन आचार्यों को था। व्यक्तिगत गुणों एवं आदर्शों को विशेष पल्लवित किया जाता था। मुनि स्थूलिभद्र एवं श्रावक आनन्द के व्यक्तिगत गुण आज भी समादृत एवं प्रेरणादायी हैं। जैनधर्म की यह विशेषता रही है कि उसके मतावलम्बियों की संख्या कम तो रही, परन्तु ज्ञान एवं आचरण में वह सर्वश्रेष्ठ थी।
जैन-परम्परा का एक आदर्श श्रमण (भिक्षु अथवा भिक्षुणी) कौन हो सकता थाइसकी विस्तृत चर्चा उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक में वर्णित है। एक आदर्श भिक्षु वह माना गया जो सम्यक दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र से युक्त हो, इन्द्रियों को संयत रखने में समर्थ हो, सरल वृत्ति का हो, शास्त्रज्ञ एवं बुद्धिमान हो। जो मन-वचन-काया को वश में रखता हो, अल्पाहारी, परिग्रह त्यागी तथा मित्र एवं शत्रु से रहित हो- वह सच्चा श्रमण माना गया। वस्तुतः समत्व भाव की साधना के कारण ही श्रमण, श्रमण
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