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वरदान के बाद वृद्धवादी ने मान्त्रिक शक्ति द्वारा मूसल पर पुष्पों की वर्षा का सार्वजनिक प्रदर्शन किया।
प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश के अनुसार ही गोपगिरि के शासक आमराज के दरबार के बौद्धवादी वर्धनकुञ्जर को पराजित करने के लिये जैन आचार्य बप्पभट्टसूरि ने सरस्वती का आहवान कर प्रत्यक्ष किया था । विवरण के अनुसार छ: मास तक वाद का निर्णय न होने पर विजय के लिये बप्पभट्टि ने गुरुप्रदत्त मन्त्र से सरस्वती का आहवान किया। मन्त्र शक्ति से अन्तरिक्ष गङ्गा में निर्वस्त्र स्नान कर रही सरस्वती वस्त्र धारण करना भूलकर बप्पभट्टि के समक्ष नग्न ही अवतरित हो गयीं। बप्पभट्टि ने देवी की स्तुति में १४ श्लोकों के स्तोत्रों की रचना की । स्तुति से प्रसन्न देवी ने वाद में विजय का मार्ग बताया । अदृश्य होने से पूर्व सरस्वती ने बप्पभट्टि को आदेश दिया कि वह इन १४ स्तोत्रों को दूसरे किसी के समक्ष न ही पाठ करे, न ही लिखित रूप में दें, क्योंकि ये स्तोत्र इतने शक्तिशाली हैं कि उन्हें साधक के समक्ष बार-बार उपस्थित होना पड़ेगा।
पुरातनप्रबन्धसंग्रह के अनुसार विभिन्न मतावलम्बी अपने-अपने दर्शन की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में हुए विवाद के निर्णय के लिये राजा भोज के पास गये। भोज के आहवान पर प्रकट होकर देवी ने अर्हतधर्म (जैनधर्म) के आचरण का निर्णय दिया। वैदिक परम्परा के 'अनुसार भी श्वेतकेतु ऋषि द्वारा मानवीरूप में सरस्वती का दर्शन करने का उल्लेख वनपर्व में प्राप्त होता है।
एक अन्य विवरण के अनुसार अन्तरिक्ष में विचरण करती हुई सरस्वती बौद्धों के साथ वाद में संलग्न जैन आचार्य मल्लवादी के कण्ठ में प्रविष्ट हो गयी थीं। फलस्वरूप मल्ल्वादी वाद में विजयी हुए । मल्लवादी की विलक्षण स्मरणशक्ति से प्रसन्न हो देवी ने एक श्लोक पढ़ने से ही सम्पूर्ण शास्त्र का अर्थ समझने का वरदान दिया। जैन प्रबन्धों के अनुसार देवी सरस्वती ने मल्लवादी को न्यायग्रन्थ 'नयचक्र' प्रदान किया।
मल्लवादी प्रसङ्ग में वर्णित सरस्वती का अन्तरिक्ष विचरण और कण्ठप्रवेश वैदिक साहित्य' में भी उल्लिखित है। सरस्वती अपने वाहन हंस पर अन्तरिक्ष में विचरण करती हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में याज्ञवल्क्य कहते हैं कि उन्होंने एक बार यजुर्वेद सीखने के लिये तपस्या की थी, जिसके फलस्वरूप सूर्य प्रकट हुए और उनका अभिप्राय जानकर बोले कि तुम अपना मुख खोलो वाग्देवी सरस्वती तुम्हारे कण्ठ में प्रवेश करेगी। ऋषि ने वैसा ही किया और सरस्वती उनके कण्ठ में प्रविष्ट हो गयीं।
हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती ई०) भी अन्य चामत्कारिक शक्तियों के साथ ही सारस्वत शक्ति सम्पन्न थे। प्रभावकचरित" के अनुसार चौलुक्यराज जयसिंह ने हेमचन्द्र से उज्जैन के परमारशासक भोज के व्याकरण के समान ही एक व्याकरण ग्रन्थ की रचना का निवेदन किया था। इसी प्रसङ्ग में स्तुति से प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष सरस्वती ने
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