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मिथ्यादृष्टियों का अपकर्ष करने के लिये जो चामत्कारिक क्रियायें हैं, वे भी महात्माओं को करनी चाहिए।
यही कारण है मोक्षमार्गाभिमुख जैनधर्म व्यवहार में अलौकिक शक्तियों द्वारा राजाओं, प्रतिपक्षियों और जनसामान्य को प्रभावित करने का प्रयास हुआ। जैनधर्म में तन्त्र मुख्यत: मन्त्रवाद के रूप में था और तान्त्रिक-साधना के घिनौने आचरणपक्ष को इसमें कभी मान्यता नहीं मिली। यहाँ मन्त्रवाद के साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मा की शान्ति तथा पवित्रता के लिये विद्याशक्ति को भी महत्त्व दिया गया। जैन-परम्परा में विद्वान् मन्त्र और विद्या को पृथक्-पृथक् मानते हैं। मन्त्र द्वारा देवों का आह्वान किया जाता है जबकि विद्या, देवियों की साधना से सम्बन्धित है, परन्तु वस्तुत: दिव्य शक्तियों से सम्बन्धित दोनों ही पद्धतियाँ मूलतः एक हैं।
विद्याओं का उल्लेख प्रारम्भिक आगमग्रन्थों में ही नहीं अपितु पूर्व साहित्य में भी प्राप्त होता है। परम्परागत मान्यता है कि तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य, जो महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण पूर्वसाहित्य के नाम से जाना जाता है उसका दसवाँ पूर्व विद्यानुप्रवाद पूर्णत: मन्त्र और विद्याओं से सम्बन्धित था। जैन-परम्परा में विद्याओं की कुल संख्या ४८ हजार बतायी गयी है। विद्वानों के अनुसार इनमें से १६ विद्याओं को लेकर आठवीं शती ई० में महाविद्याओं की संख्या नियत हुई। इन्हीं महाविद्याओं में से कुछ को ८-९वीं शती ई० में २४ यक्षिणियों में सम्मिलित किया गया।
जैनधर्म में श्रतविद्या के रूप में सरस्वती की आराधना अत्यन्त प्राचीन है। 'निर्वाणकलिका ५ में जैन द्वादशाङ्गी को श्रुतदेवता का अवयव और १४ पूर्व ग्रन्थों को उनका आभूषण बताया गया है। सरस्वती के चारों हाथों की कल्पना भी जैनागमों के धर्मकथानुयोग, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग और करणानुयोग रूप चार अनुयोगों के आधार पर की गयी है। वैदिक-परम्परा के विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी देवी सरस्वती की भुजाओं तथा उनमें धारणा किये गये उपकरणों के चित्रण में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद को देवी की चार भुजाएँ बताया गया है। इन प्राचीन जैन-पारम्परिक मान्यताओं के साथ ही जैन साहित्य से भी सरस्वतीपूजन की प्राचीनता की पुष्टि होती है। पञ्चम अङ्ग ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति (दूसरी-तीसरी शती), शिवशर्माकृत पाक्षिकसूत्र लगभग पाँचवीं शती ई०, महानिशीथसूत्र, द्वादशारण्यचक्रवृत्ति (लगभग ६७५ ई०), हरिभद्रसूरिकृत पञ्चाशक (लगभग ७७५ ई०), संसार दावानल स्तोत्र, तथा बप्पभट्टिसूरिकृत 'शारदास्तोत्र' (लगभग ८वीं शती ई० का तीसरा चरण) के साहित्यिक सन्दर्भ उक्त तथ के प्रमाण हैं। पुरातात्त्विक सन्दर्भो में मथुरा से प्राप्त प्राचीनतम कुषाणकालीन (१३२ या १३९ ई०) सरस्वती प्रतिमा, सरस्वती आराधना के प्राचीनकाल से प्रचलन को सिद्ध करती है। जैनमन्दिरों, विशेषत: पश्चिम भारत के मन्दिरों
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