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जैन तान्त्रिक साधना में सरस्वती
(जैन प्रबन्धों के विशेष सन्दर्भ में) डॉ० अशोक कुमार सिंह
यदि तन्त्रशास्त्र या तान्त्रिकचर्या का मूल या अन्तस्तत्त्व यह माना जाय कि इसका लक्ष्य भगवान् या ईष्ट के पास पहुँचने की अपेक्षा भगवान् या इष्ट को ही आराधक के पास ले आना है तो इस अर्थ में तन्त्र साधना का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है और इष्ट देव या देवी के प्रत्यक्षीकरण अथवा उन्हें प्रसन्न करने के लिये जो भी क्रियाएँ की जाती हैं वे सब तन्त्र-साधना की सीमा के अन्तर्गत आते हैं। इस दृष्टि से देव, देवियों के प्रत्यक्षीकरण के निमित्त किये गये उपवास, व्रत, स्तुति, न्यास, मुद्रा, मन्त्र-जाप आदि भी मोटे तौर पर तन्त्र-साधना में ही समाहित हैं और इसी परिप्रेक्ष्य में जैन तन्त्र - साधना को देखा जाना चाहिए और निश्चित रूप से जैन - परम्परा में तान्त्रिक साधना के तत्त्व विद्यमान है।
मानव की अन्तःशक्तियाँ असीम और अनन्त हैं। इन अन्तःशक्तियों को जागृत करने के लिये भारतीयों में प्राचीनकाल से ही किसी न किसी रूप में तन्त्र-साधना विद्यमान रही है। रासन फिलिप ने अपनी पुस्तक 'द आर्ट ऑव तन्त्र' में कहा है कि तन्त्र केवल धर्म या विश्वास ही नहीं वरन् एक विशेष प्रकार की जीवन पद्धति भी है । निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का पोषक जैन धर्म मूलतः तन्त्र और मन्त्र का विरोधी था, परन्तु वैदिक और बौद्ध तान्त्रिक-साधना के प्रभाव से जैन धर्म में भी तन्त्र साधना का समावेश हुआ। सम्भवतः यही कारण है कि जैन वाङ्मय में मन्त्रवाद और विद्या के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी अवधारणाएँ प्राप्त होती हैं। एक ओर चतुर्थ जैन अङ्ग 'समवाओं में मन्त्र और विद्या- साधना को पापश्रुत में समाविष्ट किया गया, जिसका व्यवहार जैन श्रमणों के लिये निषिद्ध था, तो दूसरी ओर छठें अङ्ग 'णायधम्मकहाओ' २ में गणधर सुधर्मा की, विद्या और मन्त्र दोनों का ज्ञाता कहकर, प्रशंसा की गयी है तथा 'विशेषावश्यकभाष्य' में आर्य 'खपुट को प्रशस्त भाव में विद्यासम्राट् कहा गया है। जैन ग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है विद्या और मन्त्रों के द्वारा, जो जैनधर्म का उत्कर्ष किया जाता है, वह प्रभावना अङ्ग कहलाता है, तत्त्वज्ञानियों को यह करना चाहिए। मिथ्यात्व के उत्कर्ष को बढ़ाने वाले
वरिष्ठ प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ.
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