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आधिपत्य में नहीं आ सका। भगवान् महावीर ने प्रारम्भ काल में- मुख्यत: केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व काल में, अंग और मगध साम्राज्यों में ही विहार कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। उन्होंने स्थानीय बोली- अर्द्धमागधी में अपने सिद्धान्तों का निरूपण तथा प्रचार किया। यदि वे वैशाली से सम्बन्धित होते तो उनकी भाषा वैगइ होती। यह भाषायी तथ्य भी भगवान महावीर के वास्तविक जन्मस्थान के सन्धान पर रोशनी डाल सकता है। लछवाड़ के निकट का क्षेत्र मागधी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
__पुरातत्त्व की दृष्टि से, कुछ भारतीय विद्वान् वैशाली में हुई खुदाई में भगवान् महावीर की कुछ प्रतिमाओं के मिलने के कारण इस स्थान को उनकी जन्मस्थली मानते हैं, परन्तु वर्तमान लेखक को लछवाड़ के निकट भगवान् महावीर की अनेकों उत्कीर्ण एवं अनुत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां मिली हैं। मूल गर्भगृह में भगवान् महावीर की पद्मासन में श्यामवर्णीय मनोरम प्रस्तर प्रतिमा निश्चित रूप से १०वीं-११वीं सदी की है, जो विशाल आकार की है, परन्तु ऐसा कोई प्राचीन जैन भग्नावशेष वैशाली के निकट प्राप्त नहीं हुआ। लछवाड़ के निकट स्थित मन्दिरों में पूजा की जाने वाली भगवान् महावीर की अनेक प्रतिमायें १०वीं से १५वीं सदी की हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि यह स्थान भगवान् महावीर के जन्मस्थान के रूप में विख्यात था। यह विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि परम्पराएँ आसानी से लप्त नहीं होती। यही परम्परा लछवाड़ में दूरस्थ स्थानों के हजारों जैन तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करती थी। खरतरगच्छ के महान् जैन आचार्य जिनप्रभसूरि (१४वीं सदी) ने इन स्थानों की यात्रा भी की थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में वर्णन किया है कि ब्राह्मण कुण्डग्राम तथा क्षत्रियकुण्ड ग्राम से राजगृह तथा पावापुरी की दूरी बहुत अधिक नहीं थी। १७वीं सदी के जैन कवि हंससोम ने भगवान् महावीर के जन्मस्थान से काकंदी (नौवें तीर्थङ्कर भगवान् सुविधिनाथ का जन्मस्थान) की दूरी सिर्फ ५ कोस(१० मील) बतायी है। १७वीं सदी के श्वेताम्बर मुनि सौभाग्यविजय ने क्षत्रियकुण्डग्राम तथा ब्राह्मणकुण्डग्राम के पहाड़ियों के मध्य में होने का उल्लेख किया है। विभिन्न जैन तीर्थयात्रियों के इन वर्णनात्मक यात्रा वृत्तों का विशेष धार्मिक महत्त्व है। बहुयारी नदी के निकट मुर्शिदाबाद के राय धनपत सिंह ने सन् १८६३ में एक विशाल धर्मशाला का निर्माण भी करवाया था।
निःसन्देह भगवान् महावीर का वैशाली के लिच्छवियों से निकट सम्बन्ध था। 'लछवाड़' का नाम भी लिच्छवियों के कारण पड़ा। ऐसा लगता है कि कुछ लिच्छवी राजकुमारी त्रिशाला के साथ इस स्थान पर आये एवं यहीं बस गये। कालान्तर में यह स्थान लछवाड़ के नाम से जाना जाने लगा।
उपरोक्त तथ्यों के अनुशीलन से यह स्पष्टत: प्रमाणित होता है कि लछवाड़ के निकट जन्मस्थान ही भगवान् महावीर का वास्तविक जन्मस्थल है।
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