________________
५१
हों, वे इक्ष्वाकु कुल के परिवार में अथवा सिर्फ क्षत्रिय कुल में जन्म लेते हैं'। तब उन्होंने शस्त्रदल के सेनापति हरिणेगमेशी को आदेश दिया कि देवानन्दा की कुक्षि से भ्रूण का हस्तान्तरण ज्ञातृवंशीय राजा सिद्धार्थ की पत्नी रानी त्रिशला की कुक्षि में कर दिया जाये। आदेश का शीघ्र ही पालन किया गया। आचाराङ्ग और कल्पसूत्र दोनों के अनुसार भगवान् महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी जब चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र में था, को हुआ। महाराज सिद्धार्थ ने राजपुत्र का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया, जिसे देखने के लिये स्वर्ग से कुछ किनरियाँ समीपवर्ती पहाड़ी पर आयी थीं। उनका नामकरण हुआ वर्द्धमान- उत्तरोत्तर वृद्धि पाने वाला, क्योंकि परिवार के कोष में उनके जन्म से ही वृद्धि होने लगी थी। कहा जाता है कि लोगों द्वारा उन्हें श्रमण कहा जाता था, क्योंकि वे हमेशा चिन्तनमग्न रहते थे तथा उन्हें महावीर भी कहा जाता था, क्योंकि वे आपदाओं एवं भय अवस्था में दृढ़ रहते थे। सिर्फ तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपना राजप्रासाद त्याग दिया और नयासांदा की वाटिका में पहुँचे, जो उनके गृह नगर के निकट अवस्थित था। वहाँ एक अशोक वृक्ष के नीचे उन्होंने अपने अलंकरण, वस्त्राभूषण आदि सभी बहुमूल्य वस्तुएँ त्याग दी तथा पांच बार में मुट्ठि से अपने केश लोंच लिये। इसके पश्चात् वे कुमारसत्रिवेश आये तथा अगले दिन कोल्लागसनिवेश पहुँचे। कोल्लाग से वे मौरका पहुँचे एवं ८ महीने पश्चात् वापस कोल्लाग लौटे। उसके पश्चात् उन्होंने अस्थियाम का भ्रमण किया तथा पुन: मौरका लौट आये। उन्होंने अपना प्रथम वर्षावास अस्थिग्राम में बिताया, दूसरा मौरका में तथा तीसरा चम्पा में। चम्पा जाते हुए वे स्वर्णखाला भी गये। अपने आठ वर्षों के पद भ्रमण में, वे लोहागल्ल शहर पहुँचे, जहाँ नगर रक्षकों ने उन्हें कारागार में डाल दिया। उनके कारागार जाने की सूचना अस्थिग्राम में निवास करने वाले उनके मित्र उप्पल को प्राप्त हुई, तो तुरन्त उसने लोहागल्ल के लिये प्रस्थान किया एवं राजकुमार वर्द्धमान को कारागार से मुक्त करवाया। ग्यारह वर्ष समाप्ति पश्चात् उन्होंने चम्पा से प्रस्थान किया तथा जम्भियग्राम पधारे। तत्पश्चात् उन्होंने १२ योजन (करीब ४८ मील) का भ्रमण किया तथा पावापुरी पहुंचे। वे पुनः जम्भियग्राम आये और ऋजुवालुका नदी के उत्तरी तट पर एक 'शमक' के खेत में स्थित एक शाल वृक्ष के नीचे गहन ध्यानमग्न हो गये। उन्होंने राजगृह में १४ वर्षावास तथा वैशाली में १२ वर्षावास व्यतीत किये। सिर्फ ७२ वर्ष की आयु में पावापुरी में उनका देहावसान हुआ। शीघ्र ही उनके देहावसान का समाचार क्षत्रियकुण्ड तक पहुँचते ही उनके अग्रज- महाराज नन्दिवर्द्धन तुरन्त वहाँ पहुँच गये।
इन साहित्यिक तथ्यों का मूल्यांकन हमें भूगर्भीय, भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा भाषायी साक्ष्यों के सन्दर्भ में करना चाहिए। कतिपय पश्चिमी विद्वानों यथा वी०ए० स्मिथ, हानले, जैकोबी, जैकी शान्टियर आदि तथा कुछ भारतीय विद्वानों के०पी० जैन, वाई० मिश्रा आदि की वैशाली को भगवान् महावीर की जन्मस्थली मानने की धारणा निर्मूल सिद्ध होती है, क्योंकि इसके समीप कोई पहाड़ी अवस्थित नहीं है। इसके अलावा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org