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पर, सरस्वती के अनेकशः निरूपण से भी सरस्वती पूजन की लोकप्रियता सिद्ध होती है। श्वेताम्बर - परम्परा में ज्ञानपञ्चमी और दिगम्बर - परम्परा में श्रुतपञ्चमी का आयोजन भी सरस्वती की लोकप्रियता का ही साक्षी है। जहाँ तक दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती पूजन की लोकप्रियता का प्रश्न है, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वतीपूजन अधिक लोकप्रिय था। सम्भवतः यही कारण है कि बादामी, ऐहोल एवम् एलोरा जैसे दिगम्बर जैनस्थलों पर सरस्वती की मूर्तियाँ नहीं बनीं।
जैन - परम्परा में पूर्व मध्यकाल में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती की साधना शक्ति के रूप में भी की गयी, जिसमें कालान्तर में तन्त्र का भी प्रवेश हुआ । पूर्वमध्यकालीन प्रबन्धों में सरस्वती की मान्त्रिक एवं तान्त्रिक साधना के फलस्वरूप विभिन्न शक्तियाँ प्राप्त करने के बहुत से दृष्टान्त हैं। सरस्वती की मान्त्रिक एवं तान्त्रिक साधनाओं से असाधारण कवि और वादी बनने के साथ ही अन्य प्रकार की विद्याशक्तियाँ प्राप्त होती थीं। जैन - परम्परा में सरस्वती सिद्धि के लिये मन्त्रगर्भित स्तोत्रों, मन्त्रों एवं यन्त्रों की रचना के साथ-साथ व्यवस्थित अनुष्ठान विधि का प्रचलन हो चुका था ।
मध्ययुगीन जैन साहित्य में आचार्य वृद्धवादी, बप्पभट्टिसूरि, मल्लवादी सूरि, हेमचन्द्र, मल्लिषेण, नरचन्द्रसूरि आदि जैन आचार्यों द्वारा सरस्वती का साक्षात्कार करने तथा उनसे शक्ति प्राप्त करने का उल्लेख है। ये वृत्तान्त नेमिचन्द्रसूरिकृत आख्यानकमणिकोश, प्रभाचन्द्रकृत प्रभावकचरित ( १२५० ई०), मेरुतुङ्गकृत प्रबन्धचिन्तामणि (१३०५ ई०), राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश (१३४८ ई०), पुरातनप्रबन्धसंग्रह (अज्ञात कर्तृक), जिनमण्डनकृत कुमारपालचरित आदि में उपलब्ध हैं। इन प्रबन्धों में सरस्वती आराधना का लक्ष्य, अलौकिक कवित्व शक्ति प्राप्त करना, प्रतिद्वन्द्वी वादी को पराजित करना आदि था। इन प्रबन्धों से यह ज्ञात होता है कि कश्मीर को ब्राह्मदेश कहा जाता था और मान्यता थी कि सरस्वती यहाँ सशरीर निवास करती थी और आहवान करने पर मानवी रूप में उपस्थित होकर अनुग्रह करती थीं। जैनाचार्य सरस्वती की कृपा प्राप्त करने तथा अपनी कृतियों को सरस्वती से स्वीकार कराने हेतु कश्मीर यात्रा करते थे।"
उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में वर्णित सरस्वती आराधना के प्रयोजन जैसे रक्षा, समृद्धि, धन-प्राप्ति, सन्तान प्राप्ति, शारीरिक बाधा नाश, व्याधिनाश, कृमि - कीटों का नाश, विष- शमन आदि का जैन - परम्परा में सर्वथा अभाव है।
प्रबन्ध ग्रन्थ प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश में एक कथा वृद्धवादी सूरि (लगभग चौथी शती ई०) से सम्बन्धित है, जिन्होंने इक्कीस दिनों के उपवास द्वारा जिनालय में सरस्वती का आहवान किया था। उनकी कठिन आराधना से प्रसन्न होकर सरस्वती सभी विद्याओं (सर्वविद्यासिद्ध) में पारङ्गत होने का वरदान दिया था। सरस्वती के
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