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(कोषाध्यक्ष) भी था।
तत्थ निच्चकालं रज्जं कारेत्वा वंसतानं येव राजनं सत्तसहससानि सत्तसतानि सत च राजानो होंति तत्तका; येव उपराजानो तत्तका सेनापतिनो तत्तका भंडागारिका।'
एकपण्णजातक (सं० १४९, १, ५०४, फोसबोल द्वारा सम्पादित संस्करण) इन्हीं ७७०७ राजाओं में से एक राजा सिद्धार्थ था।
(५) भगवान् महावीरस्वामी की जन्म-भूमि डॉ० हार्नले के अनुसार कोल्लाग सन्निवेश है क्योंकि कोल्लाग को डाक्टर साहब वैशाली का एक मुहल्ला मानते हैं इसलिये वैशाली को भी जन्म-भूमि मानते हैं। परन्तु हम ऊपर यह निर्देश कर चुके हैं कि कोल्लाग और वैशाली दो भिन्न-भिन्न नगर थे, एक दूसरे के निकट अवश्य थे। भगवान् की जन्मभूमि वस्तुत: कुण्डपुर (क्षत्रियकुण्ड) थी, यहाँ भगवान् ने ३० वर्ष की आयु तक अपना जीवन बिताया था, इस नगर के बाहर स्थित नायसंडवण में भगवान् ने दीक्षा ली, यहाँ से थलमार्ग से कारग्राम पहुँचे, यहीं रात्रि बिताई। अगले दिन प्रात:काल कर्मारग्राम से विहार करके कोल्लागसत्रिवेश में गये।
सम्भवतः डाक्टर साहब को भ्रान्ति इसलिये हुई है क्योंकि कुण्डपुर में ज्ञातकुल के क्षत्रिय रहते थे और कोल्लाग में भी ज्ञातकुल के क्षत्रिय; इसलिए उन्होंने दोनों को एक समझकर वर्णन कर दिया।
(६) डॉ० जाकोबी का विचार है कि त्रिशला माता को जैनग्रन्थों में सर्वत्र क्षत्रियाणी रूप में लिखा गया है, देवीरूप में नहीं। हम यह ऊपर बता चुके हैं कि क्षत्रिय का अर्थ कोश और टीकाकारों के अनुसार 'राजा' भी होता है, उसी सम्बन्ध में क्षत्रियाणी का अर्थ देवी या रानी हो जायेगा। सामान्यत: भारतीय शब्द प्रयोग परम्परा यह है कि क्षत्रिय-वंश से सम्बन्ध होने के कारण नाम के पीछे पुन:-पुनः क्षत्रिय का प्रयोग नहीं किया जाता, परन्तु यदि क्षत्रियवंश से सम्बन्ध होने पर वीरोचित कार्य करता है अथवा राजकुल से सम्बद्ध होता है तो कहा जाता है कि 'क्षत्रिय ही तो है। उसका सम्मान प्रगट करने के लिये क्षत्रियशब्द का प्रयोग किया जाता है।
इसके अतिरिक्त जैनग्रन्थों में त्रिशला माता को देवी रूप में बहुत स्थलों पर वर्णन किया गया है। ऊपर क्षत्रियकुण्ड वाले प्रकरण में हमने आचार्य पूज्यपाद विरचित दशभक्ति से एक श्लोक उद्धत किया था, उसमें माता त्रिशला के लिए देवीशब्द का प्रयोग किया गया है। वह पंक्ति इस प्रकार है
'देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः।' अन्य ग्रन्थों में भी देवी का प्रयोग किया गया है
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