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(५) महावीर की जन्मभूमि कोल्लाग ही थी और इसी कारण से जब संसार त्यागा तब स्वाभाविक रीति से ही अपनी जन्मभूमि से पास स्थित द्विपलाश नाम के अपने ही कुल के चैत्य में प्रथम जा रहा। (देखें कल्पसूत्र ११५-१६)
- डॉ० हार्नले का उपरोक्त लेख (६) उस (सिद्धार्थ) की पत्नी जिसका नाम त्रिशला था, उसका भी हमेशा क्षत्रियाणी रूप में वर्णन किया गया है। जहाँ तक मुझे स्मरण है उसे देवीरूप में कहीं नहीं लिखा गया।
---- डॉ० जाकोबी का उपरोक्त लेख (७) सन्निवेश अथवा मोहल्ला। - डॉ० हार्नले का लेख
कुण्डग्राम को आचारागसत्र में एक सत्रिवेश रूप में लिखा गया है , जिसका अर्थ टीकाकारों ने 'यात्री अथवा काफिले (सार्थवाह) का विश्रामस्थान' अर्थ किया है।
- डॉ० जाकोबी का लेख (८) उवासगदसाओ के सूत्र ७७ और ७८ में वाणियागाम के प्रकरण में प्रयुक्त 'उच्चनीचमज्झिमकुलाइं' अर्थात् ऊंच, नीच और मध्यमवर्ग वाला-विशेषण दुल्व (रोखिल का बुद्धचारित्र, पृष्ठ ६२) में आये हुए निम्न वर्णन से मिलता है-- वैशाली में तीन विभाग थे, जिसमें पहले विभाग में सुवर्ण कलश वाले ७००० घर थे, बीच के विभाग में रजतकलश वाले १४००० घर थे और अन्तिम विभाग में ताम्रकलश वाले २१००० घर थे। इन विभागों में ऊँच, मध्यम और नीच वर्ग के लोग क्रम से रहते थे।"
- डॉ० हार्नले का उपर्युक्त लेख
परन्तु डॉ० हार्नले और डॉ० जाकोबी दोनों की ही स्थापनाएँ जैन-शास्त्रों से मेल नहीं खाती; शास्त्रों के प्रमाणों को हम यहाँ उपस्थित करके टिप्पणियों को टटोलेंगे।
(१) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् में भगवान् के वैशाली से वाणिज्यग्राम की ओर जाने का उल्लेख है। इससे प्रगट होता है कि दोनों पृथक्-पृथक् नगर थे।
नाथोऽपि सिद्धार्थपुराद्वैशाली नगरीं ययौ। शंखः पितृसहत्तत्राभ्यानर्च गणराट् प्रभुम्।।१३८॥ ततः प्रतस्थे भगवान् ग्रामं वाणिजकं प्रति। मार्गे गंडकिका नाम नदी नावोत्ततार च।।१३९।।
-त्रि०२०पु०च०, पर्व १०, सर्ग ४, पत्र ४५. अर्थात् भगवान् वैशाली से वाणियागाम की ओर चले और रास्ते में उन्हें गंडकी नदी को पार करना पड़ा।
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