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(२) यदत्रपुण्यम् तद्भवत्वाचार्यों-पाध्याय- मातापितोरात्मनश्च पूर्व्वगममकृ
(३) त्वा सकल-स(त्) त्वराशेरनुत्तर- ज्ञानावाप्त्यैति ।।”
अर्थात् माणिक्य के पुत्र, लेखक और महायान के परम अनुयायी उत्साह का यह धर्मपूर्वक किया गया दान है। इससे जो भी पुण्य हो, वह आचार्य, उपाध्याय, माता-पिता और अपने से लेकर समस्त प्राणिमात्र के अनन्त कल्याण की प्राप्ति के लिये हो ।
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स्तम्भ से ५० फीट पर ही रामकुण्ड अथवा मर्कटह्रद है, जिसके किनारे कूटागारशाला थी। कूटागारशाला में ही बुद्ध ने आनन्द को अपने निर्वाण की सूचना दी थी। खुदाई करने पर पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली एक मोटी दीवार पायी गई है जो कि पक्की ईंटों की है, ईटों का आकार १५१, ४९९/, " है। दीवार के पश्चिमी छोर पर एक छोटे स्तूप के अवशेष पाये गये हैं, इस स्तूप की अनेक ईंटे इधर-उधर पड़ी थीं। सवा सात इञ्च व्यास वाली एक गोलाकार ईंट थी जिसका ऊपरी भाग गोल था, इसके बीच में एक चौकोर छेद था। कनिंघम के विचारानुसार यह स्तूप के शिखर की एक ईंट रही होगी।
कोल्हुआ, बनिया और बसाढ़ से पश्चिम में 'न्योरी नाला' नामक नदी का पुराना पाट बहुत दूर तक चला गया है। अब इसमें खेती होती है।
यहाँ एक जनश्रुति प्रसिद्ध है कि प्राचीन वैशाली के चारों कोनों पर चार शिवलिङ्ग स्थापित थे। इसका आधार क्या है, यह पता नहीं, न ही इसके पक्ष में कुछ प्रमाण उपलब्ध हैं। उत्तर-पूर्वी 'महादेव' जो कूमनछपरागाछी में है वास्तव में बुद्ध की मूर्ति है जो कि चतुर्मुख है। उत्तर-पश्चिम में एक संगमरमर का लिंग बना हुआ है जो बिल्कुल आधुनिक है। इन दोनों को महादेव के रूप में यहाँ की जनता बहुत भक्तिभाव से पूजती है।
वैशाली में चीनी यात्री
वैशाली में फाहियान और ह्वेनसांग आदि चीनी यात्री आये थे। उन लोगों ने अपने यात्रा- वृत्तों में इसका वर्णन किया है।
फाहियान ने लिखा है- "वैशाली नगर के उत्तर में एक महावन कूटागारविहार है (बुद्धदेव का निवासस्थान है ) आनन्द का अर्द्धाङ्ग स्तूप है। नगर में अम्बपाली वेश्या रहती थी, उसने बुद्धदेव का स्तूप बनवाया, अब तक वैसा ही है। नगर के दक्षिण तीन ली पर अम्बपाली वेश्या का बाग है जिसे उसने बुद्धदेव को दान दिया कि वे उसमें रहें। बुद्धदेव परिनिर्वाण के लिये जब सब शिष्यों सहित वैशाली नगर के पश्चिम द्वार से निकले तो दाहिनी ओर वैशाली नगर को देखकर शिष्यों से कहा यह मेरी अन्तिम विदा है। पीछे लोगों ने वहाँ स्तूप बनवाया ।
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