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अनेकान्तवाद और उसकी समसामयिकता
डॉ० अजय कुमार
भारतीय संस्कृति प्रधानत: दो शाखाओं में विभक्त है- वैदिक तथा श्रमण। श्रमण धारा के भी दो रूप मिलते हैं- जैन एवं बौद्ध। जैन-परम्परा विश्व की प्राचीन परम्पराओं में से एक है। इसका प्रसिद्ध सिद्धान्त है- सापेक्षतावाद। सापेक्षतावाद की झलक वैदिक चिन्तन एवं बौद्ध चिन्तन में भी मिलती है। वैदिक साहित्य के उपनिषदों में परमतत्त्व या ब्रह्म को छोटा से छोटा और बड़ा से बड़ा कहा गया है। इस कथन में दृष्टि-भेद
और सापेक्षता निहित है। इसी तरह बौद्ध-परम्परा में भी देखा जाता है कि अपने एक शिष्य के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर भगवान् बुद्ध ने सापेक्षतावादी उत्तर दिया है, जिसे बौद्ध दर्शन में विभज्यवाद कहा गया है। एक समय एक शिष्य ने बुद्ध से पूछा भन्ते! आपकी दृष्टि में सोना अच्छा है अथवा जागना। इसका उत्तर देते हुए बुद्ध ने कहा कि दोनों ही अच्छे हैं या दोनों ही बुरे हैं, शिष्य समझ नहीं पाया। अत: अपने विचार को पुनः स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि सदाचारी या सज्जन या आर्य को जागना अच्छा है और सोना बुरा है, क्योंकि वह जितनी देर तक जगा रहेगा लोककल्याण करेगा और जब सो जायेगा तो लोककल्याण से विरत हो जायेगा। इसलिए उसका जागना अच्छा है और सोना बुरा है। ठीक इसके विपरीत जो दुराचारी है, दुर्जन है, अनाचारी है उसका सोना अच्छा है और जागना बुरा है, क्योंकि जितनी देर वह जगा रहेगा लोक का अकल्याण करेगा और जितनी देर सोया रहेगा लोक के अकल्याण से विरक्त रहेगा। इस तरह उसका सोना अच्छा है और जागना खराब है। इस प्रकार बुद्ध ने सापेक्षतावाद की पुष्टि की है।
किन्तु सापेक्षतावाद को जिस सुदृढ़ता और स्पष्टता के साथ जैन-दर्शन में प्रस्तुत किया गया है, उस तरह अन्यत्र कहीं भी इसे नहीं देखा जाता है। सापेक्षतावाद का प्रारम्भ अनेकान्तवाद से होता है। अनेकान्तवाद जैन-दर्शन का तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त है। अनेकान्तवाद की शाब्दिक संरचना तीन शब्दों के संयोग से हई है- अनेक, अन्त और वाद। अनेक का अर्थ होता है एक से अधिक, अन्त का मतलब है दृष्टि सीमा, अपेक्षता आदि। यहाँ अन्त का अर्थ समापन नहीं है। वाद तो सामान्य शब्द है, जो * एम०ए० (मनोविज्ञान एवं दर्शन),पी-एच०डी०, बी०एड०, शान्तिनिलयन,
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