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श्राद्धविधि प्रकरण लक्ष्मी का भी कुछ पार नहीं ऐसा यह मालव देश का राजा है । प्रजा पालने में दयालु, यह नेपाल भूपाल । जिसके स्थूल गुणों का वर्णन करने में भी कोई समर्थ नहीं है ऐसा यह कुरु देशका नरेश है । शत्रु की शोभा का निषेध करनेवाला यह नैषध का नृपाल है। यशरूप सुगन्धो को वृद्धि करनेवाला यह मलय देश का नरेश हैं" इसप्रकार सखियों द्वारा नाम उच्चारपूर्वक राजमंडल की पहिचान कराने से जिस तरह इन्दुमती ने अज राजा को हो वरमाला डाली थी वैसेही हंसी और लारसी कन्याओं ने जितारी राजा के ही कंठ में वरमाला आरोपण की इससमय लालचीपन, औत्सुक्यता, संशय, हर्ष, आनन्द, विषाद, लज्जा, पश्चाताप, ईर्षा प्रमुख गुणअवगुण से अन्य सब राजा व्याप्त होगये। ऐसे स्वयम्बर में कई राजा अपने आगमन को कई अपने भाग्य को, और कई अपने अवतार को धिक्कारने लगे। जितारी राजा का महोत्सव और दान सन्मान पूर्वक शुभ मुहूर्त में लग्नसमारंभ हुआ। भाग्य बिना मनोवांच्छित की प्राप्ति नहीं होतो, इस बात का निश्चय होनेपर भी कितनेक पराक्रमी राजा आशारहित उदास बन गये। कितने हो राजा ईर्षा और द्वेष धारणकर जितारी राजा को मार डालने तकके कुत्सित कार्य में प्रवृत्त होने लगे। परन्तु उस यथार्थ नामवाले जितारी राजा का चढ़ता पुण्य होने के कारण कोई भी बालबांका न कर सका । रति प्रीति सहित कामदेव के रूप को जीतनेवाला जितारी राजा उस समय अपने शत्रुरूप बने हुए सर्व राजमंडलके गर्व को चूर्ण करता हुआ अपनो दोनों स्त्रियों सहित निर्विघ्नतापूर्वक स्वराजधानी में जा पहुंचा । तदनन्तर बडे आडम्बर सहित अपनी दोनों राणियों को समहोत्सव नगर प्रवेश कराकर अपनी दोनों आंखों के समान समझकर उनके साथ सुख से समय व्यतीत करने लगा। हंसी राणी प्रकृति से सदैव सरल स्वभावी थी । परन्तु सारसी राणी राजा को प्रसन्न करने के लिए बोच में प्रसंगोपात कुछ कुछ कपट भो करतो थी । यद्यपि वह अपने पति को प्रसन्न करने के लिए ही कपट सेवन करतो थी तथापि उसने स्त्रीगोत्र कर्म का दृढ़तया बंधन किया। हंसी ने अपने सरल स्वभाव से स्त्रीगोत्र विच्छेद कर डाला इतना ही नहीं परंतु वह राजा के भी अत्यन्त मानने योग्य हो गई । अहो! आश्चर्य की बात है कि, इस छोटा बहिन ने अपनी मूर्खता से व्यर्थ ही अपनी आत्मा को कपट करने से नीचगति गामी बनाया। ____एक दिन राजा अपनो दोनों स्त्रियों सहित राजमहल में गवाक्ष के पास बैठा था इस समय उसने नगर से बाहर मनुष्यों के बड़े समुदाय को जाते देखा उसी वक्त एक नौकर को बुलाकर उसका कारण जानने की आज्ञा की। नौकर शोघ्र ही बाहर गया और कुछ देर बाद आकर बोला-"महाराज ! शंखपुरी नगरोसे एक बडा संघ आया है और वह सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा करने के लिए जाता है। अपने नगर के बाहर आज उस संघ ने पड़ाव किया है"। यह बात सुनकर बडे कौतुक से राजा संघ के पड़ाव में गया और वहां रहे हुए श्रीश्रुतसागर सूरि को राजा ने वंदन किया। सरलाशयवाला राजा आचार्य महाराज से पूछने लगा कि यह सिद्धावल कौनसा तीर्थ है ? और उस तीर्थ का क्या महात्म्य है ? क्षोरानव लब्धिके पात्र वे आचार्य महाराज बोले कि,राजन् ! इस लोक में धर्म से ही सब इष्ट सिद्धि प्राप्त होती है । और इस विश्व में धर्म ही एक सार भूत है । नाम धर्म तो दुनिया में बहुत ही हैं, परंतु अर्हत् प्रणीत धर्म ही अत्यन्त श्रेयस्कर है। क्योंकि सम्यक्त्व ( सद्धर्मश्रद्धा ) ही