________________
अनंते भाव सर्व भावोंके अनंतमें भागके भावोको जाने देखे. विपुलमति-विस्तार और विशुद्ध जाने देखे । इति।।
(३) केवलज्ञान सब आत्मा के प्रदेशोंसे ज्ञानावणिय दर्शनाणिय मोहनिय अन्तराय एवं च्यार घातिकर्म क्षय कर सर्व प्रदेशको निर्मल बनाके लोकालोकके भावों को समय समय हस्तामलकि माफीक जाने देखे. जिस केवल ज्ञानका दो भेद है एक भव प्रत्ययी-मनुष्य भवमे तेरहवे चौदवे गुणस्थानवाले जीवों को हात है दूसरी सिद्ध प्रत्ययी सकल कर्म मुक्त हो सिद्ध हो गये है उनाके केवल ज्ञान है जिस्मे भव प्रत्यके दो भेद है संयोग केवली तेरहवे गुणस्थान दुसरा अयोग केवली चौदवे गुणस्थान दुसरा सिद्धाक कवलज्ञानके दो भेद है एक अनंतर सिद्ध जिस सिद्धोंके सिद्धपदको एक समय हुवा है दुसरा परम्पर सिद्ध जिस सिद्धा. का बि समयसै यावत् अनंत समय हुवा हो अनन्तर परम्पर दोनो सिद्धोंके अर्थ सहित भेद शीघ्रबोध भाग दुसरेके अन्दर
छप चुके है यहां देखो । पृष्ट ८० से । - संक्षिप्तकर केवलज्ञानके च्यार भेद है द्रव्य क्षेत्रकाल भाव ।
(१) द्रव्य॑से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यको जाने देखे ।
(२) क्षेत्रसे केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रको जाने देखे। ... (३) कालसे केवलज्ञानी सर्व कालको जाने देखे । .... (४) भावसे केवलज्ञानी सर्व भावको जाने देखे । इति केवलज्ञान इति नोइन्द्रिय प्र० ज्ञान इति प्रत्यक्षज्ञान ।
सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम्
+
:
ANS.