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“અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૫
'શીધ્રબોધ ભાગ ૬ થી ૧૦
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી સમુદાયના પૂ. સા. શ્રી જ્યોતિ પ્રભાશ્રીજી મ.ની પ્રેરણાથી
જય એપાર્ટમેન્ટ, રામનગર, સાબરમતી, શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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051
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053
054
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
252
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302
196 190
202
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228
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190
138
296
210
274
286
216
532
113
112
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
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शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
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208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
Page #9
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
Page #10
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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श्री रत्नप्रभाकर झान पुष्पमाला पुष्प नं० ३२-३४-३८-३९-४२.
श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः
अथ श्रीशीघ्रबोध जाग (६-७-८-६-१०)
. लेखकश्रीमद् उपकेश (कमला) गच्द्रीय, मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज..
प्रकाशकश्री वीर मण्डल. मु. नागोर ( मारवाड. )
प्रबन्ध कर्ता, जोरावरमल वैद.
मेनेजर, श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला-फलीदा.
(द्वितियावृत्ति प्रत १०००). वीर सं. २४५१
विक्रम सं. १९८१
.
Page #12
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धन्यवाद के साथ स्वीकार.
इन शीघ्रबोध भाग ६-७-८-६-१० वा की छपाइमें जीन ज्ञानप्रेमियों ने द्रव्य सहायता दे श्रपनि चल लक्ष्मी का सदू उपयोग कीया है उसे सहर्ष स्वीकार कर धन्यबाद दीया जाता है अन्य सज्जनों को भी चाहिये की इस ' ज्ञानयुग' के अन्दर सर्व दानोमें श्रेष्ठ ज्ञान दान कर पनि चल लक्ष्मी को चल बनावे किम-धिकम् द्रव्यसहायकों की शुभ नामावली । (२५१) शाहा रावतमलजी मुलतानमलजी बोथरा मु. नागोर - २५१) शाहा बादरमलजी - सागरमलजी समदडीया मु. नागोर -२०१) शाहा लाभचन्दजी जवरीमलजी खजांनची मु. नागोर - - ५१ ) शाहा शिबलालजी जेठमलजी बांठीया मु. नागोर - ३४५) श्री सुपनोंकी श्रावांदानीके
- १५१) श्री भगवतीसूत्रादि पूजाकी श्रावन्द के
१२५०)
भावनगर - घी 'आनंद' प्रीन्टींग प्रेसमे शा. गुलाबचंद लल्लुभाइने छापा.
Page #13
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प्रस्तावना.
प्यारे पाठक वृन्द ।
__ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ऑफीस फलोदी मारवाड से स्वल्प समयमें आज ७७ पुष्प प्रकाशित हो चुका है जिस्में शीघ्रबोध भाग पेहलेसे पचवीस वां तक प्रसिद्ध हुवे है जिस शीघ्रबोधके भागो में : जैन सिद्धान्तों का तत्त्वज्ञान इतना तो सुगमता से लिखा गया है की सामान्य बुद्धिवाले मनुष्यों को भी सुखपूर्वक समजमें आ सके। इन शीघ्रबोधक भागों की अच्छे अच्छे विद्वानों ने भी अपने मुक्तक- . गठसे बहुत प्रशंसा कर अपने सुन्दर अभिप्राय को प्रकट कीया है की यह शीघ्रबोध जैन श्वेताम्बर दिगम्बर स्थानकवासी और तेरहा पन्थीयों से अतिरक्त अन्य लोगों को भी बहुत उपयोगी है कारण इन भागों में तत्त्वज्ञान आत्मज्ञान अध्यात्मज्ञान के सिवाय कीसी मतमत्तान्तर-गच्छ गच्छान्तगदि कीसी प्रकार चर्चाओं या समुदायीक झघडों को बिलकूल स्थान नही दीया है. . . .
इन शीघ्रबोध के भागों की महत्त्वता के बारे मे अधिक लिख हम हमारे पाठकोंका अधिक समय लेना ठीक नही समझते है कारण पाठक स्वयं विचार कर सक्ते है की इन भागों की प्रथमावृत्ति “ जो सुगमता से सरल भाषाद्वारा आबाल से वृद्ध जीवों को परमोपकारी अपूर्वज्ञान" प्रकाशित होते ही हाथोहाथ खलास हो जाने पर द्वितीयावृत्ति छपाइ गइ वह भी देखते देखते खलास हो गइ। कीतनेक भाई
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प्रमादवस हुवे दूसरी कीताबों की माफीक जब मगावें गे तब ही मील जावें गे इस विश्वास पर निरास हो बैठे थे. उन महाशयो के मांगणी के पत्रों से हमारे तारो के फेल तंग हो गये थे, पत्रपेटी भर गइ थी उन ज्ञानाभिलाषीयों के लिये शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ द्वितीय तृतीयावृति श्राप लोगों की सेवामें भेज दी गई है इस समय यह भाग ६-७-८-८-१० वा पहले की निष्पत् बहुत कुच्छ सुधारा के साथ तैयार करवा के श्राप साहिबों के कर कमलो मे उपस्थित कर हमारे जीवन को कृतार्थ समजते है । यह ही ईन कीताबों का महत्त्व हैं । विशेष आप इन सब भागों को आद्योपान्त पढ़ लिजीये. ताके आपको रोशन होगा की यह एक अपूर्व ज्ञानरत्न है ।
पाठकों ! ईन शीघ्रबोधके भागों में कथा काहानीयों नही है इन में है जैन सिद्धान्तों का खास तत्त्व जैनो के मूल अंगोपांग सूत्रों का हिन्दी भाषाढाग संक्षिप्त सार-तरुजमा रुपसे वतलाया गया है जैसे रत्नाभिलाषी मनुष्य समुद्र में प्रवेश करते समय नौका का सादर स्वीकार करता है इसी माफीक जैन सिद्धान्त रुपी समुद्रसें तत्त्वज्ञान रुपी रत्नाभिलाषीयों को शीघ्रबोध रुपी नौका का सादर स्वीकार करना चाहिये । कारण विगर नौका समुद्र से रत्न प्राप्त करना मुश्किल है इसी माफीक विगर शीघ्रबोध जैन सिद्धान्त रुपी समुद्र से तत्त्वज्ञान रुपी रत्न प्राप्त होना असंभव है।
सज्जनों ! जीन सूत्रों का नाम मात्र श्रवण करना दुर्लभ था वह सूत्र आज साफ हिन्दी भाषा में आपके कर कमलों में उपस्थिन
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हो चुका है । अब भी आप इनके लाभ को न प्राप्त करे तो कमनसिबी के सिवाय क्या कहा जावे ! श्री भगवतीसूत्र, पन्नवणाजीसूत्र, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, उपसकादशांग अन्तगडदशांग, अनुत्तरोववाइसूत्र पांच निरियावलीका सूत्र, वृहत्कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, व्यवहारसूत्र और निशिथसूत्र इनों का सार इन शीवबोध के प्रत्येक भागोंमें बतलाया गया है।
श्री पन्नवणाजी सूत्र के ३६ पद है वह अन्य अन्य भागों में प्रकाशित हुवे है। जिसकी क्रमशः अनुक्रमणिका शीघ्रबोध भाग १२ के आदिमें दी गइ है की पढनेवालोंको सुविधा रहै इसी माफीक श्री भगवतीजी सूत्र की भी अनुक्रमणिका यहांपर पृष्ट ६ से दी गई है ताके जरुरत पर हरेक संबंध को पाठक देख सके ।
संग्रहकर्ता मुनि श्री का खास उद्देश ज्ञान कण्ठस्थ करने का है इसी वास्ते आपश्री ने विशेष विस्तार न करके सुगमतापूर्वक लिखा है आशा है की आप ज्ञान प्रेमी इस कीताब से आवश्य लाभ उठाबेंगे इत्यलम् ॥ शम् ॥
आपका मेघराज मुनोत मु. फलोदी ( मारवाड.)
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ज्ञान परिचय। पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय शान्त्यादि अनेक गुणालंकृत श्रीमान्मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब ।
आपश्रीका जन्म मारवाड ओसक्स वेद मुत्ता ज्ञातीमे सं. १९३७ विजय दशमिकों हुवा था. बचपन से ही आपको ज्ञानपर बहुत प्रेम था स्वल्पावस्थामें ही आप संसार व्यवहार वाणिज्य व्यापारमें अच्छे कुशल थे सं. १९५४ मागशर वद १० को आपका विवाह हुवा था. देशाटन भी आपका बहुत हुवा था. विशाल कुटुम्ब मातापिता भाइ काका स्त्रि आदि को त्याग कर २६ वर्ष कि युवाक वयमें सं. १९६३ चेत वद ६ को आपने स्थानकवासीयों में दीक्षा ली थी. दशागम और ३०० थोकडे प्रकरण कंठस्थ कर ३० सूत्रोंकी वाचना करी थी तपश्चर्या एकान्तर छट छठ, मास क्षमण आदि करने में भी आप सूरवीर थे आपका व्याख्यान भी वडाही मधुर रोचक और असरकारी था. शास्त्र अवलोकन करने से ज्ञात हुवा कि यह मूर्ति उत्थापकों का पन्थ स्वकपोल कल्पीत समुत्सम पेदा हुवा है । तत्पश्चात् सर्प कंचवे कि माफीक ढुंढकों का त्याग कर आप श्रीमान् रत्नविजयजी महाराज साहिब के पास ओशीयों तीर्थ पर दीक्षा ले गुरु आदेशसे उपकेश गच्छ स्वीकार कर प्राचीन गच्छका उद्धार कीया । स्वल्प समय में ही आपने दीव्य पुरुषार्थ द्वारा जैन समाजपर बडा भारी उपकार कीया अापश्रीकों ज्ञानका तो आले दर्जेका प्रेम है जहां पधारते है वहां ही ज्ञानका उद्योत करते है.
ओशीयों तीर्थ पर पाठशाला बोर्डीग का क्रन्ति लायब्रेरी, श्री रत्न प्रभाकर ज्ञान प्रभाकर भंडार आदि में आपश्रीने मदद करी है फलोधी में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला संस्था-इसकी दुसरी शाखा ओशीयोंमें स्थापन करी जिन संस्थावों द्वारा जैन आगमों का तत्व ज्ञानमय आज ७७ पुष्प नीकल चुके हैं जिस्की कीताबे १५५००० करीबन हिन्दुस्तान के सब विभागमें जनता कि सेवा बजा रही है इनके सिवाय जैनपाठशाला जैन लायब्रेरी आदि भी स्थापन करवाइ गइ थी हम शासन देवतावोंसे यह प्रार्थना करते है कि एसे पुरुषार्थी महात्मा चीरकाल शासन कि सेवा करते हमारे मरूस्थल देशमें विहार कर हम लोगोंपर सदैव उपकार करे । शम् लोहावटसे भी आपने २०००० ). आपके चरणोपासक,
इन्द्रचंद पारख-जोइन्ट सेक्रेटरी. श्री जैन युवक मित्रमण्डल, आफीस-लोहावट (मारवाड).
कूल १
०००
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रत्न परिचय.
परम योगिराज प्रातःस्मरणीय अनेक सद्गुणालंकृत श्री श्री १००८ श्री श्री रत्नविजयजी महाराज साहिब !
आपश्रीका पवित्र जन्म कच्छदेश ओसवाल ज्ञाति म हुवा था. आप बालपणासे ही विद्यादेबीके परमोपासक थे. दश वर्षकि बाल्यावस्थामें ही आपने पिताश्रीके साथ संसार त्याग किया था, अठारा वर्ष स्थानकवासीमत में दीक्षा पाल सत्य मार्ग संशोधन कर-शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद्विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पास जैन दीक्षा धारण कर संस्कृत प्राकृतका अभ्यास कर जैनागमोंका अवलोकन कर आपश्रीने एक अच्छे गीतार्थीकि पंक्तिको प्राप्त करी थी. आपश्रीने कच्छ, काठीयावाड, गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाडादि देशों में विहार कर अपनि अमृतमय देशनाका जनताको पान करवाते हुए अनेक जीवोंका उद्धार कीया था इतना ही नहीं किन्तु बाबु गिरनारादि निवृत्तिके स्थानों में योगाभ्यास कर जैनोंसे अनेक गइ हुइ चमत्कारी विद्यावों हांसल कर कइ आत्मावों पर उपकार कीया था ।
- आपका निःस्पृह सरळ शान्त स्वभाव होनेसे जगत के गच्छगच्छान्तर-मत्त. मत्तान्तरके झगडे तो आपसे हजार हाथ दूर ही रहते थे. जैसे आप ज्ञानमें उच्चकोटीके विद्वान थे वेसे ही कविता करनेमें भी उच्चकोटीक आप कवि भी थे आपने अनेक स्तवनों, सज्झायों, चैत्यवन्दनों, स्तुतियों, कल्प रत्नाकरी टीका और विनति शतकादि रचके जैन समाजपर परमोपकार कीया था.
आपको निवृत्तिस्थान अधिक प्रसन्न था। श्रीमदुपकेश गच्छाधिपति श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराजने उपके शपटन (ओशोयों) में ३८४००० राजपुतकों प्रतिबोध दे जैन बना कर प्रथम ही ओसस स्थापन कीया था. उस ओशीयों तीर्थपर आपश्रोने चतुर्मास कर अलभ्य लाभ प्राप्त कीया. जैसे मुनि श्री ज्ञानपुन्दरजीकों ढुंढकमाल से बचाके संवेगी दीक्षा दे उपकेश गच्छका उद्धार करवाया था फीर दोनों मुनिवरोंने इस प्राचीन तीर्थके जीर्णोद्धारमें मदद कर वहांपर जैन पाठशाला, बोडींग, श्री रत्नप्रभाकर झांन भंडार, जैन लायब्रेरी स्थापन करी थी और भी मापकों झानका बड़ा ही प्रेम
Page #18
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था. आपश्रीके उपदेश द्वारा फलोधी में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला नामकि संस्था स्थापित हुइ थी. आपश्रीने अपने पवित्र जीवनमें शासन सेवा बहुत ही करी थी. केइ जगह जीर्णोद्धार पाठशालावोंके लिये उपदेश दीया था जिनोंकि उज्वल कीर्ति भाज दुनियों में उच्च पदको भोगव रही है. आपश्रीका जन्म सं. १९३२ में हुवा सं. १६४२ में स्थानकवासीयों में दीक्षा सं. १९६० में जैन दीक्षा और सं. १९७७ में आपका स्वर्गवास गुजरातके वापी ग्राममें हुवा है जहांपर आज भी जनताके स्मरणार्थ स्मारक मोजुद है. एसे निःस्पृही महात्मावोंकी समाजमें बहुत आवश्यक्ता है.
यह एक परम योगिराज महात्माका किंचित् आपको परिचय कराके हम हमारी प्रात्माको अहोभाग्य समजते है. समय पा के आपश्रीका जीवन लिख आपलोगोंकि सेवा में भेजनेकि मेरी भावना है शासनदेव उसे शीघ्र पूर्ण करे.
I have the honour to be sir,
Your most bedient slave M. Rakhchand Parekh. S. Collieries. Member Jain nava suvak mitra mandal
LOHAWAT.
Page #19
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यह बात किसीसे छीपी नहीं है कि आगम शिरोमणी परम प्रभाविक श्रीमत् भगवतीसूत्र जैन सिद्धान्तो मे एक महत्वका सूत्र है. चारों अनुयोग द्वारोंका महान् खजाना है. इसके पठन पाठन के अधिकारी भी बहुश्रुति गीतार्थ मुनि ही है, तद्यपि अल्पश्रुतवालोंको सुगमतापूर्वक बोध होने के लिये कितनेक द्रव्यानुयोग विषयोंका सुगम रीती से थोकडा रुप में लिखकर अन्य २ शीघ्रबोध भागो में प्रकाशित किये है. जिसकी सूचि यहां दी जाती है की कोई भी विषयको देखना हो तो सुगमतापूर्वक देख सके.
| शीघ्रबोध नंबर श्री भगवतीसूत्र. | थोकडो में विषय. | के किस
भाग में है.
भाग २५
श० १ उ० १ श० १ उ०१ श० १ उ०१
चलमाणे चलिय नरकादि ४५ द्वार ज्ञानादिप्रश्न देवोत्पातके १४ बोल कांक्षामोहनीय
श०१ उ०
S
aorm w309 0.
054
श० १ उ०.३ श० १ ०४
श०१उ०६
.श. १उ०७
अस्ति अधिकार वीर्याधिकार कषाय सूर्योदय नरकादि गमन आयुष्यबन्ध अगलघु पंचास्तिकार चौभंगी१९ परमाणु हियमान
श० १उ०८
२५ श० २०१०
१९
.५३.८
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________________
4
33599999 vvvvvvv
सावधिया श० ५ उ०८ सप्रदेशी
५० बोलकी बन्धी श० ७ उ०१ आहार शं. ७ उ.१ :
अकर्मगति उ०२ प्रत्याख्यान श० ७ उ०६ आयुष्यबन्ध
कामाधिकार
पुदगलके ९ दंडक उ०२ आसीविष
पांच ज्ञान तब्धि
इरियावहि संपराय उ०९ बन्ध श. ८ उ०९ सर्वबन्ध देशवन्ध
पुद्गल श०८उ० १० अराधना श०८ उ०१० कर्म श०१.५६-८-११-७/ क्रियाधिकार
दशदिश श० ११ उ. १ । उत्पल कमलद्वार ३६ श० ११ उ० १०॥ लोकधिकार श० ११ उ०१० श० १२ उ.५ । रुपी अरुपी श० १२ उ० ९ । देवाधिकार श०१३ उ०१-२० उपयोग
१६ उ०८ लोक चरमान्त १८ उ०४
२० उ०१० सोपकर्मो आयुष्य श० २० उ०१० क्रत संचय
२१ उ०५० बनस्पति २२ उ० ६० " .
vosesvvvws.vvv vandavvar
생성 생생 생생
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________________
५०
श० २३ उ० ८०
५१ श० २४ उ० २४
५२
५३
५५
५६
५७
५८
५९
६०
६१
६२
६३
६४
६५
७१
७२
श० २५ उ०४ ६६. श० २५ उ० ४
६७ ० २५ उ० ४
श० २५ ॐ०४
६९ श० २५ उ० ४ श० २५ उ०५
७०
श० २५ उ० ४
श० ९५ उ० ६
श० २५ उ० ७
७.३
७४
७५
७६
७७
श० २४ उ० २४
० २९ ० १.
७८
७९
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क० २५ उ० १. श० २५ उ० १
२०२५ उ० २
श० २५ उ० २
श० २५ ३० ३
श० २५ उ० ३
श० २५ उ० ३
श० २५ उ० ३
श० २५ उ०३
श० २५ उ० ४
श० २५ उ० ४
श० २५ उ०८
का० २६ उ०१.
श० २६ उ० २
श० २७ ११११
श० २८ उ० ११
० २९ उ० ११
श० ३० उ० ११
११
गम्मा
99
द्रव्य
योगाधिकार
97
""
99
""
श्रेणी
""
स्थितास्थित
संस्थान
अल्पबहुत्व
"
जुम्मा
द्रव्य
जीव परिणाम
जीव कम्पा कम्प
पुद्गल अल्पाबहुत्व पुद्गल जुम्मा परमाणु
पुद्गलकी अल्पाबहुत्व
काल
परमाणु कम्पाकम्प निग्रन्थ
संयति
नरक
४७ बोलकी बन्धी
अनन्तर उववन्नगा
कर्माधिकार
39
कर्मभंग समोवसरण
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२४
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८
८
२४
२४
3 3 3 3 3
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________________
१२४
-८१ श० ३१ उ० २८ ८२ श. ३२ उ० २८ श० ३३ उ० श० ३४ उ० १२४, श० ३५ उ० १३२ श० ३६ उ० १३२ ३७ उ० १३२ १३२ १३२ २३१ ११६ |
श०
श० ३८ उ० श० ३९ उ० श० ४० उ० श० ४१ उ०
८३
८४
८५
८६
८७
८८
८९
९०
९१
१२
खुलक जुम्मा
19
एकेन्द्रिय जुम्मा श्रेणी सतक एकेन्द्रिय महा जुम्मा बेरिन्द्रिय तेरिन्द्रिय चौरिन्द्रिय असंक्षीपंचेन्द्रिय,,
संज्ञी रासी जुम्मा
19
""
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",
"9
525
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आपका,
मेघराज मुनोत. फलोदी ( मारवाड ).
37
59
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39
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२४
२४
२४
२४
२४
२४
૨૩
२४
२४
ર૪
अबी तक श्री भगवतीजी सूत्र का विषय लिखना बाकी रह गया है वह जैसे जैसे प्रकाशित होगा वैसे वैसे इस अनुक्रमणिका को साथमें मीला दीया जावेगा ताके सब साधारण को सुविधा रहै.
अन्तमें हम नम्रतापूर्वक यह निवेदन करना चाहते है कि छद्मस्थों में त्रूटीये रहने का स्वाभावीक नियम है तदानुसार अगर प्रेस कोपी करते या प्रुफ सुधारते समय दृष्टिदोष या मतिदोष रह गया हो तो आप सज्जन उसे सुधार के पढे और ऑफीस में • सूचना करेंगे तो हम सहर्ष उपकार के साथ स्वीकार कर अन्या - -वृत्ति में उसे सुधार देगें. इति अस्तु कल्याणमस्तु । शान्ति ३.
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________________
विषयानुक्रमणिका.
नं. विषय पृष्ट । नं. विषय
पृष्ठ शीघ्रबोध भाग ६ ठो. १५ जीवों के ५६३ भेदों के प्रश्नोत्तर
क्रमशः एक. दो. तीन. चार. १ ज्ञानाधिकार
पांच. यावत् पांचसो त्रेसठ भेदों २ प्रत्यक्ष ज्ञान "
के प्रश्नोत्तर है
३९ ३ अवधिज्ञान ". ४ मनःपर्यव ज्ञान"
१६ पांचसो त्रेसठ भेदों पर जीवों के
द्वार २२. जीव, गति. इन्द्रिय. ५ केवलज्ञान "
काय. योग. वेद. कषाय. लेश्या. ६ मतिज्ञान
दृष्टि. सम्यक्त्व. ज्ञान. दर्शन. ७ मतिज्ञान के ३३६ भेद
संयम. आहार. भाषक. परत. ८ श्रुतिज्ञान • ९ चौरासी आगमों के नाम -
पर्याप्ता. सूक्ष्म, संज्ञी. भव्य.
१७ ... इग्यारे अंगका यंत्र
चरम. भरतादि क्षेत्र. १ ११ चौदह पूर्वका यंत्र . २६ शीघ्रबोध भाग ८ वां. १२ अवधिज्ञान पर आठ द्वार. भव. १७ योग और अल्पाबहुत्व
विषय. संस्थान. अभिन्तर. देश- १८ योग आहारीकानाहारीक . सर्व. हियमान. अनुगामि. प्रतिपाति २८ ११ योगों के ३० बोल १३ पांच ज्ञान पर २१ द्वार. जीव. २. दो प्रकार के द्रव्य
' गति. जाति. काया. सूक्ष्म. २१ स्थिता स्थित द्रव्य . ... पर्याप्ता. भव्य. भावी. संज्ञी. | २२ संस्थान ६ .. लब्धि. ज्ञान. योग. उपयोग.. २३ संस्थान के १०५० ..लेल्या. कषाय. वेद. आहार. २४ संस्थान के २० भेद
नाण. काल. अन्तर अल्पाबहुत. ३० २५ जुम्मा के २४ दंडक ' शीघ्रबोध भाग ७ घां. २६ संस्थान जुम्मा १४ हान शक्ति बढनेका साधन ३९ / २७ श्रेणि ७ प्रकार
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मं. विषय पृष्ठ ; नं. विषय
पृष्ठ २८ षट् द्रव्य
१५ शीघ्रषोध भाग ९ वा. . ' २६ जीवों के प्रमाण जुम्मा
४४ चौदह गुणस्थान १५१ ३० जीव कम्पाकम्प १०२ । ४६ पचवीस प्रकारका मिथ्यात्व १५२ ३१ पुद्गलोंकी अल्पा०
। ४७ गुणस्थान के लक्षण ११५ ३१ परमाणुवादि.
४८ चौदह गुणस्थान पर क्रियाद्वार ३३ परमाणु कम्पमान
बन्ध. उदय. उदीर्णा. सत्ता. ३४ परमाणु पुद्गल
निर्जरा. आत्मा. कारण. भाव. ३५ पुद्गलों के ८८६२५ भांगा
परिसह. अमर. पर्याप्ता. आहा३६ बन्धाधिकार
१२०
रीक. संज्ञा. शरीर. संहनन. ३७ सर्व बन्ध देश
वेद. कषाय. संज्ञी. समुद्घात. ३८ पुद्गलों के ६४ भांगा १२९
गति. जाति. काय. जीवों के ३९ दश दिशाओं
१३० भेद. योग. उपयोग. लेश्या. ४० लोकमें जीवादि
१३३
दृष्टि. ज्ञान. दर्शन. सम्यक्त्व. ४१ लोक में चरमादि
चारित्र. निग्रन्थ. समोसरण. ४२ लोक का परिमाण १३८
ध्यान. हेतु, मार्गणा. जीवा४३ परमाणु पर १७ द्वार १४१ ।
जोनी. दंडक. नियमा. भजना. ४४ उत्पल कमल पर ३२ द्वार
द्रव्यप्रमाण. क्षेत्रप्रसान्तर. निराउत्पात. परिमाण. अपहरण.
न्तर. स्थिति. अन्तर. आगरेस. अवगाहना. कर्मबन्ध. कर्मवैदे.
अवगाहना. स्पर्शना. अल्पाउदय. उदीर्णा. लेश्या. दृष्ठि.
बहुत्व. एवं गुणस्थान पर ज्ञान, योग. उपयोग, वर्ण.
बावन द्वार हैं
१६१ उश्वास. आहार. व्रति. क्रिया. ४६ काय स्थिति संकेत १७२ बन्ध. संज्ञा. कषाय. वेदबन्ध. ५० काय स्थिति के द्वार जीव. संज्ञी. इन्द्रिय अनुबन्ध, संबह.
गति. इन्द्रिय. काया. योग. आहार. स्थिति. समुद्घात.
वेद. कषाय. लेश्या. सम्यक्त्व. चवन. वेदना. मूलोत्पात. १४४ : ज्ञान, दर्शन. संयम. उपयोग.
१३५
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________________
विषय
आहार. भाषक परत. पर्याप्ता. सूक्ष्म. संज्ञी. भव. प्रस्तिकाय. चर्म.
५० अल्पाबहुत्व के उपरवत् २२ द्वारों पर जीवों के भेद गुणस्थान योग उपयोग लेश्या और मल्पा बहुत हैं ५१ अन्त क्रियाधिकार
५२ पद्वि २३ का अधिकार
५३ श्रवणद्वार
५४ जावणद्वार
५५ पावणद्वार
१६ गत्यागति ८५ बोल
.५७ गत्यागति दूसरी ३८ पांच शरीरों पर नाम. अर्थ. अवगाहना. शरिर संयोग. द्रव्य
प्रदेश. द्रव्य अल्पा बहुत्व. ३ स्वामिद्वार संस्थान. संहनन. सूक्ष्म बादर. प्रयोजन. विषय.
. वैक्रिय स्थिति अवगाहना.
अल्पाबहुत्व
५९ चौमाली बोलोंकी अ०
६० सप्रदेशाप्रदेश.
६१ हीयमानं जीवादि
६२ सावचियादि
१३. कषायपद ५२०० भागा
१५
पुष्ट/ नं.
१७३
विषय
पृष्ट
६४ पांचेन्द्रिय पर १५ द्वार
२१५
६५ सिद्धाल्पा बहुत्व १०१ बोल २११
२२२
६६ कालकी अल्प ० १०० बोल ६७ छैभाव उदयभाव
२२६
१८१
१८८६
१८६
१६१
१६१
१९२
१९३
१९७
६८ उपशम भाव
६९ क्षयोपशम भाव
७० क्षायक भाव
७१ परिणामिक भाव
७२ सन्निपातिक भाव
७३ सोपक्रमीनिरो०
७४ ऋत संचीयादि
७५ पांच देवो के द्वार नाम. लक्षण.
स्थिति संचिठण. अन्तर अव
गाहना. गत्यागति वैक्यि. अल्पाबहुत्व.
शीघ्रबोध भाग १० वां.
७६ चौवीस ठाणा
७७ गतिद्वार
७८ जातिद्वार
७९ कायद्वार
२०१ ८० योगद्वार
२०३ ८१ वेदद्वार
२०५ ८२ कषायद्वार
२०६ ८३ ज्ञानद्वार २०७ ८४ संयमद्वार
२०८ ८५ दर्शनद्वार
२२७
२२७
२२७
२२८
२२ε
२३०
२३२
२३३
२३६
२३७
२३८
२३९
२४०
२४२
२४३
૨૪૪
२४५
२४६
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२५८
ने. विषय ८६ लेश्याद्वार ८७ भव्यद्वार ८८ संज्ञीद्वार ८९ सम्यक्त्वद्वार ९० आहारद्वार ६१ गुणस्थानद्वार ९२ जीवों के भेद द्वार ६३ पर्याप्ताद्वार ९४ प्रागद्वार ९५ संज्ञाद्वार ९६ उपयोगद्वार ६७ दृष्टिद्वार ९८ कर्मद्वार
पृष्ठ : नं. विषय . . . २४७ / ९९ शरीरद्वार २४८१०० हेतुद्वार २४८ १०१. बासटीया २४९ १०२ जीवों के भेदो के प्रश्न २५० १०३ गुणस्थानो के प्रश्न
१०४ योगो के प्रश्न १८५ उपयोगो के प्रश्न १८६ लेश्यावो के प्रश्न
२६२ २५० १०७ तीर्यच के भेदो के प्रश्न २५५ १०८ २५५ १०१ गुणस्थान के प्रश्न
२६५ २४६ /११० २५६ १११ त्रिक संयोगादि गुणस्थानके प्रश्न २५०
JANWAR
HTTARE HITTIEO
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. ३२
श्री सिद्धसूरीश्वर सद्गुरुम्यो नमः
अथ श्री शीघ्रबोध नाग ६ घा.
-**थोकडा नम्बर ६४ वां
श्री नन्दीजी सूत्रसे पांच ज्ञानाधिकार। झान-मान दो प्रकारके होते है (१) सम्यक्क्षान. (२) मि. प्वाहान. जिस्म जीवादि पदार्थों को यथार्थ सम्यक् प्रकारसे जानना उसे सम्यक ज्ञान कहते है और जीवादि पदार्थों को विप्रीत जानना उसे मिथ्याज्ञान कहते है ॥ ज्ञानवर्णियकर्म और मोहनियकर्म के क्षोपशम हानेसे सम्यक्ज्ञान कि प्राप्ती होतो है तथा मानवर्णिय कर्म का क्षोपशम और मोहनिय कर्म का उदय होने से मिथ्याज्ञान कि प्राप्ती होती है जैसे किसी दो कवियोंने कविता करी जिस्मे एक कविने ईश्वरभक्ति का काव्य रचा. दुसराने मबार रस में महिला मनोहर माला' रची. इस्मे पहले कविक मनावणिय और मोहनीय दोनों कर्मों का क्षोपशम है और दुसरे पिके मानावर्णिय कर्म का तो क्षोपशम है परन्तु साथमे मोहविसकर्म का उदय भी है वास्ते पहले कवि का सम्यक् ज्ञान है और दुसरे का मिथ्याज्ञान है। इन दोनों प्रकार के ज्ञान के अन्दर
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में यहांपर सम्यक् ज्ञान का ही विवेचन करुंगा. इसके अन्तर्गत आत्मीक ज्ञान के साथ ओर व्यवहारीक ज्ञान का समावेस भी हो सक्ता है।
ज्ञान पश्च प्रकार के है यथा मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधि. ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान. इन पांचो ज्ञान को संक्षिप्त से कहा जाय तो दो प्रकारके है. (२) प्रत्यक्षज्ञान (२) परोक्षज्ञान जिस्मे प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद है इन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान, नोइन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान. जिस्मे भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान का पांच भेद है (प्रत्येक इन्द्रियों द्वारा पदार्थे का ज्ञान होना) यथा
(१) श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान-शब्द श्रवणसे ज्ञान होना. कि यह अमुक शब्द है.
(२) चक्षुइन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान-रूप देखनेसे ज्ञान होना कि यह अमुक रूप है. .. (३) घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान-गन्ध लेने से ज्ञान होना कि यह अमुक गन्ध है.
(४) रसेन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान-रस स्वादन करने से ज्ञान होना कि यह अमुक रस है. - (५) स्पर्शन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान-स्पर्श करनासे ज्ञान होना कि यह अमुक स्पर्श है.
दुसरा जो नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है वह भूत भविष्य काल कि बातें हस्तामल कि माफीक जान सके उनके तीन भेद है (१) अवधिज्ञान, (२) मनःपर्यवज्ञान (३) केवलज्ञान. जिस्मे अवधिज्ञान के दो भेद है (१) भवप्रत्य (अपेक्षा) (२) क्षोपशमनत्य, भषप्रत्यतो नरक और देवताओं को होते है जसे नरकमे या देवतों में जीव उत्पन्न होता है वह सम्यग्दृष्टि हो तो निश्चय अवधिज्ञानी होता है और मिथ्यादृष्टि हो तो विभंगज्ञानी होता है और दुसरा जोक्षोपशमप्रत्ययो मनुष्य और तीर्यचं पांचेन्द्रियको अच्छे अध्य व.
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सायों के निमत्त कारण ज्ञानावर्णिय कर्म के क्षोपशमसे अवधिज्ञान होता है तथा गुणप्रतिपन्न अनगार को अनेक प्रकार कि तपश्चर्यादि करने से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है जिस्के भेद असंख्याते है परन्तु यहांपर संक्षिप्तसे छे भेद कहते है.
(१) अनुगामिक-जहांपर जाते हो वहाँपर ही ज्ञान साथमे चले। (२) अनानुगामिक-जीस जगाहा ज्ञान हुवा हो उसी जगहा
(३) वृद्धमान-उत्पन्न होने के बाद सदैव षढता ही रहै। (४) हीयमान-उत्पन्न होने के बाद कम होता जावे। (५) प्रतिपाति-उत्पन्न होने के बाद पीच्छा चला जावे। (६) अप्रतिपाति-उत्पन्न होने के बाद कभी नही जावे ।
विस्तारार्थ-अनुगामिक अवधिज्ञान जैसे कीसी मुनि कों अवधिज्ञान उत्पन्न हुषा हो उस्के दो भेद है अंतगयं और मजगयं. इसे भी अंतगयं के तीन भेद है आगेके प्रदेशों से, पीच्छे के प्रदेशों से पासवाड के प्रदेशों से. जैसे दृष्टान्त-कोह पुरुष अपने हाथमें दीवा मणि चीराख लालटेनादि आगे के भागमे रख चलता हो तो उस्का प्रकाश आगे के भागमें पडेगा. इसी माफीक पीच्छाडी रखनेसे पोच्छाडी प्रकाश पडेगा और पसवाडे रखनेसे प्रकाश पसवाडे मे पडेगा. इसी माफीक जोस जीस प्रदेशों के कर्मदल दूरा हुवा है उस उस प्रदेशों से प्रकाश हो सर्व रूपी पदार्थों को अब. विज्ञान द्वारा जान सकेगा, और जो 'मजगय' अवधिज्ञान है वह जैसे कोई आदमि दीपक चीराख मणी आदि मस्तकपर रखे तों उस्का प्रकाश चौतर्फ होगा इसी माफीक मध्य ज्ञानोत्पन्न होनेसे पर चौतरफ के पदार्थों को जान सकेगा. एवं अनुगामिक ज्ञान का स्वभाव है कि वह जहां जावे वहां साथमे चले। .. अनानुगामिक अवधिज्ञान जेसे कोई मनुष्य एक सीघडीमें
WERSITY
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अग्नि लगाइ हो वह जहांपर सागडी रखी हो वहां पर उसका ताप प्रकाश होगा इसी माफीक अवधिज्ञानोत्पन्न हुवा है वहां बेठा हुवा अवधिज्ञान द्वारा संख्याते योजन असंख्याते योजन के क्षेत्र में संबन्धवाले असंबन्धवाले पदार्थों को जान सकेगा परन्तु उस स्थानसे अन्य स्थानपर जाने के बाद कीसी पदार्थ को नही जानेगा. अनानुगामिक अवधिज्ञान का स्वभाव है कि वह दुसरी जगाहा साथये न चाले उत्पन्न क्षेत्रमे ही रहै !
वृद्धमान अवधिज्ञान-प्रशस्ताध्यवसाय विशुद्धलेश्या. अच्छे परिणामवाले मुनि को अवधिज्ञान होने के बाद चो तरफसे वृद्धि होती रहै जैसे जघन्य सूक्ष्म निलण फुलके जीवों के तीसरे समय के शरीर जीतना, उत्कृष्ट संपूर्ण लोकतथा लोक जैसे असंख्यात खंडवे अलोकमें भी जाने. इसपर काल और क्षेत्र कि तूलनाकर बतलाते है कि कीतने क्षेत्र देखने पर वह ज्ञान कीतने काल रह सके। कालसे आवलिकाके असंख्यात भाग तकका ज्ञान हों तो क्षेत्र से आंगुलके असंख्यात में भागका क्षेत्र देखे एवं दोनोंके संख्यातमें भाग. आवलिकामे कुच्छ न्युन हो तो एक आंगुल. पुर्णावलिका हो तो प्रत्येकांगुल. महुर्त हो तो. एक हाथ. एक दिन हो तो एक गाउ. प्रत्येक दिन हो तो एक योजन. एक पक्ष हो तो पचवीस योजन एक मास होतो भरतक्षेत्र, प्रत्येक मास होतो जंबुद्विप, एक वर्ष होतो मनुष्यलोक, प्रत्येक वर्षे होतो रूचकहिप, संख्यातो काल होतो संख्याताद्विप, असंख्यातो काल होतो, संख्याते असंख्याते द्विप तात्पर्य एक कालकि वृद्धि होनेसे क्षेत्र द्रव्य भावकि आवश्य वृद्धि होती है क्षेत्रकि वृद्धि होनेसे कालकि वृद्धि स्यात् हो या नभी हो, और द्रव्य भावकि आवश्य वृद्धि हो, द्रव्यकि वृद्धि होनेमे कालक्षेत्रकि भजना और भावकि अवश्य वृद्धि हो. भावकि वृद्धि होनेमे द्रव्य क्षेत्र कालकि अवश्य वृद्धि होती है. द्रव्य क्षेत्र काल भावमें सूक्षम बादरकि तरतमता, काल बादर है जिनसे सूक्षम
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क्षेत्र है कारण सूची अग्रभागमे जो आकाश प्रदेश है उसे प्रत्येक समय एकेक प्रदेश निकाले तो असंख्यात सर्पिणी उत्सर्पिणी पुरी होजावे, क्षेत्रसे द्रव्य सूक्षम है कारण एक प्रदेशके क्षेत्रमे अनंते द्रव्य है द्रव्यसे भाव सूक्षम है कारण एक द्रव्यमे अनंत पर्याय है. _हयमान अवधिज्ञान-उत्पन्न होने के बाद अविशुद्ध अध्यक्ष साय अप्रशस्त लेश्या खराब परिणाम होनेसे प्रतिदिन ज्ञान भ्युनता होता जावे.
प्रतिपात्ति अवधिज्ञान होनेके बाद कीसी कारणोंसे वह पीच्छा भी चला जाता है वह ज्ञान कितने विस्तारवाला होता है वह बतलाते है यथा. आंगुलके असंख्यातमें भागका क्षेत्र को जाने. संख्यातमे भागके क्षेत्रको जाने. एवं बालाग्र, प्रत्येक बालाग्र, लीख, प्रत्येकलिख, जू प्रजू अँप प्रज्जव, अंगुल प्र०आंगुल, पाद प्र० पाद, बेहाथ प्र०वेहाथ, कुत्सि प्र०कुत्सि, धनुष्य प्र०धनुष्य, गाउप्र० गाउ, योजन प्रयोजन, सोयोजन प्र०सोयोजन, सहस्रयोजन प्र० सहनयोजन, लक्षयोजन प्र०लक्षयोजन, कोडयोजन प्र०कोडयोजन, कोडाकोडयोजन प्र०कोडाकोडयोजन. संख्यातेयोजन, असं. ख्याते योजन उत्कृष्ट सम्पूर्ण लोकके पदार्थको जानके पीच्छ पडे अर्थात् वह ज्ञान पीच्छा चला जावे. उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है।
- अप्रतिपाति अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद कबी न जावे परंतु अन्तर महुर्त के अन्दर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है इन छे भेदों
के सिवाय प्रक्षापना पद ३३ में और भी भेद लिखा हुवा है वह .. अलग थोकडा रूपमें प्रकाशित है। . भवधिज्ञान के संक्षिप्तसे च्यार भेद है द्रव्य क्षेत्र काल भाव.
(१) द्रव्यसे अवधिज्ञान जघन्य अनंते रूपी द्रव्योंकों जाने. उता मी अनते द्रव्य जाने. कारण अनंते के अनंते भेद है.
and%AR
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(२) क्षेत्रसे अवधिज्ञान. जघन्य आंगुलके असंख्यातमें भागका क्षेत्र ओर उ० सर्व लोक ओर लोक जैसे असंख्यात खंडवे अलोकमे भी जान सके वहां पर रूपी द्रव्य नही है।
(३) कालसे जघन्य आवलिकाके असंख्यात भाग और उत्कृष्ट असंख्याते सपिणि उत्सपिणि वातें को जाने.
(४) भावसे ज० अनंते भाव. उ० अनंते भाव जाने वह सर्व भावोंके अनंते भाग है इति.
( २ ) मनःपर्यव ज्ञान-अढाइ द्विपके संज्ञी पांचेन्द्रिय के मनोगत भावको जानसके इस ज्ञानके अधिकारी-मनुष्य-गर्भेजकर्मभूमि-संख्यातेवर्षों केआयुष्यवाले-पर्याप्ता-सम्यग्दृष्टि-संयति -अप्रमत-ऋद्धिवान् मुनिराज है जिस मनःपर्यव ज्ञानके दो भेद है (१) ऋजुमति (२) विपुलमति. जिस्के संक्षिप्तसे च्यार भेद है द्रव्य क्षेत्र काल भाव ।
(१) द्रव्यसे-रूजुमति मनःपर्यव ज्ञान-अनंते अनंत प्रदेशी द्रव्य मनपणे प्रणमे हुवे को जाने देखे और विपुलमति विशुद्धसे विस्तारसे जाने देखे। - (२) क्षेत्रसे ऋजुमति मन पर्यव ज्ञान उद्ध लोकमें ज्योति. षीयोंके उपरका तला तीर्यग्लोको अढाइ द्विप दो समुद्रमें पदरा कर्ममूमी तीस अकर्म भूमी छपन अन्तरद्विपोके संज्ञी पांचेन्द्रिय के मनोगत भावोंको जाणे देखे. विपुलमति इससे अढाइ अंगुल क्षेत्र अधिक वह भी विशुद्ध और विस्तारसे जाने देखे।
(३) कालसे ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान-ज० पल्योपम के असं. ख्यातमें भागका कालको उ० भी पल्या० असं० मे भागके कालकों नाने देखे. विपुलमति विशुद्ध और विस्तार करके जाने देखे।
(४) भावसे ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान-ज. अनंते भाव उ०
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अनंते भाव सर्व भावोंके अनंतमें भागके भावोको जाने देखे. विपुलमति-विस्तार और विशुद्ध जाने देखे । इति।।
(३) केवलज्ञान सब आत्मा के प्रदेशोंसे ज्ञानावणिय दर्शनाणिय मोहनिय अन्तराय एवं च्यार घातिकर्म क्षय कर सर्व प्रदेशको निर्मल बनाके लोकालोकके भावों को समय समय हस्तामलकि माफीक जाने देखे. जिस केवल ज्ञानका दो भेद है एक भव प्रत्ययी-मनुष्य भवमे तेरहवे चौदवे गुणस्थानवाले जीवों को हात है दूसरी सिद्ध प्रत्ययी सकल कर्म मुक्त हो सिद्ध हो गये है उनाके केवल ज्ञान है जिस्मे भव प्रत्यके दो भेद है संयोग केवली तेरहवे गुणस्थान दुसरा अयोग केवली चौदवे गुणस्थान दुसरा सिद्धाक कवलज्ञानके दो भेद है एक अनंतर सिद्ध जिस सिद्धोंके सिद्धपदको एक समय हुवा है दुसरा परम्पर सिद्ध जिस सिद्धा. का बि समयसै यावत् अनंत समय हुवा हो अनन्तर परम्पर दोनो सिद्धोंके अर्थ सहित भेद शीघ्रबोध भाग दुसरेके अन्दर
छप चुके है यहां देखो । पृष्ट ८० से । - संक्षिप्तकर केवलज्ञानके च्यार भेद है द्रव्य क्षेत्रकाल भाव ।
(१) द्रव्य॑से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यको जाने देखे ।
(२) क्षेत्रसे केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रको जाने देखे। ... (३) कालसे केवलज्ञानी सर्व कालको जाने देखे । .... (४) भावसे केवलज्ञानी सर्व भावको जाने देखे । इति केवलज्ञान इति नोइन्द्रिय प्र० ज्ञान इति प्रत्यक्षज्ञान ।
सेवं भंते सेवं भंते-तमेव सच्चम्
+
:
ANS.
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थोकडा नंबर ६५ वां.
( परोक्षज्ञान) (२) परोक्ष ज्ञानके दो भेद है मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, जिस्मे मतिज्ञान मन विचारणा बुद्धिप्रज्ञा मनन करनेसे होता है और श्रुतिज्ञान श्रवण पठन पाठन करनेसे होता है जहां मतिज्ञान है वहां निश्चय श्रुतिज्ञान भी है जहां श्रुतिज्ञान है वहां निश्चय मतिज्ञान भी है कारण मति विगर श्रुति हो नही सकता है और श्रुति विगर मति भी नही होती है सम्यग्दृष्टि की मति निर्मल होनेसे मतिज्ञान कहा जाता है और मिथ्यादृष्टि को विषम मति होनेसे तथा मोहनिय कर्मका प्रबलोदय होनेसे मति अज्ञान कहा जाता है इसी माफीक श्रुतिज्ञान. भी सम्यग्दृष्टियों के तत्व रमणता तत्व विचार में यथार्थ श्रवण पठन पाठन होनेसे श्रुतिज्ञान कहा जाता है और मिथ्यादृष्टियों के मिथ्यात्व पूर्वक मिथ्या श्रद्धना होनेसे श्रुति अज्ञान कहा जाता है सम्यग्दृष्टि के सम प्रवृ. ति समविचार समतत्व होनेसे उसको मति श्रुतिज्ञानवन्त और मिथ्या दृष्टि कि मिथ्या प्रवृति मिथ्या विचार मिथ्या तत्व होने से मति अज्ञान श्रुति अज्ञान कहा जाता है ____ मतिज्ञान के दो भेद है एक श्रवण करने कि अपेक्षा याने अषण करके मतिसे विचार करनेसे. दुसरा अभषण याने बुद्धि वलसे विचार करनेसे मतिज्ञान होता है जिस्मे अश्रवण के च्यार भेद है. (१) उत्पातिका बुद्धि-विगर सुनी विगर देखी बातों या
प्रश्नोंको उत्तर देना. (२) विनयसे बुद्धि-गुरवादिके विनय भक्ति करनेसे
प्राप्त हुइ बुद्धि.
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: (३) कर्मसे बुद्धि-जसे जसे कार्य करे वैसी बुद्धि प्राप्त हो (४) पारिणामिका-जैसी अवस्था होती जाती है या
अवस्था बढती है वैसी बुद्धि हो जाती है. इन च्यारो बुद्धियोंपर अच्छी बोधकारक कथावों नन्दी सबकि टीकामे है वह खासकर श्रवण करनेसे बुद्धि प्राप्त होती है भवण करनेकि अपेक्षा मतिज्ञानके च्यार भेद है.
(१) उगृहा-शीघ्रताके साथ पदार्थोंका गृहन करना, (२) इहा-गृहन कीये हुवे पदार्थ का विचार करना. (३) आपय-विचारे हुवे पदार्थ में निश्चय करना
(४) धारणा -निश्चय किये हुवे पदार्थों को धारण कर रखना।
उगृह मतिज्ञान के दो भेद है अर्थ ग्रहन, व्यञ्जन ग्रहन, विरमें व्यसन ग्रहनके च्यार भेद है व्यञ्जन कहते है पुद्ग. लोकोमोन्द्रिय, घाणेन्द्रिय. रसेन्द्रिय. स्पर्शेन्द्रिय. इन च्यारों सायचा. को स्व स्व विषयके पुद्गल मिलनेसे मतिसे ज्ञान होता है कि यह पुद्गल इष्ट है या अनिष्ट है तथा चक्षु इन्द्रियको पुद्गल ग्रहनका अभाव है चक्षु इन्द्रिय अपनेसे दुर रहे हुवे पुद्गलों को देखके इष्ट अनिष्ट पदार्थका ज्ञान कर सकती है इस वास्ते इसे व्यञ्जन ग्रहनमे नही मानी है दुसरा जो अर्थग्रहन है उस्के छे मेद है. (१) धोत्रेन्द्रिय अर्थ ग्रहन-शब्द श्रवणकर उस्के अर्थका
ज्ञान करना. (२) बक्षु इन्द्रिय अर्थ प्रहन रूप देख उसके अर्थका ज्ञान
करना. (३) घ्राणेन्द्रिय अर्थग्रहन-गन्ध सुँघनेसे उस्के अर्थको
प्रहन करना.
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(४) रसेन्द्रिय अर्थग्रहन-स्वादन करनेसे उस्के अर्थ को ग्रहन करना,
(५) स्पर्शेन्द्रिय अर्थ ग्रहन-स्पर्श करनेसे उस्के अर्थको ग्रहन करना.
(६) मन अर्थ ग्रहन--मन पणे पुद्गल प्रणमनेसे उस्के अर्थको ग्रहन करना.
इन छहो अर्थ ग्रहनका मतलब तो एक ही है परन्तु नाम उच्चारण भिन्न भिन्न है जिस्के पांच भेद है-अर्यको ग्रहन करना अर्थको स्थिर करना. अथको सावधानपणे संभालना. अर्थके अ. न्दर विचार करना. और अर्थका निश्चय करना। इसी माफीक ईंहा नामके मतिज्ञानका भी श्रोतादि छे भेद है परन्तु पांच नाम इस माफोक है विचारमे प्रवेश करे. बिचार करे, अर्थ गवेषना करे. अर्थ चिंतवण करे. भिन्न भिन्न अर्थमें विमासण करे । इसी माफीक आपाय. मतिज्ञान के भी श्रोतादि छे भेद है परन्तु पांच नाम इस माफीक है अर्थका निश्चय करे. चितवनका निश्चय करे. विशेष निश्चय करे. बुद्धि पूर्वक निश्चय करे. विज्ञान पूर्वक निश्चय करे. इसी माफीक धारणा मतिज्ञान के भी श्रोतादि छे भेद है परन्तु पांच नाम इस प्रकार है निश्चत किये हुवे अर्थ को धारण करना. चीरकाल स्मृतिमे रखना. हृदय कमलमें धारण करना. विशेष विस्तारपूर्वक धारण करना, जैसे कोठारमें रखा हुवा अनाज कि माफीक जाबते के साथ धारण कर रखना. यह सब मतिज्ञान के विशेष भेद है उगृह मतिज्ञान कि स्थिति एक समयकी है ईहा ओर अपाय कि स्थिति अन्तरमुहूर्त कि है और धारण कि स्थिति संख्यातकाल ( मनुष्यापेक्षा ) असंख्याते काल (देवापेक्षा ) की है एवं अश्रवणापेक्षा ४ ओर श्रवणापेक्षा २४ मीलाके मतिज्ञान के २८ भेद होते है.
तथा कर्मग्रन्थमें इन अठावीस प्रकारके मतिज्ञानकों बारह
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बारह प्रकारसे बतलाये है यथा-बहु अल्प, बहुविध, एकविध, क्षिभ, चीर, अनिश्रीत, निश्रित, सन्दिग्ध, असन्दिग्ध, धूव, अधूव,विवरण जैसे शंख, नगारा झालर आदि वाजंत्रके शब्दों में से भयोपशमकी विचित्रताके कारणसे कोइ जीव बहुतसे वार्जित्रोंके शब्दाको अलग अलग सुनते है १ कोइ जीव स्वल्प हा सुनते है २ कार जाप उन बाजीत्रोके स्वर तालादि बहुत प्रकारसे जानते है ३ ३ कोइ जीव मंदतासे सब शब्दोंकों एक वाजिंत्रही जानते है ४ कोह जीव शीघ्र-जलदीसे सुनता है ५ कोइ जीव देरीसे सुनता है६ कोइ जीव ध्वजाके चिन्हसे देवमन्दिरको जानता है ७ कोहनीव विगर पत्ताका अर्थात् विगर चिन्हसे ही वस्तुको जान लेता है८ कोइ जीव संशय सहित जानता है ९ कोइ जीव संशय रहित जानता है १० कोह जीवकों जसा पहला ज्ञान हुवा है वैसा हो पीछे तक रहता है उसे ध्रवज्ञान कहते है ११ कोइ जीवकों पहले ओर पीच्छे में न्यूनाधिकपणेका विशेषपणा रहता है एवं २८ को १२ गुणा करनेसे ३३६ तथा अश्रुत निश्रितके ४ भेद मीका देनेसे ३५० भेद मतिज्ञानके होते है इनके सिवाय जातिस्मरणादि ज्ञान जो पूर्व भव संबन्धी ज्ञान होना यह भी मति झानका ही भेद है एसे विचित्र प्रकारका मतिज्ञान है जावोंको जैसा जैसा क्षयोपशम होता है वैसी वैसी मति होती है।
मतिज्ञानपर शास्त्रकारोंने दो दृष्टान्त भी फरमाया है यथा एक पुन्यशाली पुरुष अपनी सुखशय्याके अन्दर सुता हुवाथा उसे कीसी दुसरा पुरुषने पुकार करी उसके शब्दके पुद्गल सुते हुचे पुरुष के कानोंमें पडे बह पुद्गल न एक समयके स्थितिके थे . यावत् न संख्याते समयेकि स्थितिके थे किन्तु असंख्याते सम
यकि स्थितिके पुदगल थे अर्थात् बोलनेमे असंख्यात समय लगते है तदनन्तरवह पुद्गल कोनोंमें पड़ने को भी असंख्यात समय चाहिये। सुता हुषा पुरुष पुद्गलोंको ग्रहन किया उसे 'उगृहमतिज्ञान' कहते .
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है फीर विचार किया कि मुझे कोन पुकारता है उसे 'ईहामति झान' कहते है बाद में निश्चय कियाकि अमुक मनुष्य मुझे पुकारता है उसे ' आपायमतिज्ञान' कहते है उस पुकारकोस्वल्प या चीरकाल स्मरणमें रखना उसे 'धारणामति ज्ञान' कहते है जेसे वह अव्यक्त पणे शब्द श्रवण कर च्यारों भेदोंसे निश्चय किग. इसी माफीक अव्यक्तपणे रूख देखनेसे गन्ध सुँघनेसे स्वाद लेनेसे स्पर्श करनेसे और स्वप्न देखनेसे भी समझना ! दुसरा दृष्टान्त कीतने पुद्गल कानों में जानेसे मनुष्य पुद्गलोकों जान सकते है। जैसे कोई मनुष्य कुंभारके वहांसे एक नया पासलीया ( मट्टीका वरतन लाके उसमे एकेक जलबिन्दु प्रक्षेप करे तब वह पासलीया पुरण तोरसे परिपूर्ण भरजावे तब उस पासलीयोंसे जलबिन्दु बाहार गीरना शरू हो, इसी माफीक बोलनेवालेके भाषावारा निकले हुवे पुद्गल श्रवण करनेवालेके कानोमें भरते भराते श्रोत्रे न्द्रिय विषय पूर्ण पुद्गल आजावे तब उसे मालुम होती है कि मुझे कोइ पुकारता है इसी माफीक पाँचो इन्द्रिय-स्व-स्व विषय के पूर्ण पुद्गल ग्रहन करनेसे अपनी अपनी विषयका ज्ञान होता है इसी माफीक स्वप्नेके भी समज लेना.
मतिज्ञानके संक्षिप्त च्यार भेद है द्रव्य क्षेत्र काल भाष ।
( १ ) द्रव्यसे मतिज्ञान-संक्षिप्त सर्व द्रव्य जाने किन्तु देखे नहीं.
( २ ) क्षेत्रसे मतिज्ञान - संक्षिप्तसे सर्व क्षेत्र जाने पण देखे नहीं.
(३) कालसे मतिज्ञान-संक्षिप्तसे सर्व काल जाने परन्तु देखे नहीं.
(५) भाषसे मतिज्ञान-संक्षिप्तसे सर्व भाव माने परंतु देखे नहि।
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कारण मतिज्ञान है सो देशज्ञान है मनन करनेसे सामान्य प्रकारसे सर्व द्रव्यादिको जान सके परन्तु अपासणीया उपयोग होनेसे देख नही सके इति ।
सेवभंते सेवभते तमेवसच्चम्
थोकडा नम्बर ६६
(परोक्ष श्रुतिज्ञान) श्रुतिज्ञान-सामान्यापेक्षा पठन पाठन अधण करनेसे होते या अक्षरादि है वह भी श्रुतिज्ञान है श्रुतिज्ञानके १४ भेद है । (१) अक्षर श्रुतिज्ञान जिस्का तीन भेद है (१) आकारादि
किती स्थानापयोगसंयुक्त उच्चारण करना (२) ह्रस्व पातमनुरातादि शुद्ध उचारण (३) लब्धिअक्षर इन्द्रिपजानित जैसे अनेक जातिके शब्द श्रवण कर उससे भिन्न भिन्न शब्दोंपर ज्ञान करना. एवं अनेक रूप गन्ध रस स्पर्श तथा मोहन्द्रिय-मन से पदार्थ को जानना. इसे अक्षरश्रुति ज्ञान करते है।
(२) अनाक्षर अतिज्ञान कीसी प्रकार के चन्ह-चेष्टा करनेसे ज्ञान होता है जैसे मुंह मचकोडना नेत्रों से स्नेह या कोप
र्शना, सिर-हीलाना, अंगुली से तरजना करना, हाँसी खांसी डीक उवासी उकार अनेक प्रकार के वाजिंत्रादि यह सब अनाभस्मृतिज्ञान है। + :(३) संज्ञी श्रुतिज्ञान, संज्ञी पांचेन्द्रिय मनवाले जीवों को
हैनिक तान भेद है (१) दीर्घकाल-स्वमस परमत्त के
RAMMAR
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श्रुति ज्ञान पर दीर्घकालका विचार करना तथा श्रुतिज्ञान द्वारा निश्चय करे ( . ) हेतुबाद-हितोपदेशादि अषण कर श्रुतिज्ञान प्राप्त करना (३) दृष्टिबाद-द्वादशांगी अन्तर्गत दृष्टिबाद अङ्ग को पठन पाठन कर श्रुतिज्ञान हांसल करे इस्को संज्ञी श्रुतिज्ञान कहते है।
(४) असंज्ञी श्रुतिज्ञान-मन और संज्ञीएणे के अभाव एसे पके. न्द्रिसे असंज्ञी पांचेन्द्रिय के जीवों को होता है वह अव्यक्तपणे संज्ञा मात्र से ही प्रवृति करते है जिस्के तीन भेद है स्वल्प काल कि संज्ञा अहेतुबाद अदृष्टिबाद याने संज्ञीसे विप्रीत समझना।
(५) सम्यक् श्रुतिज्ञान-श्री सर्वज्ञ धोतराग-जिन-केवलीअरिहन्त-भगवान प्रणित स्यावाद तत्व विचार-षद्रव्य नय निक्षेप प्रमाण द्रव्य गुण पर्याय परस्पर अविरूद्ध श्री तीर्थकर भगवान त्रिलोक्य पूजनीय भव्य जीवों के हितके लिये अर्थरूप फरमाइ हुइ वाणि जिस्कों सुगमता के लिये गणधरोंने सूत्र रूपसे गुंथी और पूर्व महा रूषियोंने उसके विवरणरूप रची हुइ पाँचांगी उसे सम्यकसूत्र कहते है या चौदा पूर्वघरो के रचित तथा अभिन्न दश पूर्वधरों के रचित ग्रन्थों को भी सम्यक् श्रुतिज्ञान कहते है।। उस्के नाम आगे लिखेंगे।
(६) मिथ्याश्रुतिज्ञान-असर्वज्ञ सरागी छदमस्त अपनि बुद्धि से स्वछंदे परस्पर विरुद्ध जिस्मे प्राणबधादि का उपदेश । स्वार्थ पोषक हठकदाग्रह रूप जीवों के अहितकारी जो रचे हुवे अनेक प्रकार के कुरांणपूरांण ग्रन्थ है उसमें जीवादि का विप्रीत स्वरुप तथा यज्ञ होम पिंडदान स्तुवान प्राणबधादि लोक अहित कारक उपदेश हो उसे मिथ्याश्रुतिज्ञान कहते है।
( क ) सम्यग्दृष्टियों के सम्यकसूत्र तथा मिथ्यासूत्र दोनों सम्यग श्रतिज्ञानपणे प्रणमते है कारण वह सम्यग्दृष्टि होनेसे जैसी वस्तु हो उसे वैसी ही श्रद्धता है और मिथ्यादृष्टियोंके सम्यगसूत्र
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था मिथ्यासूत्र दोनों मिथ्याश्रुति ज्ञानपणे प्रणमते है कारण उसकी मति मिथ्यात्वसे भ्रमित है वास्ते सम्यगसूत्र भी मिथ्यात्व पणे प्रणमते है जैसे जमालि आदि निन्हवोंके वीतरागों कि वाणी मिथ्यारूप हो गई थी और भगवान् गौतम स्वामिके च्यार वेद अठारे पुराण भी सम्यकपणे प्रणमिये थे कारण वह उनके भावों को यथार्थपणे समज गये थे इत्यादि. • (७) सादि (८) सान्त (९) अनादि (१०) अनान्त= अतिज्ञान विरहकालापेक्षा भरतादि क्षेत्रमें सादि सान्त है और अविरह कालापेक्षा महाविदेह क्षेत्रमें अनादि अनान्त है जिस्के संक्षिप्त से च्यार भेद है यथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाष । जिस्मे द्रव्यापेक्षा एक पुरुषापेक्षा श्रुतिज्ञान सादि सान्त है और बहुत पुरुषापेक्षा अनादि अनान्त है क्षेत्रापेक्षा पांच भरत पांच एरव. रतापेक्षा सादि सान्त है महा विदेहापेक्षा अनादि अनान्त है। कालापेक्षा उत्सपिणि अवसर्पिणि अपेक्षा सादि सान्त है और तोपिणिनोउत्सपिणि अपेक्षा अनादि अनान्त है। भावापेक्षा मिन प्रणित भाव द्वादशांगी सामान्यविशेष उपदेश निर्देश परूपणा है वह तो सादि सान्त है और क्षोपशम भावसे जो श्रुति. काम प्राप्त होता है वह अनादि अनान्त है तथा भव्यसिद्धी जीवों कि अपेक्षा सादि सान्त है और अभव्य जीवों कि अपेक्षा अनादि अनान्त है। · श्रुतिज्ञान के अभिमाग पलिच्छेद (पर्याय । अनंत है जैसे किं एक अक्षर कि पर्याय कीतनी है कि सर्व आकाशप्रदेश तथा धर्मास्तिकायादि कि अगुरु लघुपर्याय जीतनी है । सूक्ष्म निगोद के.जीवों से यावत् स्थुल जीवों के आत्मप्रदेश में अक्षर के अनम्तमें भाग श्रुतिज्ञान सदैव निर्मल रहता है अगर उसपर कर्मदल
बाजाये तो जीयका अजीव हो जावे परन्तु एसा न तो भूत काल .. मेंहुचा न भविष्य कालमें होगा इस वास्ते ही सिद्धान्त कारोंने
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कहा है कि जीयों के आठ रूचक प्रदेश सदैव निर्मल रहते है। वहां कर्मदल नहीं लगते है यह ही चैतम्यका चैतन्यपणा है जैसे . आकाश में चन्द्र सूर्य कि प्रभा प्रकाश करती है कदाच उस कों महामेघ-बादले उस प्रभा के प्रकाश को झांकासा बना देते है तयपि उस प्रकाश को मूलसे नष्ट नही कर सकते है बादल दर होने से वह प्रभा अपना संपुरण प्रकाश कर सक्ती है इसी माफीक जीवके चैतन्यरूप प्रभा का प्रकाश को कर्मरूप बदल झांकासा बना देते है तद्यपि चैतन्यता नष्ट नही होती है कर्म दल दुर होने से वह ही प्रभा अपना संपुरण प्रकाश को प्रकाशित कर सकती है।
(११) गमिक श्रुतिज्ञान-दृष्टिबादादि अंगमे एकसे अलावे अर्थात् सदृश सदृश वातें आति हो उसे गमिक श्रुतिज्ञान कहते है।
(१२) अगमिक श्रुतिज्ञान-अंग उपांगादि में भिन्न भिन्न विषयोपर अलग अलग प्रबन्ध हो उसे अगमिक श्रुतिज्ञान कहते है जैसे ज्ञातासूत्रमे पचवीस कोड कथावों थी जिस्मे साढा एकवीस क्रोड तो गमिक कथावों जो कि उस्मे ग्राम नाम कार्य संबन्ध एकासाही था ओर साढातीन क्रोड कथावो अगमिक थी इसी माफीक और आगमोमें भी तथा दृष्टिवादांगमें भी समजना.
(१३ ) अंग श्रुतिज्ञान-जिस्मे द्वादशांगसूत्र ज्ञान है
(१४) अनांग श्रुतिज्ञान-जिस्के दो भेद है (१) आवश्यक सूत्र ( २ ) आवश्यकसूत्र वितिरिक्तसूत्र जिस्मे आवश्यकसूत्र के छे अध्ययन रूप छे विभाग है यथा. सामायिक, चउवीसत्थ, वन्दना, पडिक्कमण, काउसग्ग, पञ्चखांण और आवश्यक वितिरिक्त सूत्रोंके दो भेद है एककालिकसूत्र जो लिखते समय पहले या चरम पेहर में समाप्त किये गये थे. दुसरे उत्कालिक जो दुसरी तीसरी पेहः रमें समाप्त कीये गये थे.
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कालिक सूत्रोंके नाम इस मुजब है । (२६) भी कप्पयाजी सूत्र (१) भी उतराध्ययनजी सत्र (२७) भी कप्पडिसिया सूत्र (२) भी दशाश्रुतस्कन्धजी सूत्र
( २८ ) मा फुप्फीयाजी सूत्र (३) भी वृहत्कल्पजी सूत्र
(२९) श्री पुप्फयजी सूत्र (४) भी व्यवहारजी सूत्र
| (३०) श्री वणियाजी सूत्र (५) भी निशिथजी सूत्र
(३१) श्री विन्हीदशा सूत्र (६) भी महानिशिथजी सूत्र
(३२) श्री आसीविष भावना" (७) श्री ऋषिभाषित सूत्र
(३३) श्री दृष्टिविष भावना" (८) श्री जम्बुद्विप प्रज्ञप्ति सूत्र
| (३४) श्री चरणसुमिण भावना" (२) मी द्विपसागर प्रज्ञप्ति सूत्र
(३५) श्रीमहासुभिण भावना" (१०) भी चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र
| (३६) श्री तेजस निसर्गसूत्र (११) श्री क्षुलकर्वमान प्रवृति"
प्रसंगोपात श्री (१२) भी महा वैमान प्रति (३७) श्री वेदनीशतक (प.) (१५) श्री अचूलिका सूत्र
1. (३८) श्री बन्धदशा (स्या०) (५४) बी पालिका सूत्र
(३९) भी दोगिद्धिदशा (,,)
(१०) श्री दीहदशा (..) (१५) श्री विवाहाचूलिका सूत्र
(४१) श्री संखेविसदशा, (१६) श्री आरणोत्पातिक सूत्र (१७) श्री गारूडोत्पातिक सूत्र
(४२) श्री आवश्यक सूत्र (१८) श्री धरणोत्पातिक सूत्र ।
उत्कालीक सूत्रोंके नाम. (१९) श्री वैश्रमणोत्पातिक सूत्र (४३ श्री दशवकालिक सूत्र (२०) श्री लंधरोत्पातिक सूत्र (४४) श्री कल्पाकल्प सूत्र (२१) श्री देवीन्द्रोत्पातिक सूत्र (४५) श्री चूलकल्प सूत्र (१९) श्री उस्थान सूत्र (४६) श्री महाकल्प सूत्र
RA) श्री समुस्थान सूत्र (४७) श्री उत्पातिक सूत्र (१४) श्री नागपरिआवलिका । (५८) श्री राजप्रभेनि सूत्र ३५) भी निरयावलिका सूत्र । (४९) श्री जीवाभिगम सूत्र
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(५०) श्री प्रज्ञापना सूत्र . (५१) श्री महाप्रज्ञापना सूत्र ( ५२ ) श्री प्रमादाप्रमाद सूत्र ५३ ) श्री नन्दीसूत्र (५४) श्री अनुयोगद्वार सूत्र ( ५५ ) श्री देवीन्द्रस्तुति सूत्र ( ५६ ) श्री तंदुलब्याली सूत्र (५७) श्री चन्द्रविजय सूत्र ( ५८ ) श्री सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ( ५९ / श्री पौरषी मंडल सूत्र ( ६० ) श्री मंडलप्रवेश सूत्र ( ६१ ) श्री विद्याचारण सूत्र ( ६२ ) श्री विगच्छओ सूत्र ( ६३ ) श्री गणिविजय सूत्र ( ६४ ) श्री ध्यानविभूति सूत्र ( ६५ श्री मरणविभूति सूत्र
६६ ) श्री आत्मविशुद्धि सूत्र ( ६७ ) श्री वीतराग सूत्र (६८) श्री संलेखना सूत्र
१८
MATERIALS AND
(६९) श्री व्यवहार कल्पसूत्र ( ७० ) श्री चरणविधि सूत्रं (७१) श्रीआउर प्रत्याख्यान सू ( ७२ ) श्री महाप्रत्याख्यान सूत्र साथमें बारहाअंगो के नाम
+
( ७३ ) श्री आचारांग सूत्र (७४) श्री सूत्र कृतांग सूत्र (७५) श्री स्थानायांग सूत्र (७६) श्री समवायांग सूत्र (७७) श्री भगवतीजी सूत्र ( ७८ ) श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (७९) श्रीउपासक दशांग सूत्र (८०) श्री अन्तगड दशांग सूत्र (८१) श्री अनुत्तरोपपातिक सू ( ८२ ) श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ( ८३ ) श्री विपाक सूत्र ( ८४ ) श्री दृष्टिबाद सूत्र एवं ८४ आगमोंके नाम
इन ८४ आगमों के अन्दर जो बारहा अंग है उनके अन्दर कीसकीस वार्ताका विवरण कीया गया है वह संक्षितसे यहां बतला देते है । यथा:
१ आचारंग सूत्रमें -- साधुका आचार है सो भ्रमण निग्रस्थों को सुप्रशस्त आचार, गोचर भिक्षा लेने की विधि, बिनय defen, कासर्गादि स्थान, विहार मूम्यादिकमे गमन, चक्रमण (भ्रम दूर करनेके लिये उपाश्रयमें जाना ), वा आहारादिक पदार्थोंका माप, स्वाध्यायमें नियोग, भाषादि समिति, गुप्ति,
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शय्या, उपधि, भक्त, पान, उद्गमादि (उद्गम, उत्पात ओर एषणा), दोषोकी विशुद्धि, शूद्धाशुद्ध प्रहण. आलोचना, व्रत, नियम: सप और भगवान वीरप्रभुका उज्वल जीवन है। प्रथम श्री आचारांग सूत्रमें दो भुतस्कंध इत्यादि शेष यंत्रमे.
२ मूत्रकृतांग ( सूअगडांग ) सूत्र-स्वसिद्धांत परसिद्धांत, स्वऔरपरसिद्धांत, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव , पुण्य, पाप, भाव, संवर, निर्जरा, पंप और मोक्ष तकके पदार्थो, इतर दर्शनसे मोहित, संदिग्ध नव दीक्षितकी बुद्धिकी शुद्धिके लिये एकसोएंशी क्रियावादिका मत, पौरासी भक्रियावादिका मत, सडसठ अज्ञानवादिका मत, बतीस विनयवादिका मत एकुल मीलकर ३६३ अन्य मतियों के मतको परिक्षेप करके स्वसमय स्थापन व्याख्यान है दुसरा अंगका दो भुतस्कन्ध इत्यादि शेष यंत्रमें.
३ स्थानांग सूत्र-स्वसमयकों, परसमयकों, और उभय समको शासन, जीषकों अजीवकों, जीवाजीवकों, लोककों, अलोकको, लोकालोकको स्थापन, पर्वत, शिखर, कुट, माण, कुड, गुफा, आगर, हें, नदी आदि एकएक बोलसे लगाके दशदश बोलका संग्रह कीया हुवा है. नीस्का श्रुतस्कंध १ इत्यादि शेष यंत्रमें. : ४ समवायांग मूत्रमें-स्वसिद्धांत, परसिद्धांत, उभय सिद्धांत, मीब, अजीव, जीवाजीव, लोक अलोक, लोकालोक और एकादिक कितनाक पदार्थोकों एकोतरिक परिवृद्धिपूर्वक प्रतिपादन अर्थात् प्रथम एक संख्यक पदार्थोको निरुपण पीछे विसंख्यक यावत् क्रमसर ३-४ यावत् कोडाक्रोड पर्यंत अथवा द्वादशांग गणिपिटपापर्यवोकों प्रतिपादन और तिर्थंकरोंके पूर्वभव मातापिता वा दीक्षा, ज्ञान, शिष्य आदि व चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रति पानदेवादिकका व्याख्यान हे जीस्का श्रूतस्कंध १ इत्यादि
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५ व्याख्यान प्राप्तिः-(भगवती) भगवतीसूत्रमें स्वसमय. परसमय, स्वपरसमय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक अलग अलग प्रकारका देव, राजा राजर्षि और अनेक प्रकारके संदिग्ध पुरुषोंने पुछे हुवे प्रश्नोंका श्रीजिनभगवान विस्तार पूर्वक कया हुवा उत्तर, सो उत्तर, द्रव्य, गुण, क्षेत्रकाल, पर्याय, प्रदेश और परिणामका अनुगम निक्षेपण, नय, प्रमाण और विविध सुनिपुण उपक्रमपूर्वक यथास्ति भावना प्रतिपाद कहे. निम्हसे लोक और अलोक प्रकाशित है, वह विशाल संसार समुद्र तारनेको समर्थ है, इंद्रपूजित है भव्य लोकोंके हृदयका अभिनंदक हे, अंधकाररूप मेलका नाशक हे, सुठुइष्ट है, दीपमृत है.इहा, मति और बुद्धिका वर्धक है, जीस प्रश्रोंकी संख्या ३६००८ की है जीसमे श्रुतस्कंध इत्यादि शेष यंत्रमें.
६ ज्ञाता धर्मकथासूत्र में-उदाहरण भूत पुरुषोंका नगरो, उद्यानो, चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, माता पिता, समवसरणो, धर्माचार्यो, धर्म कथाओ, यहलोकिक और परलौकिक वृद्धि विशेषो भोग परित्यागोप्रव्रज्याओ, श्रुत परिग्रहो, तपो, उपधानो, पर्याओ संलेखणा, भक्त प्रत्याख्यानो पादपोपगमनो, देवलोक्त. गमनो, सुकुलमा प्रत्यवतारो, बोधिलामो और अंतक्रियाओ, इस अंगमें दो श्रुत स्कंध और ओगणीन अध्ययनो है । धर्म कथाका दश वर्ग है जीसमें एक एक धर्मकथामें पांचसो पाँचसो आख्यायिः काओ है । एकेक आख्यायिका पांचसो पांचसो उपाख्यायिकाओ है। एक एक उपाख्यायिकाओमें पांचसो पांचसो आख्यायिकों. पाख्यायिकाओ है यह सर्व मिलके कथा वर्गमे गमिक ( सादश) और अगमिक सामिल है जीस्में गमिक कथाओ छोडके शेष साडा तीन क्रोड कथाओ इस अंगमें है शेष यंत्रमें देखो।
७ उपाशक-दशांग सूत्रमे उपासको (श्रावको) का नगरो, उद्यानो, चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, माता पिताओ, समवसरणो,
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धर्माचार्यो, धर्मकथाओ यहलौककी और परलोककी ऋद्धी विशेष और भावकोंका शीलवतो, विरमणो, गुणवतो, प्रत्याख्यानो, पौषधोपचासो, श्रुत परिग्रहो, तपो उपधानो, प्रतिमाओ, उपसर्गा, संलेखना भक्त प्रत्याख्यानो पादपोपगमनो, देवलोक गमनो, सुकुलमा जन्मो, बोधिलाभ और अंतक्रिया, इस अंगका श्रुतस्कंध १ है इत्यादि शेष यंत्रमें।
अतकृदशांग सूत्रमें--अंतकृत ( अन्तकेवल ) प्राप्त पुरुषोंका नगरो उचानो, चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, माता पिता, समयहरणो, धर्माचार्यो, धर्मकथाओ, यह लौक और परलोककी ऋद्धि, भोग परित्यागो, प्रव्रज्याओ, श्रुतपरिग्रहो; तपो उपधानो बहुविध प्रतिमाओ, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य सहित शौच, सत्तर प्रकारको संखम उत्सम ब्रह्मचर्य, अकिंचनता, तप क्रियाओ, समितिमओ, गुप्तिओ, अप्रमाद्योग उत्तम स्वाध्याय और ध्यानका स्वरूप, उत्तम संयमको प्राप्त और जित परिषह पुरुषोंकों चार प्रकारका कर्मभाव हुषा बाद उत्पन्न हुबो अंत समय केवल ज्ञानको लाम, सुनिओका पर्याय काय, पादपोपगमन पवित्र मुनिवर भीतना भक्तो (भक्तज़ो) कुं त्याग करके अंतकृत हुषा इत्यादि. इस अंगका श्रुतस्कंध एक है इत्यादि शेष यंत्रमें. : अनुत्तरोपपातिक सूत्रमे-अनुत्तरोपपातिको (मुनिओ का नग़रो, उद्यानो चैत्यो, बनखंडो राजाओ, माता पिताओ, समवसरणो, धर्माचार्यो, धर्म कथाओ, यह लौकका और परलौकका ऋद्धि विशेषो, भोग परित्यागो, श्रुतपरिग्रहो, तपो, उपधानो, 'पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्तपान प्रत्याख्यानो, पादपोपगमनो, सामवतारो, बोधि लामो, और अंतक्रियाओ नवमा अंगमें १ चुका है इत्यादि शेष यंत्रमें.
१० प्रश्न व्याकरण सूत्रमें-एकसो आठ प्रश्नो, एकसो आठ · अकसो माठ प्रभाप्रभो, अंगुठा प्रश्रो, बाहु प्रश्नो, आग
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( काच ) प्रश्नो और भी विद्याका अतिशयो तथा नागकुमार और सुवर्ण कुमारकी साथे हुआ दिव्य संवादो इस अंग श्रुत स्कंध १ हे इत्यादि शेष यंत्रमें वर्तमान इस अगले पांचाभ्रव पाँच संवरका सविस्तार वर्णन है ।
११ विपाक सूत्रमें विपाक संक्षेपसे दो प्रकार दुःख विपाक ( पापका फल ) और सुख विपाक ( पुण्यका फल ) जीसमें दुःख fauren दुःखविपाकवाला ओका नगरी, उद्यानो, चैत्यो बनखंडो, राजाओ, माता पिता, समवसरण धर्माचार्यो, धर्म कथाओ, नरक गमनो संसार प्रबंध दुःख परंपरा, और सुख विपाकमें सुख विपाकवालाओका नगरी, उद्यानो, चेत्यो, वनखंड, राजाओ, माता, पिताओ, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, अलौककी और परलौककी ऋद्धि विशेषो, भोग परित्यागो प्रव्रज्याओ, श्रुत परिग्रहो तपो, उपधानो पर्यायो प्रतिमाओ, संलेखनाओ, भक्त प्रत्याख्यानो, पादपोपगमनो, देवलोक गमनो, सुकुलावतारा, बोधिलाभ और अंतक्रियाओ, इस अंग में इत्यादि शेष यंत्रमें ।
१२ दृष्टिवाद सूत्र में - सब पदार्थोंकी प्ररूपणा है जीस्का अंग पांच है। १ परिकर्म । गणित विशेष तथा छन्द, पद, काव्या दिकी रचनाकी संकलना २ सूत्र ( दृष्टिवाद संबंधी ८८ सूत्रका विचार ) ३ पूर्व ( १४ पूर्व ) ४ अनुयोग ( जिसमें तिर्थकरों का astrदि पंचकल्याणक व परिवार तथा रुषभदेव और अजीतनाथके आंत में पाटोनपाट मोक्ष गये थे जोस्का अधिकार (५) चूलिका (पूर्वके उपर चूलिका ) दृष्टिवादमें श्रुतस्कंध एक है पूर्व चौदा वत्थू (अध्येन ) संख्याता इत्यादि ।
इन द्वादशांगी प्रत्येक अंगकी, प्रत्येक वांचना है संख्या व्याख्यानद्वार, संख्याता वेढा जातका छंद, संख्याता श्लोक, संख्याती निर्युक्ति, संख्याति संग्रहणी गाथा, संख्याति परिवृक्ति, संख्यातापद, संख्याता अक्षर, अनंता गमा, अनंतापर्यबा, परितात्रस और अनंता स्थावर इत्यादि सामान्य विशेष प्रकारे श्री
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कजाबाकाजाक
तिबंकर भगवानने परपणा करी है और द्वादशांगीमें अनंता भाव, अनंता अभाव, अनंताहेतु, अनंता अहेतु, अनंताकारण, अनंता. सकारण, अनंता जीव, अनंताअजीव, अनंताभवसिद्धिया, अनंता अमव सिद्रिया अनंता सिद्धा, अनंता असिद्धा इत्यादि भाव है,
१. नोट-कालीक उत्कालीक सूत्रोंके सिवाय भगवान् ऋषभप्रभुके ८४००० मुनिओंने ८४००० पईमायावत् वीर प्रभुके १४००० मुनिनोंने १४००० पईन्ना रचे थे अर्थात् जीस तीर्थकरोके जीतने मुनि होते है वह उत्पातिकादि स्वयं बुद्धिमें एकएक पइना बनाता था।
इनके सिवाय कर्मग्रन्थमें श्रुतिज्ञानके १४ भेदोंके सिवाय २० भेद बतलाये है यथा
(१) पर्यायभूत-उत्पत्ति के प्रथम समयमै लब्धि अपर्याप्ता सक्षम निगोदके जावाको जो कुश्रुतका अंश होता है उससे दुसरे समयमै ज्ञानका जीतना अंश बढ़ता है वह पर्याय-श्रुत है।
(२) पर्याय समासश्रुत-उक्त पर्यायश्रुतके समुदायकों अर्थात् दो तीनादि संख्याओकों पर्याय समासश्रुत कहते है।
(३) अक्षरभुत-अकारादि लब्धि अक्षरों से कीसी एक अक्षरको अक्षरभुत कहते है। .
(४) अक्षरसमासश्रुत-लब्ध्यक्षरोंके समुदायकों अर्थात् दो तीनादि अक्षरोको अक्षरसमासश्रुत कहते है।
(५) पदश्रुत-जिस अक्षर समुदायसे पुरा अर्थ मालुम हो वह पद और उसके ज्ञानकों पदश्रुत कहते है।
(६) पदसमासश्रुत-पदोंके समुदायके ज्ञानको पदसमासश्रुत
(७) संघातश्रुत-गति आदि चौदा मार्गणाओंमेसे किसी पक मार्गणाके एक देशके ज्ञानको संघातश्रुत कहते है।
: (८) संघातसमासश्रुत - किसी एक मार्गणाके अनेक देशांका शानको संघातसमासश्रुत कहते है जैसे गति मार्गणाके च्यार अब नरकगति, तीर्थचगति मनुष्यगति देवगति जिसमें एक अवयवका ज्ञान होना उसे संघातसमासश्रुत कहते है।
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(९) प्रतिपातिश्रुत-गति इन्द्रिय आदि कीसी द्वारसे संता. रके नीषोंका ज्ञान होना उसे प्रतिपातिश्रुत कहते है।
(१०) प्रतिपातिसमासश्रुति-गति इन्द्रिय आदि बहुतसे बारोसे संसारी जीवोंका ज्ञान होना।
(११) अनुयोगश्रुत-"संतपय परुपणा दख्य पमाणं च" इस पदमें कहा हुवा अनुयोगद्वारोमेंसे कीसी एक के द्वारा जीवादि पदार्थोको जानना अनुयोगश्रुत है
(१२। अनुयोगसमासश्रुत-एकसे अधिक दो तीन अनुयोगहारा जीवादि पदार्थोंकों जानना उसे अनुयोगसमासश्रुत कहते है।
(१३) प्राभृत-प्राभृतश्रुत-दृष्टिवादके अन्दर प्राभत-प्राभूत नामका अधिकार है उनोंसे कीसी एकका ज्ञान होना।
(१४) प्राभृत प्राभूत समासश्रुत -दो तीन च्यारादि प्राभूत प्राभूतोंसे ज्ञान होना उसे प्रा० प्रा० समास कहते है।।
प्राभृतश्रुत-जैसे एक अध्ययनके अनेक उद्दसा होते है इसी माफीक प्राभूत प्राभुतके विभागरूप प्राभूत है जिस एकसे ज्ञान होना उसे प्राभूत ज्ञान कहते है
(१६) प्राभूतसमासश्रुत-उक्त दो तीन च्यारादिसे ज्ञान होना उसे प्राभृतसमासश्रुत कहते है। ___ (१७) वस्तुश्रुत-केह प्राभृतके अवयवरूप वस्तु होते है जिनसे पक वस्तुसे ज्ञान होना उसे वस्तुश्रुत
(१८) वस्तुसमासश्रुत-उक्त दो तीन च्यारादि वस्तुबोंसे मान होना उसे वस्तुसमास कहते है।।
(१९) पूर्वश्रुत-अनेक वस्तुवोंसे एक पूर्व होते है उन एक पूर्वका ज्ञान होना उसे पूर्वज्ञाम कहते है ।
(२०) पूर्वसमासश्रुत-दो तीन पूर्व-वस्तुवोंसे ज्ञान होना उसे पूर्वसमास ज्ञान कहा जाता है। . इसके सिवाय श्रुतज्ञानवाला उपयोग संयुक्त सर्वार्थसिड वैमान तककी बातको प्रत्यक्षसे जान सकता है।
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एकादशांगका यंत्र..
..
टीका
ام
अध्ययन. उदेशा.
टीका कर्ता | संख्या.
संवत. ८५१२००० ।।
TE३३॥
REPHASEX
२३
.
शीलाङ्गा
اس
ठा०.१०
२१ ।१४२५०
११२० ११२०॥ ११२०
मलपद संख्या . अंगनाम.
| वर्तमान पदकर्ता.
सख्या . संख्या . | आचारांग *१८००० । २५२५ । सुयगडायांग
२१०० । स्थानायांग ७२००० समवायांग
१४४००० भगवतीजी २८८.८० ॥
१५७५२ ज्ञाताधर्म कथा उपाशकदशांग ११५२०००। ८५२ अन्तगडदश० २३०४००० ८९९ अनुत्तरोववाइ ४६०८००० प्रश्नव्याकरण ९२१६...
४३२००० १२१६
های ما
११०००.१८६१६
पांचमा गणधर सुधर्मा स्वामिजी.
। ३८००
११२०॥
०६.
२ श्री अभयदेवसूरिजी
८००
११२०० ११२०
व.
८
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१००
برای ما
११२० ११२०॥
विपाक
* एक पदके अक्षर १६३४८३०७८८६ इतने होते है जिस्कों ३२ अक्षरके श्लोक गीणा जावेतों एक पदके ५१०८८४६२१॥ श्लोक होते है एसे १८००० पद श्री आचारांगजीसूत्रके थे इसी माफीक सर्व आगमोका समज लेना।
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":
सुधर्मास्वामी पांचमा गणधर
• • • • • • • • .
१४ पूर्वका यंत्र. पूर्वोका नाम | पद संख्या कर्ता वत्युलसाहीहस्ति
विषय . उत्पाद
१* सर्व द्रव्यगुण पर्यायका उत्पन्न और नाश. प्रगणीय ७० लाख
२ सर्व द्रव्यगुण पर्यायका जाणपणा.: वीर्य ६. ,
४ । जीवोंके वीर्यका व्याख्यान. आस्तिनास्ति १ कोड
आस्तिनास्तिका स्वरूप व स्याद्वाद ज्ञानप्रमाद | २ "
१६ । पांच ज्ञानका व्याख्यान, सत्य प्र. २६ ,
३२ । सत्यसंजमका व्याख्यान. आत्मा प्र० | १ को.८० ला,
नय, प्रमाण, दर्शन सहित आत्माका स्वरूप. कर्म प्र. ८४ लाख ।
१२८ कर्मप्रकृति, स्थिति, अनुभाग, मूल उत्तर प्रकृति. प्रत्याख्यानप्र० १ क्रो. १० है |
२५६ | प्रत्याख्यानका प्रतिपादन. विद्या प्र. २६ क्रोड
५१२ | विद्याके अतिशयका व्याख्यान. कल्याणक प्र० १ कोड
१०२४ । भगवानका कल्याणकका व्याख्यान. प्राणावाय | कोड
भेद सहित प्राणका विषयको व्याख्यान. क्रिया विशाल १२ को १० ला. ३० • ४०६६ | क्रियाका व्याख्यान. लोकबिंदु साय ९६ लाख । ।२५, ०८१९२ बिदुके अदर लाकका स्वरूप सब अक्षर सानपात..
* एक हस्ति अंबाडी सहित हो इतना ढिग साहीका करे उतनी साहीसे प्रथम पूर्व' लीखा जाता है इसी माफिक क्रमशः २-४-८-१६-३२-६४-१२४-२५६-५१२-१०२४-२०४८-४०९६-८१९२ हस्तियोंकि वारिसे १४ पूर्व दि जाते है कूल १६३८३ हस्ती..
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२०४८
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इन द्वादशांगीको भूतकाळमें अनंतेजीवों विराधना करके चतुर्गति संसारके अंदर परिभ्रमण कीया. वर्तमान कालमें संख्याते जीव परिभ्रमण करते है. और भविष्य कालमें अनतेजीव परिभ्रमण करेगें.
इन द्वादशांगीकी भूतकालमें अनंतेजीवों आराधना करके संसाररूपी समुद्रको पार पहोंचे (मोक्ष गये ) और वर्तमान कालो संख्याते जीव मोक्ष जाते है ( महाविदेह अपेक्षा ) और भविष्यमें बादशांगीको आराधन करके अनंते जीव मोक्ष जावेगे.
यह बादशांगी भूतकालमें थी, वर्तमान कालमें है और भविष्य कालमें रहेगी. जैसे पंचास्तिकायकी माफिक निश्चल नित्य, शाश्वती. अक्षय, अव्याबाध, अवस्थित रहेगी.
श्रुतज्ञानका संक्षेपसे चारभेद हे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. (१) द्रव्यसे उपयोग युक्त श्रुतज्ञान सर्व द्रव्यकों जाने देखे. (२) क्षेत्रसे उपयोग सहित श्रुतज्ञान सर्व क्षेत्रकों जाने देखे. (३) कालसे उपयोग सहित श्रुतज्ञान सर्व कालको आने देखे. (४) भावसे उपयोग सहित श्रुतज्ञान सर्व भावकों जाने देखे.
चौदा प्रकारके श्रुतिज्ञानके अन्त में सूत्रका व्याख्या करनेकी पद्धति बतलाइ है. व्याख्यानदाताओंको प्रथम मूल सूत्र कहना चाहिये. तदान्तर मूल सूत्रका शब्दार्थ. तदान्तर नियुक्ति, तदा. न्तर विषय विस्तारसे प्रतिपादनार्थ, टीका, चूर्णी, भाष्य तथा हेतु टान्त युक्ति द्वारा स्पष्टिकरण करना यह व्याख्यानकी पद्धति है। . .
इति श्रुतज्ञान. इति परोक्षज्ञान. . सेवभंते सेवभंते तमेव सच्चम.
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थोकडा नम्बर ६७
मूत्रश्री पन्नवणाजी पद ३३ अवधिज्ञानाधिकार भव १ विषय २ संस्थान ३ अभ्यान्तरबाय ४ देशसई ५ हीयमान वृद्धमान अवस्थीत ६ अनुगमि अनानुगमि ७ प्रतिपाति अप्रतिपाति ८।
(१) भव-नारकि देवताघोंको अवधिज्ञान भवप्रत्य होते है और मनुष्य तथा तीर्यच पांचेन्द्रियकों क्षोपशमसे होते है।
(२) विषय-अवधिज्ञान अपनी विषयसे कितने क्षेत्रकों देख सकते है जान सक्ते है। (१) रत्न प्रभा नारकि जघन्य ३॥ गाउ उत्कृष्ट ४ गाउ. (२) शर्करा प्रभा नारकि , ३ , ,, ३॥ , (३) वालुका प्रभा नारकि , २॥ , , ३ , (४) पङ्क प्रमा नारकि , २ ,, , २॥ " (५) धूम प्रभा नारकि , (६। तमः प्रभा नारकि , १ (७) तमस्तमा प्रभा नारकि " ०॥ , १ ,
असुरकुमार के देव न० २५ योजन उ° उर्ध्व लोकमे सौधर्म कल्प अधोलोकमे तीसरी नरक. तीर्यगलोगों असंख्याते द्विप समुद्र अवधिज्ञानसे जाने देखे । नागादि नौजातिके देव० ज०२५ योजन. उ० उर्वलोकमे ज्योतीषीयोंके उपरका तला. अधोलोकमे पहली नरक. तीर्यगलोक संख्याते द्विपसमुद्र. एवंव्यन्तर देव.
और ज्योतिषी देव.ज. उ०संख्यातेद्विप समुद्र जाने. सौधर्मशान कल्पके देव जघन्य आंगुलके असंख्यातमे भाग उ० उर्व स्वध्वजा पताका अधोमे पहली नारक तीर्यगलोकमे असंख्याते द्विपत्तमुद्र
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एवं सनत्कुमार महीन्द्रदेव परन्तु अधोलोकमें दूसरी नरक जाने. पैर ब्रह्म और लांतकदेव परन्तु अधोलोकमें तीसरी नरक जाने. एवं महाशुक सहस्रदेष परन्तु अधोलोकमे चोथी नरक जाने. एवं आणत प्राणत अरण्य अचूतदेव परन्तु अधोलोक पांचमी नरक माने. पयं नौग्रीवेगके देष परन्तु अधोलाकमें छटी नरक जाने. पंर्ष च्यारानुत्तर वैभान परन्तु अधोलोकमें सातमी नरक जाने और सर्वार्थ सिद्ध पैमानके देव, लोकभिन्न याने सर्व प्रसनालिको माने वह वात ख्यालमे रखना कि सब देव उर्व तो अपने अपने पैमानके ध्वजा पताका और तीर्यगलोकमे असंख्याते विप समुद्र देखता है। तीयेच पांचेन्द्रिय जं. आंगुलके असंख्यातमे भाग. उ० असंख्याते द्विप समुद्र जाने.। मनुष्य ज० आंगु० असं० भाग उ० सर्व लोक जाने देखे और लोक जैसे असंख्यात खंड अलोकमें भी जान सक्ते है। परन्तु वहां रूपी पदार्थ न होनेसे मात्र विषय ही मानी जाती है.
(३) संस्थान-अवधिज्ञानद्वार जिस क्षेत्रकों जानते है वह कीस भाकारसे देखते यह कहते है.नारकितीपायाके संस्थान.भुवनपति पालाके संस्थान, व्यन्तर देव ढोलके संस्थान. ज्योतिषी झालरके संस्थान. बारह देवलोकके देव उर्व मर्दैग के संस्थान, नौग्रीवेग पुष्पोंकि चंगेरोके आकार, पांचानुत्तर मानके देव, कुंमारिकाके कंचुके संस्थान मनुष्य और तीर्यच अनेक संस्थानसे जानते है।
(४) नारकी देवताओमें अवधिज्ञान है उसे अभ्यान्तर ज्ञान कहते है कारण वह परभवसे आते है तब ज्ञान साथमे ले के आते हैं। तीर्थचकों बाह्य ज्ञान. अर्थात् वह उत्पन्न होने के बाद भोपशम भाषसे ज्ञान होता है। मनुष्यमें दोनो प्रकारसे ज्ञान होता है अभ्यान्तर ज्ञान और बाह्यज्ञान ।।
१५) नारकि देवता और तीर्यच पांचेन्द्रियके ज्ञान है वह देशसे होता है (मर्यादा संयुक्त ) और मनुष्य के देश और सर्व दोनो प्रकारसे होता है।
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३०
(६) नाकि देवताओंके ज्ञान है सो अवस्थीत है कारण वह भवप्रत्य ज्ञान है और मनुष्य तीर्यचके ज्ञान तीनो प्रकारका है हियमान वृद्धमान और अवस्थीत ।
(७) नारकि देवताओके अवधिज्ञान अनुगामि है याने नहां जाते है वहां साथमें चलता है और मनुष्य तीर्यचमे अनुगामि अनानुगामि दोनो प्रकारसे होता है।
(८: नारकि देवताओंके अवधिज्ञान अप्रतिपाति है कारण यह भवप्रत्य होता है और तीयेच पांचेन्द्रियमें प्रतिपाति है मनुध्यके दोनो प्रकारका होता है प्रतिपाति अप्रतिपाति कारण मनुज्यमें केवलझान भी होता है परम अवधिज्ञान भी होता है इति
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सक्षम
--- - थोकडा नम्बर ६८
-
.
मूत्रश्री भगवतीजी शतक : उ० २ पांच ज्ञानकि लब्धि ।
द्वारोंके नाम. जीव, गति, इन्द्रिय, काय, सूक्षम, पर्याप्ति, भवार्थी, भवसिद्धि, संज्ञी, लब्धि, ज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, कषाय, वेद, आहार, नाण, काल, अन्तर. अल्पाबहुत्व, ज्ञानपांच, मतिज्ञान, धृतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, तथा अज्ञान तीन मतिअज्ञान, श्रृतिअज्ञान, विभंगहान, चन्हनहां. भ हो वहा भजना, स्यात् हो स्यात न भी हो स्यात् कम भी हो. जहा नि-नियम. निश्चय कर होता ही है।
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मार्गता.
३ मनमा
३ नियमा १ नियमा ३ नियमा
३ नियमा
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२ नियमा २ नियमा ३ भजना ३ भजना
१. समुचव बीपमें २. पहली नरक १० भुवनपति बन्तरमें १ छे नरक ज्योतिषी १२ देवलोकनौनीक ४ पांचानुत्तर पैमानमें । ५ पांच स्थावर असंही मनुष्य में ६ तीन वैकलेन्द्रिय असंज्ञो तीर्य बने । ७ संज्ञी तीर्यच पांचेन्द्रियमें ८ संही मनुष्यमे
श्री सिद्ध भगवानमें १० नरकगति और देवगतियों में
तीर्यचगतियों में १२ मनुष्य गतियों में १५ सिद्धगतियों में १४ सेन्द्रिय पांचेन्द्रियमें ९५ तीन वैकलेन्द्रियमें १६ एकेन्द्रियमें १७ अनेन्द्रियमें
२ नियमा ३ भजना ५ भनना १ नियमा ३ नियमा २ नियमा ३ भजना १ नियमा ४ भनना २ नियमा
० ० ०. । १ नियमा
३ भजना २ नियमा २ नियमा
३ भजना २ नियमा २ नियमा
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२ नियमा
२ नियमा ३ भनमा
३ भजना ३ नियमा
१८ सकाय प्रसकायमें १९ पांच स्थावर काय में २० अकायमें
रमियमा २१ सूक्ष्ममें २२ बादरमें
५ भजना २३ मोसूक्ष्मनो बादरमें
१ नियमा २४ प्रथम नरक १० भुवन० व्यन्तरके अपर्याप्ता | ३ नियमा २५ पांच नरक २१ देवलोक ज्योतिषीयोके अपर्याप्ता. ३ नियमा २६ पाँचानुत्तर वैमानके अपर्याप्तामें
३ नियमा २७ सातवी नरकके अपर्याप्तामें २८ पांच स्थावर असंही मनु० अपर्या २९ तीन वैकले. असंही तीर्यच अपर्याप्ता
२ नियमा ३० संझी तीर्यचके अपर्याप्ता
'२ नियमा ३१ संज्ञी मनुष्यके अपर्याप्ता
३ भजना ३२ नरकसे नौग्रीवैगके पर्याप्तामें
३ नियमा ३३ पांचानुत्तर वैमातके पर्याप्तामें
३ नियमा ३४ पांच स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय असंही
तीर्यच असंही मनुष्य के पर्याप्तामें ३५ संक्षी तीर्यचके पर्यासामें
३ भजना
३ नियमा २ नियमा २ नियमा २ नियमा २ नियमा ३ नियमा
२ नियमा
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नियमा
६ भजना ५ भजना
नियमा ५ भजना
३ भजना . . ..
०००
।
३ भजना
१६ संही मनुष्यके पर्याप्तामें २७ नोपाला गोअपर्याप्ता ३८ नरक और दव भवत्यामे ३९ तीर्थच भवत्यामें ४० । मनुष्य भवत्थामें ... ४१ अभवत्थामें ४२ "भवसिद्धि जीवोंमें
... ४३ अभवसिद्धिमें ४४ नोभव्य नोअभव्यमें ४५ संझी जीवोंमें ४६ असंज्ञी जीवोंमें १७ नोसंज्ञी नोअसंही ४८ ज्ञानलद्धियोंमें ४९ ज्ञानके अलद्धियोंमें ५० मतिश्रुति ज्ञानके लद्धियोंमें ५१ तस्सअलद्धियोंमें ५२ अवधि० मनः पर्यवज्ञानलद्धियोंमें ५३ तस्स अलद्धियोंमें ५४ केवलज्ञानके लद्धियों में
।
१ नियमा ४ भजना २ नियमा १ नियमा ५ भजना
३ भजना । २ नियमा
३ भजना
३ नियमा
४ भजना १ नियमा ४ भजना ४ भजना १ नियमा. ।
३ भजना ...
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४ भजना
५ भजना
० ० ० ६ भजना ५ भजना ५ भजना
३ भजना ३ भजना ३ नियम २ नियमा ३ भजना
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५५ तस्स अलद्धियोंमें ५६ मतिश्रुते अज्ञानके लद्धियोमें
तस्स अलखियोमें ५८ विभंग ज्ञानके लाद्धयामें ५९ तस्स अलद्धियामें
दर्शनके लद्धियामें ६१ सम्यग्दर्शनके लद्धियामें
तस्स अलद्धियामे ६३ मिथ्या-मिश्रदर्शन लद्धियामें ६४ तस्सलद्धियामे ६५ चारित्र लक्रियामें ६६ तस्स अलद्धियामें ६७ सा. छ. प. सू० चारित्र लद्धियोमें ६८ तस्स अलद्धियामें ६९ यथाख्यात चा० लद्धियामें
तस्सालद्धियामें ७१ चारित्रा चारित्रके ल० में ७२ तस्स अलद्धियामें
३ भजना ३ भजना ३ भजना
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३ भजना
५ भजना ५ भजना ४ भजना •४ भजना
४ भजना ५ भजना ४ भनमा ३ ममना ५ भनना
३ भजमा
३ भजना | ००० । ३ भजना
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माना
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भजना भजना
.
भजना
३ भजना ३ भजना
. ७५ तस्सालरियामें , ७५ पाठलाधिके ललिगामें
७६ अस्त अहशियामे ७७ पंरित लब्धिके लडिया . ७८ तस्स अलद्धियामें ७९ बाल पंडित ल. ल. में
तस्स अलद्धियामें
सेन्द्रिय. स्पर्शन्द्रियके ललियामें ८२ तस्सालद्धियामें ८३ भोत्रेन्द्रियः चक्षु० घ्राणेन्द्रिय ल. में ८४ तस्सालद्धियामें
रसेन्द्रियके लद्धियामें ८६ तस्सालद्धियामें ८७ मत्यादि च्यार ज्ञानमें ८८ केवलज्ञानमें ८९ चक्षु अचक्षुदर्शमें ९०. अवधि दर्शनमें
-VF
..
५ भजना ३ भजना ५ भजना ४ भजना १ नियमा ४ भजना ३. नियमा ४ भजना र नियमा ४ भाना १. नियमा ४ भनना ३ भजना
३ भजना २ नियमा ३ भजना २ नियमा
३ भजना । ३ नियमा
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९१ केवलदर्शनमें
९२
सयोगी. मन वचन काययोगमे
. अयोगिमें.
साकार मणाकरोपयोग में
९४
९५ सलेशी शुक्ललेशीमें
९६ कृष्णादि पांच लेश्यामें ९७ अलेशीमें
९८ सकषायि. क्रोधमानमायालोभमें ९९ अकषायि में
१०० सवेद. स्त्रि. पुरुष. नपुंसक वेदमें १०१ अवेदी में
१०२ आहारीक जीवोमें
१०३ अनाहारीक जीवोमें
१. नियमा
५ भजना
१
नियमा
५ भजना
५ भजना
४ भजना
१ नियमा
४ भजना
५ भजना
४ भजना
५ भजना
५ भजना
४ भजना
०००
३ भजना
०००
३ भजना
३ भजना
३ भजना
०००
३ भजना
०००
भजना
०००
३ भजना
३ भजना
पाचों ज्ञानकि विषय थोकडा नं. ६४-६५-६६ में लिखी गई है तीन अज्ञानकि विषय संक्षेप्त से यहां लिखी जाति है. मति अज्ञानके व्यार भेद है द्रव्यसे परिग्रहीत द्रव्यकों जाने क्षेत्र से परिग्रहित क्षेत्रको जाने. कालसे परिग्रहित कालको जाने, भावसे परिग्रहित भावको जाने. श्रुति अज्ञानके भी इसी माफीक च्यार भेद है परन्तु वहां सामान्य विशेष रूपमे प्ररूपणा करे. एवं विभंगज्ञानकेभी प्यार भेद है परन्तु परिग्रहितद्रव्यादिको सामान्य विशेष रूपमे जाने ओर देखे ( इति )
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३७
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...सादिसान्त.प्रथम गुणस्थान त्यागसे मानाक सादि है और ग्यारवे गुणस्थानादिसे पुन: प्रथम गुणस्थान जाना ज्ञानका अन्त है। मतिज्ञान श्रुतिज्ञान कि स्थिति जघन्य अन्तरमुहुर्त उ० छासट (६६) सागरोपम साधिक एवं अवधिज्ञान परन्तु जघन्य एक समयका कालभी है. मन:पर्यव झाम. ज. एक समय. उ० देशोनपूर्वकोड. केवलज्ञानकि स्थिति नही है किन्तु सादि अनन्त है. मतिअज्ञान श्रुति अज्ञानके तीन मेद है अनादि अनन्त. अभव्यापेक्षा, अनादि सान्त, भव्यापेक्षा सादिसान्तकि स्थिति ज० अन्तरमहुर्त उ० देशोन अर्धपुद्गल. विभंगहान, ज. एक समय उ० तेतीस सागरोपम देशोन पूर्व कोड अधिक।
अन्तरद्वार-सज्ञानी मतिज्ञानी श्रुतिज्ञानी अवधिज्ञानी मनापर्यवज्ञानीका अन्तर पडे तो ज० अन्तर मुहुर्त उ० देशोन .बाबागल. केवलज्ञानका अन्तर नहीं है मतिअज्ञान श्रुतिअज्ञान
सादी सान्तका अन्तर न० अन्तर मुहूर्त उ० छासट सागरोपम साधिक. विभंगज्ञानका अन्तर ज० एक समय उ. अनंतकाल यावत् देशोन आधापूदगलपरावर्तन । ... अल्पाबहुत्ववार-सर्व स्तोक मनःपर्यवज्ञानी. अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे, मतिज्ञानी श्रुतिज्ञानी आपसमे तूल्य और विशेषाधिक. केवलज्ञानी अनंतगुण सज्ञानीविशेषाधिक सर्वस्तोक वि. अंगझानी, मतिअज्ञानी श्रुतिअज्ञानी आपसमे तुल्य अनंतगुण समुख्यअनानि विशेषाधिक। ... .ज्ञानपर्यषकि अल्पाबहुत्व सर्वस्तोक मनःपर्यष ज्ञानके पर्यव
अवविज्ञान के पर्यव अनंतगुणे. श्रुतिज्ञानके पर्यव अनन्त गुणे मतिजानके पर्यव अनंतगुणे, केवलज्ञानके पर्यव अनंतगुणे ॥ सर्वस्तोक विमंगवानके पर्यव. श्रुतिअज्ञानके पर्यव अनंतगुणे मतिज्ञानके पर्यव
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३८
अनंतगुणे | दोनो सामिल || सर्वस्तोक मनःपर्यष ज्ञानके पर्यव. विर्भगज्ञानके पर्यष अनंतगुणे, अवधिज्ञानके पर्यष अनंतगुणे, श्रुतिअज्ञानके पर्यष अनंतगुने, श्रुतिज्ञानके पर्यष अनंतगुणे. मति अज्ञानके पर्यव अनंतगुणे. मतिज्ञानके पर्यव अनंतगुणे. केवल ज्ञानके पर्यव अनंतगुणे ॥ इतिशम् ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् .
इति श्री शीघ्रबोध भाग ६ ठा समाप्तम्
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प ने.
अथश्री शीघ्रबोध भाग ७ वां.
थोकडा नम्बर ६६ इस थोकडे में जीवों के प्रश्न लिखे जाते है जीसकों पढनेसे तर्कशक्ति बहुत बढ जाति है अनेक आगमोंका सूक्ष्मज्ञान कि भी प्राप्ती होती है स्यावाद रहस्यका भी ज्ञान हो जाता है और संसार समुद्रमें अनेक प्रकारकि आपतियोंसे सहज ही से मुक्त हो नाता है बुद्धिबल इतना तो जोरदार हो जाता है कि इस थोकडेकों उपयोग पूर्वक कण्ठस्थ करलेने के बाद कैसा ही प्रश्न क्यों न हो यह फोरन् ही समझमे आजायगा ओर स्यावादसे उस्का उत्तर भी वह ठीक तोरसे दे सकेगा वास्ते आप इस थोकडेको कण्ठस्थ कर अनुभव रसका आन्नद लिजिये । शम्
१९८
जीवोंके भेद.
कोनसे कोनसे स्थानपर मिलते हैं | उनोंके नाम कि मार्गणा
निचे मुजब है.
| नरकके १४
भेद.
तीर्यचके ४८
भेद.
भेद.
० ०० मनुष्यके३
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अधोलोकके केवलीमें निश्चय एकावतारीमें | तेजोलेशी एकेन्द्रियमें
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४ | पृथ्वीकायमें
मिश्रदृष्टि तिर्यंचमें उर्ध्वलोककि देवीमें नरकके पर्याप्तामें दोयोगवाले तीर्यचमें
उर्ध्वलोक नोगर्भज तेजोलेशीमें १० एकान्त सम्यगद्रष्टिमें | वचनयोगी चक्षुइन्द्रियतीर्यचमें
अधोलोकके गर्भजमें १३ | वचनयोग तीर्यचमें १४ | अधोलोक वचनयोगी औदारीकश० १५/ केवलीमें
उर्ध्वलोक पांचेन्द्रियतेजोलेशीमें
सम्यग्द्रष्टि घ्राणेन्द्रियतीपैचमें १८ सम्यग्द्रष्टि तीर्यचमें
उर्ध्वलोकके तेजोलेशीमें २० मिश्रदृष्टिगर्भजमें २१ औदारीकसे वैक्रियकरनेवालोमें
एकेन्द्रियजीवोमें २३ | अधोलोकके मिश्रदृष्टिमें
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२४ | नाणेन्द्रिय तीर्यचमें २५ | अधोकवचन योगीदेवोंमें
त्रसतीर्यचमें
शुक्ललेशी मिश्रदृष्टिमें २८ | तीर्यच एक संहननवालोंमें
अधोलोक त्रस औदारीकमें | एकान्तमिथ्यात्वी तीर्येचमें | अधोलोक पुरुषवेद भाषकमें पद्मलेशीमिश्र दृष्टिमें
पद्मलेशी वचन योगीमें ३४ | उर्ध्वलोकके एकान्तमिथ्यात्वीमें
| अवधिदर्शन औदारीक श० में
उर्ध्वलोकं एकान्त नपुंसकमें ३७ | अधोलोक पांचेन्द्रिय नपुंसकमें ३८ अधोलोकके मनयोगीमें
अधोलोक एकान्त असंज्ञीमें "४० | प्रौदारीक शुक्ललेशीमें ४१ शुक्ललेशी सम्यग्द्रष्टि श्रभाषक ४२ शुक्ललेशी वचनयोगीमें ४३ | उर्ध्वलोकके मनयोगीमें
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४४ | शुक्ललेशी देवताभोमें ४५ | कर्मभूमि मनुष्योंमें
अधोलोकके वचन योगीमें ४७. उर्ध्वलोकके शुक्ललेशी अवधिज्ञान ४८ अधोलोक त्रसप्रभाषक
उर्ध्वलोक शुक्ललेशी अवधिदर्शन
ज्योतिषीयोंकि अगतिमें | अधोलोकके श्रौदारीकमें में
उर्ध्वलोक शुक्ल० सम्यग्द्रष्टिमें ५३ | अधोलोक एकान्त नपुंसक वेदमें
उर्ध्वलोक शुक्ललेशीमें अधोलोक बादर नपुंसकमें तीर्यग्लोक मिश्रदृष्टिमें अधोलोक पर्याप्तामें अधोलोक अपर्याप्तामें कृष्णलेशी मिश्रदृष्टिमें | अकर्मभूमिसंज्ञीमें
उर्ध्वलोक अनाहारीमें ६२ | अधोलोक एकान्त मिथ्यात्वीमें | ६३ | अधो. उर्ध्वलोकके देवामरमें
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। पालेशी सम्यग्दृष्टिमें
अधोलोग तेजोलेश्यामें ६६ | पद्मलेसीमें
मिश्रदृष्टि देवतोमें 15 बेजोलेशीमिश्रदृष्टिमें कुवलोक बादरसास्वतोमें
लोकके भभाषकमें ७१ अधोलोक अवधिदर्शनमें १२ / तीर्यग्लोकके देवताप्रोमें
अधोलोकके बादरमरणेवालोमें मिश्राष्टिनोगर्भजमें
मोकके अवधिज्ञानमें ७६ / उर्ध्वलोकके देवताओमें ४७ प्रधो० चक्षुइन्द्रियनोगर्भजमें
उर्ध्व नोगर्भज सम्यग्द्रष्टिमें उध्वंलोकके सास्वतोमें धातकिखंडका त्रसमें सम्याद्रष्टि देवतोंके पर्याप्तामें
शुक्ललेशी सम्यग्द्रष्टिमें ८३ | अधोलोक मरणेवालोमें
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१४
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८४ | शुक्ललेशी जीवोमें ८५ अधो० कृष्णलेशीत्रसमें
उर्ध्वलोकके पुरुषवेदमें | उर्ध्वलोक घाणेन्द्रियसम्यग्द्रष्टिमें उर्ध्व० सम्यग्द्रष्टिमें अधो० चक्षुइन्द्रियमें मनुष्य सम्यग्द्रष्टिमें अधोलोकके घ्राणेन्द्रियमें उर्ध्व त्रसमिथ्यात्वीमें अधोलोकके उसमें देवतामिथ्यात्वीपर्याप्तामें नोगर्भजाभाषक सम्यग्द्रष्टिमें उर्ध्वलोकके पांचेन्द्रियमें
अधो० कृष्णलेशीबादरमें १८/ धातकीखंडके प्रत्येक शरीरमें
वचनयोगीदेवताओमें १००/ उर्ध्व० प्र० शरीरीबादरमिथ्यात्वी ०३४
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थोकडा नंबर ७०
१.१/वचनयोगीमनुष्यमें ..
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१० अधोलोककेनोगर्नेजमें १०४ एकान्त मिथ्या० सास्वतोंमें
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१०६ मनयोगी गर्नेजमें १०७ अधोलोकके कृष्णलेशीमें १०5 प्रौदारीक श० सम्यग्द्रष्टिमें reso वैक्रिय० नोगर्नेजमें ११० मध्यलोक बादर. प्र० शरीरमें १११/ अधो० के प्रत्येक शरीरमें ११२/ उप्रलोकके मिथ्यात्वीमें १.१३ वचनयोगीघ्राणेन्द्रियौदारीकमें ११४ औदारी० वचनयोगीमें ११९/ अधोलोकमें ११६ मनुष्यापर्याप्ता मरनेवालोमें ११० क्रियावादीसमौसरण अमरमें ११८ उर्ध्वलोक प्रत्येक शरीरमें
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. ११६/ घाणेन्द्रिय मिश्रयोगसास्वतेमें | ७ | १२ | १९८५ १२०/ एकान्त असंज्ञी अपर्याप्तामें १२१ विभंगज्ञान मरनेवालोमें १२२. कृष्णलेशीवैक्रय० त्रिवेदमें १२३/ तीनशरीरीश्रौदारीक सास्वतोमें ०३७, ८६ . १२४ लवणसमुद्रके घाणेन्द्रियसास्वतोमें १२१/ लवणसमु० के तेजोलेशीमें १२६/ मरणेवाले गर्भज जीवोमें १२७ वैक्रयशरीर मरनेवालोमें १२८ देवीमें १२६ एकान्त असंज्ञी बादरमें १३०/ लवणसमु० त्रसमिश्रयोगीमें १३१) मनुष्य नपुंसकवेदमें १३२ सास्वता मिश्रयोगीमे १३३/ मनयोगी सम्यग्द्रष्टि असं. भववालोमै १३४ बादर औदारीक सास्वतोमें १३५ प्र० शरीरी एकान्त असंझीमें १३६/ तीनलेशी प्रौदारीशरीरमें १३७/ क्रियावादी असास्वतोंमें १२८ मनयोगी सम्यग्द्रष्टिमें ७/५/ ४५ ८१
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१३६] औदारीकनोर्गेभजमें १४० कृष्णलेशी अमरमें १४१ अवधिदर्शन मरनेवालोमें १४२ पांचेन्द्रिय सम्यक्० मरनेवालोमें १४३/ एकान्तनपुंसक बादरमें १४४ नोगर्भेज सास्वतांमें १३९ अपर्याप्ता सम्यग्द्रष्टिमे १४६ त्रसनोगर्भज एकान्तमिथ्या में १४७ लवणसमुद्रके प्रभाषकमें १४८ त्रिवेद वैक्रियशरीरमें ११४६/ संज्ञी एकान्तमिथ्यात्वीमें १५० तीर्यग्लोकके वचनयोगीमें १५१/ तीर्यग्लोग पांचेन्द्रियनपुंसकों .१५२ तीर्यग्लोगपांचेन्द्रियसास्वतोंमें १५३ एकान्त नपुंसक वेदमें १९४ तेजोलेशीवचनयोगी सम्यक् में १५९/ तीर्य प्र० शरीरीबादरपर्याप्तामें | . १९६, तीर्यक्वादर पर्याप्तामें १९७४ मनुष्य एकान्तमिथ्यात्वी अपर्याप्तामे १५८ नोगर्भज एकान्तमिथ्यावादर में | १ |२०|
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४८
१५६ | तीर्यक्० प्र० शरीरीपर्याप्तामें १६० ती० कृष्णलेशीसम्यग्द्रष्टिमें १६१ ती० के पर्यामामें
१६२ देवता सम्यग्द्र ष्टियों में
१६२ स्त्रिवेद अवधिदर्शनमें
१६४ प्र० शरीरीनोगर्भेज एकान्तमिथ्या ० १
१६५ पांचेन्द्रिय नपुंसकवेदमें
१६६ प्रभाषक मरनेवालो में
१६७ कृष्णलेशी घ्राणेन्द्रिय वचनयोगी
१६८ कृष्णलेशी वचनयोगीमें
१६६ ती० नोगर्भेजकृष्णलेशी त्रसमें १७० तेजोलेशीवचनयोगीमें १७१ नो० कृ० त्रसमरनेवालों में
१७२ कृष्णणलेशी त्रिवेद सम्यक् ० १७३ तेजोलेशी भाषकमें
१७४ नोगर्भेजकृष्णले० पर्याप्तामें १७५ प्रौदारीक शरीर च्यारलेशीमें १७६ लव० त्रस एकान्त मिथ्यात्वी में १७७ तीर्य० पांचेन्द्रियसम्यन्द्रष्टिमें १७८| तीर्य० चक्षुइन्द्रिय सम्यन्द्रष्टिमें
२२ | १०१ ३६ ० १८ ६० ६२
० २४ १०१ ३६
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१७६ | तीर्थ० समु० नपुंसक वेद में
१८० ती ० सम्यकद्रष्टि में
१८१ नोगर्भेज चक्षु० सम्यग्द्रष्टिमें
१८२ नो० प्राणेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि
१८३ नो० सम्यग्दृष्टिमें
१८४ मिश्रयोगी देवता वैक्रियमें
१८५ कृष्णलेशी सम्यग्द्रष्टिमें
१८६ निललेशी सम्यग्द्रष्टिमें
१८७ प्रभाषक मनुष्य एकसंस्थानी में
१८८ | विभंगज्ञानी देवताओोमें
१८६ तीयं ० नोगर्भेज समे
१६० लवणसमुद्रके चक्षुइन्द्रिय में
१६१| तीर्यक्० कृष्णलेशीनोगभंज में
घ्राणेन्द्रिय में
१६२ लवण ०
१६३ समुञ्चयनपुंसकमें
१९४ लवण ० त्रसजीवोंमें
१६५ सम्यग्द्रष्टि वैकियशरीर में
१६६ तेजोलेशी सम्यग्द्रष्टिमें
१६७ एकवेदीचक्षु इन्द्रियमें १६८ एकान्तमिथ्यास्वी प्रभाषकमें
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१० ६० ६६
१४ १२ १०१ ७० २२|११७ १८
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१९६| नोगर्भेजवैकयमिश्रयोगीमें २०० वचनयोगीतीनशरीरीमें
1
थोकडा नम्बर ७१.
५०
२०११ एकवेदी सजीवोमें
२०२ नोगर्भेज विभंगज्ञानी में २०३ | नो० वैक्रय मिथ्यात्वीमें
२०४ एकान्त मिथ्या ० तीनशरीरीमें २०५ एकान्त मिथ्या० मरनेवालो में
२०६ लवण समुद्रकं बादर में
२०७ मनयोगी मिथ्यात्वी में
२०८ घणा भववाले अवधिज्ञान में २०६६ समु० संख्यात कालके त्रसमरनेवाले
२१० एकान्तसंज्ञी मिश्रयोगी में
२११ तिर्यक्लोग के नोगर्भेजमें
२१२ मनयोगी जीवोमें
२१३ एकान्त मिथ्यात्वी मनुष्यमें
२१४ मिध्यात्वी वैकय मिश्रमें
२१५ श्रौदारीक तेजोलेशीमें २१६ लवणसमुद्र में
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०२६१५७ १८
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| १०/१०१/६६
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१
१८१०१
२१७/ वचनयोगी पांचेन्द्रियमें २१८ स वैक्रय मिश्र २१६/ वैक्रय मिश्र २२० वचनयोगीमें २२१/ अचरम बादर पर्याप्रामें २२२/ पांचेन्द्रिय सास्वतोंमें २२३/ वैक्रय मिथ्यात्वीमें २२४/ चक्षुइन्द्रिय सास्वतोंमें
१७१०१/ ९९ २२५/ प्र० शरीरी बादरपर्याप्ता २२६/ प्रौदारीक अपर्याप्तामें ०/ २४२०२ २२७/ नोगभेंज बादर अभाषकमें २२८/ त्रस सास्वतोंमें २२६/ प्र० शरीरी पर्याप्तामें २३० सौदारीक प्रभाषकमें २३१ पर्याप्ताजीवोमें २३२/ पांचेन्द्रि औदार्गमिश्रमें २३३/ वैक्रय शरीरमें २३४ प्रौदारीक मिश्रयोगी घाणेन्द्रियमें || १७२१७ २३५ प्रौदारीक मिश्रयोगी त्रसमें || १८२१० २३६/ मनुष्यकि आगतिके नोगभेंजमें । ६ ३०१०
१
२०१०१/
१
१
२२/१०१
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२३७ औदारीक पांचेन्द्रिय मग्नेवालोमें | ० २.०२१७ . २३८ प्र० शरीरी बादर सास्वतोंमें | ५३११०१ ९९ २३६/ सम्यग्द्रष्टि मिश्रयोगीमें १३| १८ ६०१४८ २४० सास्वते बादरमें
३३/१०१/ ९९ २४१ प्रः शरीरी नोगर्भेज मरनेवालोमें २४२ वादरौदारिक मिश्रयोगीमें __० २५२१७ .. २४३ औदारीक एकान्त मिथ्यात्वीमें २४४| तीनशरीरी नोगर्भेज मग्नेवालोमें २४५ समु० असंज्ञी त्रसमें २४६/ प्र. शरीरी सास्वतोंमें २४७ अवधिदर्शनमें
५ ३०/१६८ २४८ तीर्यक्० पांचेन्द्रिय अपर्याप्तामें १०२०२/ ३६ २४६/ तीर्यक्० चक्षुइन्द्रियपर्याप्तामें ११/२०२/ ३६ २५० भव्यसिद्धि सास्वतोंमें २५१/ तीर्यक्० बस अपर्याप्नामें २५२ औदारीक० प्रभाषकमें २५३ मिश्रयोगी मरनेवालोंमें २५४ त्रिवेद मिश्रयोग में २५६/ पांचेन्द्रिय एकान्तमिथ्यात्वीमें २५६/ चक्षुइन्द्रिय एकान्लमिथ्यात्वीमें । १ ६२१३/ ३६
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२५७ घ्राणेन्द्रिय एकान्तमिथ्यात्वीमें । १, २१३३६ २५८/ त्रस एकान्तमिथ्यात्वीमें २५६/ धर्म देवकि आगतिके घ्राणेन्द्रियमें | ५/ २४/१३१/ ९९ २६०/ पांचेन्द्रिय तीनशरीरी सम्यक्० में | १३/ १० ७५/१६२ २६१ कृष्णलेशी प्रसास्वतोंमें
१/२०२/ ५१ २६२/ पुरुषवेदी सम्यग्दृष्टिमें
१०/६०/१६२ २६३ प्र. शरीरी समुच्चय असंज्ञीमें १/३९/१७२/ ५१ २६४ तीर्यक्० कुष्णलेशी स्त्रिवेदमें
१०२०२ ५२ २६५ औदारीक शरीर मरनेवालोंमें ४८२१७ २६६/ पांचेन्द्रिय कृष्ण ० अनाहारीमें २६७ चक्षुइन्द्रिय कृष्ण० अनाहारीमें
एकदृष्टि त्रसकायमें २६९/ तीर्यक्० कृष्ण त्रस मरनेवालोंमें ___० २६२१७ २६ २७० बादर एकान्तमिथ्यात्वीमें १) २०२१३/ ३६
मनुष्यकि आगतिके मिथ्यात्वीमें ६, ४०१३१] ९४ मनुष्यकि आगतिके प्र० शरीरीमें
निललेशी एकान्तमिथ्यात्वीमें __० ३०२१३) ३० २७४/ कृष्णलेशी एकान्तमिथ्यात्वीमें । १ ३०२१३३०
क्रियावादी समौसरणमें १३/ १०/ ९०१६२ २७६/ मनुष्यकि आगतिमें
२६८
२७॥
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२७७ च्यार लेशीयावालोंमें 0/३/१७२१०२ २७८ तीर्यक्० बादर अभाषकमें ०२५२१७३६ २७६/ चक्षुइन्द्रिय सम्यक् घणेभक्वालोमें १३ | २८०/ पांचेन्द्रिय सम्यकदृष्टिमें २८१ चतुइन्द्रिय सम्यग्दृष्टिमें २८२ घ्राणेन्द्रिय सम्यग्दृष्टिमें २८३/ त्रसकाय सम्यग्दृष्टिमें २८४/ तीर्यक्लोगके पुरुषवेदमें २८५/ चक्षुइन्द्रिय एक संस्थान प्रौदारीकमें . २८६ घाणेन्द्रिय एक संस्थान श्रौदागकमें ० | १३ २८७ तीर्यक्० तेजोलेशीमें २८८ तीन शरीरी मनुष्यों २८९ बस एक संस्थान प्रौदारीको २६०/ एक दृष्टिवाले जीवोमें २६१/ तीर्यक्० कृष्णालेशी मरनेवालोमें २६२/ ज० अन्न० उ० दो सागगे. एक
संस्थान मरने०| २ |३८१८५ २६३/ चक्षुइन्द्रिय कृष्णालेशी मग्नेवालोमें ३ | २२ २१७/५१ २६४/ नोगर्भनकि श्रागतिके कृष्ण त्रसमें 0/२६ २१७ २९५ घाणेन्द्रिय कृष्णा० मग्नेवालोमें । ३ २४ २१७५१
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२९६| एकान्त संज्ञीमें
२९७ स कृष्णलेशी मरनेवालो में
७
२९८ पांचेन्द्रि पर्याप्ता एक संस्थानी में २९९ चक्षुन्द्रि पर्याप्ता एक संस्थानी में ७ ३०० स्त्रिवेद एक संस्थानी में
३०१ | एक संस्थानी दारीक बादरमें ३०२ घ्राणेन्द्रियेक संस्थानी चर्म मरने ०
३०३ मनुष्यमें
३०४ नोगर्भेज पांचेन्द्रिय मिश्रयोगी ३०५ सम्य० श्रागति कृष्ण ० बादर में ३०६ तीर्यकु प्राणेन्द्रिय मिश्र योगीमें
३०७ तीर्य त्रस मिश्रयोगीमें
थोकडा नम्बर ७२.
३०८ सास्वता मिथ्यात्वीमें
३०९ सम्य० श्रागति एक संस्थानी त्रसमें ३१० प्रौदारीक तीनशरीरी एकसंस्थानी में
१३
३ २६ ११७.५१
150 ee
९९
६ १८७९९
३११ प्रौदारीक एक संस्थानी में
३१२ नोगजक प्रगति कृष्ण ०
०
०
०
२८ २७३
७ १४ १८७९४
०
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०
७
७
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०३०३
१४
५ १०१ १८४
३ ३४ २१७ ५१
१७ २१७ ७३
० १८ २१७ ७२
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| १७२ १२८
०
५२०२९४
१६ १८७९९
३७ २७३ |
० ३८ २७३
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०
०
तीन
शरीरी ० ४३ २१७.५२
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________________
०
०
०
६
३१३/ प्रसास्वतोमें
A२०२६६ ३१४| कृष्णलेशी स्त्रीवेदमें ३१५ प्र० तीन शरीरी कृष्ण० मरनेवालोमे ३ ३१६ त्रसानाहारी अचर्ममें
२०२९४ ३१७ नोगर्भेज घ्राणेन्द्रिय मिथ्या में ३१८ श्रोतेन्द्रिय अपर्याप्तामें
२०२/ ९९ ३१६ कृष्णलेशी मरनेवालोमें
४८ २१७ ३२० तीन शरीरी स्त्रीवेदमें
१८७१२८ ३२१/ उस अपर्याप्तामें
|१३ २०२९९ ३२२, बादरानाहारी अचर्ममें ३२३| नोग:ज पांचेन्द्रियमें
१० १०११६८ ३२४ तीन शरीरी त्रस मिथ्या० मरे २१ २०२/९४ ३२६/ औदारीक चक्षुइन्द्रियमें ३२६ मिथ्या० एक संस्थानी मरनेवालोमें ३२५ नोगर्भेज घ्राणेन्द्रियमें ३२८/ बादर अभाषक अचममें ३२६ औदारीक त्रसमे ३३० औदारीक एकान्त भवधारणी देह .. ३३१/ नोगर्भज बादर मिथ्या० में १४ | ३३२/ त्रस एकान्त संख्याकालकिस्थिनि
. वालोमें | २४ २०२ ६६
८
०
०
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________________
३० बइन्द्रिय ए० सं० स्थि०में । ७२०२०७ ९९ ३३४ तीर्यक्० अधोलोककि स्त्रिों | ० १०२०२/१२२ ३३६/ घाणेन्द्रिय ए० सं० स्थि० में
! ७२२२०७ ९९ ३३६ कारमाम त्रसमें ___७ १३२१७/६८ ३३० नोगमेज प्र० शरीरी प्रचर्ममें ३३८ प्रभाषक प्रचर्ममें | ७ ३९२०२ ९४ que तीर्य के मरनेवालोमें | ०४८/२१७७४ ३१०/ नोगल बादर तीनशरीरीमें १४/ २७१०१११८ ३४१) प्रौदारीक बादरमें
प्रागेन्द्रिय मिथ्या० मरनेवालों में
मोमेश्यावाले जीवोंमें ३४॥ स मम्वा० मरनेवालोंमें २६२१५६४ ३४१/ तीनशरीरी मिथ्या० मरने० में | v४२२०२ ६४ ३४६, प्र० शरीरी ज० अन्तरमुहूर्त उ०१६
सागरोपमकि स्थितिके मग्नेवालोंमें | । ५ ४४२१७ ८० ३४७ मनाहारीक जीवोंमें
५२४२१७ ३४ बादर प्रभाषकमें
४२१२१७ ६६ ) जस मरनेवालोंमें ३५०/ गोगर्भेज तीनशरीरीमें १४ ३७१०१/१६८ १५ प्रौदारीक शरीरमें
१ २४२१७ ९४
..
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________________
० 9 9 9 .० ००
३५२ ज० अन्त० ३०१७ सा० मरने में ६ ४६२११८१ ३५३/ नोगर्भजकि गतिके त्रस तीनशरीरीमें २ २१२२८/१०२ ३९४| मिथ्य० एकान्तसंख्या० स्थितिमें | ३५५/ तीर्यक् लो० पांचेन्द्रिय एकसंस्थानिमें | १०/२७३/ ७२ ३५६, बादर मिथ्या० मरनेवालोंमें ... ७ ३८२१७ ३९७ सम्या० श्रागतिक बादरमें ७ ३४२१७ ३५८ अभावक जीवोमें ३५९/ तीर्य० नाणेन्द्रिय एकसंस्थानी १४२७३ ३६०/ उर्ध्व तीय० पुरुषवेदमें ३६२ तीर्य० त्रस एकसंस्थानीमें ३६२ प्र. शरीरी मिथ्या० मरनेवालोंमें ३६३/ सम्य० श्रागतिमें ३६४ नोग जकि गतिक बादर तीनश० में २/ ३२२२८/१०२ ३६५ ज० अन्त०२९ सा० स्थि० मर में : ४८२१७ ६३ ३६६ मिथ्या० मरनेवालोंमें ७४८२१७६१ ३६७/ प्र. शरीरी मरनेवालोंमें ७४४२१७ ३६८ पुरुष एकसंस्था० घणाभववालोंमें | | ०१७२१९ ३६६/ अधो० तीर्य चक्षु० मिश्रयोगी | १४ १६२१७१२ ३७०/ कृष्णले० संख्य० स्थितिवालों में ३७१/ समुच्चय मग्नेवालों में
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________________
१७२/ तीर्य० कृष्ण तीन शरीरी बादर० ० ३२२८८ ५२ ३७३/ तीर्य० बादर एक संस्थांनीमें ० २८२७३/ ७२ २०४० सी० बादरकृष्ण एकान्त.... . भवधारणी देह | ३ ३२२८८ ५१ ३७ तीर्य पांचेन्द्रिय कृष्णलेशी | | २०३०३ ५२ ३७६ एक संस्थानी मिश्रयोगी पांचेन्द्रिय TER
अनेरीयामें | ० १९८७१८४ ३७ तीर्यः चक्षु० कृष्णलेशीमें २२३०३ ५२ ७८ भुजपुरकि गतिके पांचे तीन शरीरी ४१०२०२१६२
तीर्य, घ्राणेन्द्रिय कृष्णलेशीमें | ०२४३०३/ ५२ पुष तीन शरीरी अचर्ममें
५१८७१८८ २८/तीय त्रस कृष्णलेशीमें
२६३०३ ५२ २८२ तीर्यः तीन शरीर कृष्णलेशीमें ०४२२८८५२ ३८३ तीर्य एक संस्थानी में ३८४संझी एक संस्थानीमें
१४/०१७२/१६८ १८६ नोगभ॑जकि गतिका बादरमें २ ३८/२४३/१०२ ६६ उर्ध्व तीर्य एकान्त भवधारणी
देह पांचेन्द्रियश्रचर्म २०२८८ ७८ २८७ उर्ध्व तीर्यके त्रस मिथ्या० एकान्त
.. . भवधारणी देहमें | ० २१२८८ ७८
.
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________________
..
|
१८७१९८
. .m..
.
| १४| ५१८७/१८८
३८८ अधो० तीर्य. एकान्त भवधारणी । । ।
. देह बादरमें | ७ ३२२८८६१ ३८६/ संज्ञी अभव्य तीन शरी० अतीर्यचमें १४ ०५८७१८८ ३९० पुरुषवेद तीन शरीरीमें ३९१ पांचेन्द्रिय कृष्ण • एक संस्थानीमें | १०२७३१०२ ३९२/ तीर्य० बादर तीन शरीरीमें ३२२८८ ७२ ३९३, तीर्य० बादर कृष्णलेशीमें ३९४/ संज्ञी अभव्य तीन शरीरीमें ३९५ तीर्य० पांचेन्द्रियमें ३९६ उर्ध्व० तीर्य० एकान्त भवधारणी
देह पांचेन्द्रिय
०/ २०२८८ ३९७ तीर्यः चक्षुइन्द्रियमें
२२३०३ ७२ ३९८ अधो० तीर्य० ए० भवधारणी देह ७ ४२२८८६१ ३९९/ तीर्य० घाणेन्द्रियमें ०२४३०३ ४००/ अभन्य पुरुषवेदमें
०१.२०२१८८ थोकडा नम्बर ७३. ४०१) तीर्य० त्रस जीवोंमें
० २६३०३ ७२ ४०२ तीर्य० तीन शरीरीमें
० ४२२८८ ७२ ४०३ तीर्य० कृष्णलेशीमें ___० ४८३०३ ५२ ४०४ समु० संज्ञी असं० भववाले
अतीर्यचमें | १४| ०२०२१८६
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________________
६१
४०५) उम्पुरकी गतिका चक्षु० मिश्र योगी | १० | १६ | २१७/१६२
४०६ उरपुरकि गतिका घ्राणेन्द्रिय
मिश्रयोगी में
-४०७ बा० प्र० कृष्ण ० एक संस्थानी मे ४०८ ती एकान्त छदमस्थमें
४०६ बादरकृष्ण० एक संस्थानिमें पुरु
तीर्थ प्र० शरीरी बादरमें
४१२ त्रिकि गतिके संज्ञी मिथ्या० में
११३ प्रशस्त लेश्यामे
४४. संधी मिध्यात्वीमें
४१५ प्र० शरीरी कृष्ण ० एक संस्था ० ४१६ अप्रशस्तलेशी तीन शरीरी बादर एक संस्थानी में ४१७ स्त्रीकि गति कृष्ण ० एकसंस्थानी ४१८ प्र० बादर एकसंस्थान एकान्त भव धारणीदेह
४१६ कृष्णलेश्या एक संस्थानी में
४२० मिश्र योगीबादर एकान्त संयम में ४२१ स्त्रकि गति प्रशस्तलेशी प्र०
१०
६
१७ २१७ १६२
२६ २७३ १०२
४८२८८७२
६ २८ २७३ १०२
० १० २०२ १९८
० ३६ ३०३ ७२
१२
१० २०२ १८८
१३ २०२१६८
१० २०२ १८८
३४ २७३ १०२
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०
१४
६
१४
४
७
६
१४
२७२७३ १०२
३८ २७३ १०२
२५ २७३ ११३
३८ २७३ १०२
२० २०२ १८४
शरीर एक संस्थानिमें |१२| ३४/२७३ | १०२
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________________
૨
४२२ | स्त्रिकि गतिके संज्ञीमें
४२३ प्र० शरीरी मिश्र योगी एकान्त
श्रसंयम में
४२४ समुचयसंज्ञी में
४२५ मिश्रयोगि एकान्त प्रपञ्चरकाणी में
४२६ | कृष्णलेशी बादर प्र० तीन शरीरीमें ४२७
प्रशस्तलेशी एक संस्थानी में
४२८ कृष्ण वादर तीन शरीरीमें
४२६ | कृष्ण बा० एकान्त संयममें ४३० स्त्रि० गतिके त्रस मिश्र० घा
भववालो मे
४३१ स्त्रि० गतिके त्रस मि० में
४३२ समिश्रयोगि संख्या ० भववालो मे
४३३ त्रसमिश्र योगिमें
४३४ कृ० प्र० तीन शरीरीमें
४३५ मिश्रयोगी बादर मिथ्या ० में
४३६ बादर तीन शरीरी प्रशस्तलेशी
४३७ बाद ० एकान्त अपच ० प्रशस्तलेशी
४३८ कृष्ण० तीन शरीरी
४३९ | कृ० एकान्त अपचक्खाणी में
१२.१०/२०२/१९८
१४
१४
१४
६
१४
६
६
२३ २०२ १८४
२० २०२ १९८
२५ २०२ १८४
३० २८८ १०२
३८ २७३ १०२
३२ २८८ १०२
३३ २८८ १०२
१२
१२
१४
१४
६) ३८२८८|१०२
१४
२५ २१७ १७९
१८ २१७ १८३
१८ २१७ १८४
१८ २१७ १८३
१८२१७ १८४
१४
१४
६
६ ४३ २८८/१०६
१२ २८८ १०१
३३ २८८ १०२
४२/२८८ १९८४
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________________
S
ain. ''
४४० मिनयोग बादरमें | १४ २५२१७१८४ ४४१| अधो. तीर्यक्०के चक्षु तीन शरी०| १४| १७२८८१२२ ४४२ प्र० तीन शरीरी अप्रशस्तलेशी | १४ ३८२८८१०२ ४४३ प्र० मिश्रयोगी
|१४| २८/२१७/१८४ १४४ प्र० एकान्त भवधारणी देह घणा
___ भववालोमें | ७ ३८२८८१११ ४४६ अधो. तीर्य. तीन शरीरी त्रस
मिश्रयोगमें | १४ २१२८८१२२ ४४६/अप्रशस्त लेश्या तीन शरीरीमें । १४, ४२२८८/१०२ ४४७ एकान्त असंयम अप्रशस्तलेशी १४ ४३/२८८१०२
एकान्त भवधारणी देह घणा
. भववालोमें | ७४२२८८१११ ४४६/लि गतिके एकान्त भव० देह | ६४२२८८११३ ४५० भवसिद्धि एकान्त भव० देह ५४२/२८८११३ ४५१ उरपुरकि गति कृष्ण प्र० तीन
शरीरमें | २४४३०३/१०२ ४५२ भुजपुरकि गति, अधो० तीर्यः
प्र० तीन शरीरी ४ ३८२८८१२२ सि० गति कृ० प्र० शरीरी ४४४३०३/१०२ ४५४. उर्व तीर्यः एकान्त छद० . *
पांचे० घणा भवमें | ० २०२८८१४६
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________________
६४
४५७
चक्षु० में
४५५/ कृष्ण प्र. शरीरमें ४५६/ अधो० तीर्य० तीनशरीरीबादर १४ ३२२८८ १२२
अप्रशस्तलेशी बादरमें १४ ३८३०३/१०२ ४५८/ उर्ध्व तीर्य० एकान्त छन ।
- રરરર ૮ ४५६/ उर्ध्व० तीय० के एकसंस्थानीमें __० ३८१२७३/१४८ ४६०/ उर्ध्व तीर्य० एकान्त छद०
घ्राणेइन्द्रियमें २४२८८१४८ ४६१अधो० तीर्य के चक्षुइन्द्रियमें | १४) २२३ ०३/१२२ ४६२/ अधो० तीर्य० बादर एकान्त
छद में ] १४ ३८२८८१२२ ४६३/ अधो० तीय० घाणेन्द्रियमे १४ २४३०३/१२२ ४६४ स्त्रि० गतिके अधो० तीर्य०
तीन शरीगेमें १२ ४२२८८१२२ ४६५/ अ. तीर्य के त्रसमे । १४/ २६/३०३/१२२ ४६६/ अधो० तीर्य के तीन शरीरीमे | १४ ४२२८८/१२२ ४६७ अप्रशस्तलेश्यामें ४६८/ उर्ध्व तीर्य० तीन शरीरीबादरमे 0 ३२२८८१४८ ४६६/ उर्ध्व तीर्य० एकान्त असंयम
बादरमें 0| ३३२८८१४८ ४७०/ अघो० तीय० एकान्त छद०
त्रि० गतिमे | १२| ४८२८८१२२
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________________
१५
४७१ | उर्ध्व० तिर्य० के पांचेद्रियमें ४७२ प्रधो० तिर्य० एकान्त छद्मस्थमें
४७३ उर्ध्व ० तिर्य० के चक्षुइन्द्रियमें ४७४ उर्ध्व ० तिर्य० के एकान्तद्म० बादरमें
४७५ उ० तीर्थ० भागोन्द्रियमें
उर्ध्व० तीर्य • तीन शरीरी घणा
भववालो में
४७७ ० तीर्य त्रसमें
४७८ उर्ध्व० तीर्य ० तीन शरीरीमें
उर्ध्व तीर्य • एकान्त संयममें
एकान्त छद्म० प्र०
शरीरी में
४८१ खि० गतिके प्रधो० तीर्य० प्र०
""
४८२ उर्ध्व ० तीर्य ० एकान्त झ०
० | २०/३०३/१४८
१४
४८२८८|१२२
२२ ३०३१४८
घणा भववालो में
४८३ अधो० तीर्य० प्र० शरीरीमें १८४ उर्ध्व० तीर्य ० एकान्त बुझ० में स्त्रि गतिके धो० तीर्य० में ४८६ मुजपुरकि गतिके तीन शरीरी बादरमें
०
३८|२८८१४८
० २४ ३०३ १४८
0
०
०
शरीरी में १२ ४४ ३०३ १२२
०
१४
४२२८८१४६
२६ ३०३ १४८
४२२८८१४८
४३२८८|१४८
०
४४२८८ १४८
४८|२८८१४६
४४ ३०३ १२२
४८२८८१४८
१२ ४८३०३ १२२
४१२२८८ १६२
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________________
४८७ अधो० तीर्य० लोकमें | १४ ४८/३०३/१२२ ४८८ खेचरकि गतिके तीन शरीरी बादरमे ६३२२८८/१६२ ४८९/ उर्ध्व तीय० के बादरमें
३८३०३१४८ ४९० चोपदाक गतिके तीन श० बादमें | ८३२२८८/१६२ ४६१/ खेचरकि गनिके पांचेन्द्रियमें २०/३०३/१६२ ४९२ उरपुरकि भतिके नीन श० बादरमें | १०| ३२२८८/१६२ ४९३/ उर्ध्व तीर्य० प्र० शरीरी घणा
भववालोमे ०४४३०३१४६ ४९४/ खेचरकि गतिके प्र० तीन शरीरमें ६ ३८२८८१६२ ४६६/ उर्ध्व तीर्य० के प्र० शगरीमें __० ४४३०३१४८ ४६६/ भुजपुरकि गतिके तीन शरीगमें ४९७ खेचरकि गतिक त्रसमें ६ २६३०३/१६२ ४६८ खेचरकि गतिक तीन शरीग्में
६ ४२२८८१६२ ४६६/ उर्ध्व तीर्य० में ५००/ चोपदकि गतिके तीन शरीरमें | ८४२२८८१६२
थोकडा नम्बर ७४. ५०१/ त्रस एक संस्थानीमें १४, १६२७३१६६ ५०२ उरपुरकि गतिके तीन शरीरमें ५०३ तिर्यचकि गतिके घाणेन्द्रियमें । १४. २४३०३ १६२
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________________
VERSIL
५.०४ खेचरकि गतिके एकान्त छद० । ६ ४८र८८/१६२
तीर्यचकि गतिके त्रसमें १४ २६३०३१६२ ५०६, संझी तीर्यचकि गतिके तीनशरीरमें | १४| ४२२८८/१६२ ५०० अन्तरद्विपके पर्याप्ताके अलद्धियोंमें १४ ४८२४७१६८ ५०६ उरपुरकि गतिके एकान्त सकषायमें १० ४८२८८१.६२ to चोपदकि गतिके प्र० शरीरी बादरमें ८ ३६/३०३/१६२
पणि गतिके एकान्त संयोगिमें १२ ४८२८८/१६२ स मयीन प्र० शरीरी बादरमें | १४| २६२७२/१९८ ५१२ तीर्यचकि गतिके एकान्त संयोगिमें | १४ ४८२८८/१६२
एक संस्थानी मिथ्यात्वीमें | १४| ३८२७३/१८८ मध्य जीवोंके स्पर्शनेवाले एकान्त
छद० चतु० | १४) २२२८८ १६० ५१५ तीर्यचणि गतिके बादरमें १२/ ३८३०३/१६२ ५१६/ म. जीवोंके भेद स्प० एकान्त
| छद० घाणेन्द्रि० | १४ २४२८८/१९० ५१०नि० गति एक संस्थानि प्र० ।
शरीरीमें | १२ ३४२४३१९८ से पांचेन्द्रियमें एकान्त छद० घणेभव० १४ २०२८८१९६ १६ चाइन्द्रिय एकान्त असंयममें । १४, १७२८८/१९८
पांचेन्द्रिय एकान्त सकषायमें । १४२०२८८१९८
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________________
५२१/ एकसंस्थानी घणा भववालोमें १४/ ३८२७३/१९६ ५२२ एकान्त सकषाय चक्षु० १४ २२२८०/१९८ ५२३/ एकसंस्थानीमें
१४ ३८२७३/१९८ ५२४) एकान्त सकषाय घाणे० में १४ २४२८८/१९८ ५२१/ पांचेन्द्रिय मिथ्यात्वीमें १४ २०३०३/१८८ ५२६/ एकान्त सकषाय त्रसमें १४ २६२८८१९८ १२५ तीर्यचकि गतिमें
१४ ४८३०३/१६२ ५२६ एकान्त छद० बा० मिथ्या० १४ ३८२८८१८८ ५ २६/ त्रि गतिके त्रस मिथ्या० | १२/ २६/३०३/१८८ ५३०/ तीनशरीरी प्र० घणा भववालोमें | १४| ३८२८८१९६ ५३१/ स्त्रि. गति पांचे० संख्या भव० १२ २०३०३१९६ ५३२/ तीनशरीरी बादरमें १४ ३२२८८१९८ एकान्त असंयम बादरमें
३३/२८८१६८ ५३४/ एकान्त छद० अभव्य प्र० शरीरी | ५३६/ पाचेन्द्रिय जीवोमें
१४ २०३०३/१६८ स्त्रि० गतिके बा० एकान्त सकषाय० १२ ३८/२८.१६८
खि० गतिके घ्राणेन्द्रियमें १२ २४३०३,१६८. ५३८ एकान्त छद० बादरमें
१४ ३८/२८८१६८ ५३९ घाणेन्द्रियमें ५४०/ नि. गतिके तीनशरीरीमें | १२ ४२२८८१६८
१३
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________________
.
१४१ स जीवोमें
१४१ २६/३०३/१९८ ५१२/ तीन शरीरी एकान्त छन. १४ ४२२८८/१९८ ५४३, एकान्त असंयममें १४ ४३२८८/१९८ ५४४ प्र० श० एकान्त छा० ५४५ सम्य० तीर्यचके अलद्धियामें १४६ एकान्त छा० घणे भववालोमें | १४, ४८२८८/१६६ लि. गतिके प्र० स० मिथ्या० । | १२/ ४४३०३१८८
१४| ४८२८८/१९८ .५४६/ मिथ्या०प्र० शरीरीमें १४| ४४३०३१८८ १५० सम्य० नारकिके अलद्धिया १ ४८३०३/१६८
वि० गतिके मिथ्या० में . ५५३ एकेन्द्रिय पर्याप्तके अलद्धिया | १४| ३७३०३/१६८ ५५३, मिथ्यात्वीमें
। १४ ४८३०३/१८८ ५५४/ नौ ग्रीवैगके पर्याप्तके अलद्धिया ५५५ जीवोंके मध्यभेद स्पर्शनेवालोमें | १४ ४६३ ०३/१६० ५९६/ नरक पर्याप्ताके अलद्धियोंमें १९७ नि० गतिके प्र० शरीरीमें १२ ४४३०३/१९८ NG सीयेच पांचेन्द्रिय वैक्रयके अल० | १४ ४३/३०३/१६८ ५५६ प्रत्येक शरीरीमें
१४ ४४३०३१६८ | तेजोलेशी एकेन्द्रियके अल० । १४ ४५३०३/१९..
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________________
५६१ घणे भववाले जीवोमें
| १४|४८३०३१६६ १६२ एकेन्द्रिय वैक्रयश० अलद्धिया | १४|४७३०३१६८ ५६३/ सब संसारी जीवोमें | કટોર રૂ૮
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सञ्चम्
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________________
थोकडा नम्बर ७६.
कोनसे कोनसे बोलोंमें कीतने कीतने जीवोंके भेद मीलते है वह अन्तिम कोष्टमें समुच्चय जीवों के भेद के अंक रखे गये है बाद क्रमशः च्यारों कोष्टमे नरक, तीर्यच, मनुष्य, देवताओं के अलग अलग जीवों के भेद रखे गये है इस योकडे कों कण्ठस्थ करनेवालोंको शात्रों का बाध और तर्कबुद्धि सहज में प्राप्त हो सकेगा.
कि
कोनसी मार्गणा कीतने जीवोंके भेद मीलते है उस मार्गणाका
नाम.
नरकके १४
भेद.
३०३ भेद.
___९८ भेद.
१ समुच्चय जीवोंमें जीवोंके भेद २ नरकगतिमें
तीर्यचगतिमें ४ मनुष्यगतिमें
देवगतिमें ६ तीर्थचणीमें ७ मनुष्यणीमें
देवीमें
सइन्द्रियजीवोमें 10 एकेन्द्रियजीवोमें । बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरिद्रियमें | • शरा२ . ०२ १२ पांचेन्द्रिय जीवोमें
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________________
.
.
. . . . .
.....
१३ अनेंद्रिय (केवली) १४ श्रोत्रंद्रिय जीवोमें १५/ चक्षुइन्द्रियमें १६ घाणेन्द्रिय १७/ रसेन्द्रियमें १८ स्पर्शेन्द्रियमें १९ श्रोत्रेन्द्रियका अलद्धियामें २० चक्षुइन्द्रियका अलद्धियामें २१ घाणेन्द्रियका अलद्धियामें २२ रसेन्द्रियका अलखियामें २३. स्पर्शन्द्रियका अलखियामें २५ सकायजीवोंमें २५/ पृथ्वी, अप, तेउ, वायुकायमें .२६ वनस्पतिकायमें २७ सकायमे २८ सयोगि--काययोगिमें २९ मनयोगिमें ३० वचनयोगिमें ३१ औदारीककाययोग ३२ औदारीकमिश्रकाययोग १३ वक्रयकाययोग ३४ वैक्रयमिश्रकाययोग ३५ आहारीककाययोग ३६ आहारीकमिश्रकाययोग
. .
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. ०
..
०
..
. ०
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०
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३७ कारमणकाययोग ३८ अयोगिमे ११ सवेदीजीवोमें ४० विवेषालोमें र पुरुषधेदवालोमें २ नपुंसकवेदवालोमें
अवेदीजीवोमें " एकदवालेजीवोमें
दोवेवालेजीवोमें n/तीमधेदवालेजीवोमें सकपायि, क्रोध, मान माया
लोममें १४४८३०३ १९८ १८ अकवायिमे १९ सलेशीजीवोंमें ५० कृष्णनिलकापोतलेशीमें ५१ तेजसलेशीमें १२ पालेशीमें ५३ शुक्ललेशीमें ५॥ एकलेश्यावालेजीवोमें १५ दोलेश्याषालेजीयोमे १६ तीनलेश्यावालोमें ५७ च्यारलेश्यावालोमें ५८ पांचलेश्यावालोमें ५९ लेश्यावालोमें
| ३०/ .
.
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०
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०
०
०
०
०
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६०/ एकलीकृष्णलेश्याम ६१ पकलीनिललेश्याम ६२ एकलीकापतिलेश्यामें ६३ एकली तेजसलेश्याम ६४ एकली पनलेश्याम ६५/ एकली शुक्ललेश्यामें ६६/ अलेशी जीवोमें ६७ सम्यक्त्वदृष्टिमें ६८ मिथ्यादृष्टिमें ६९/ मिश्रदृष्टिमें ७०. एकद्दष्टिवाले जीवोंमे ७१/ दोयदृष्टिवाले जीवोमें ७२ तीनदृष्टिवाले जीवोमें ७३/ सास्वादन सम्यक्त्वमें
क्षोपशम सम्यक्त्वमें ७५/ भायक सम्यक्त्वमे ७६. उपशम सम्यक्त्वमे ७७ वैदीक सम्यक्त्वमे ७८ चक्षुदर्शनमें ७९ अवक्षुदर्शनमें ८० अवधिदर्शनमें ८१ केवलदर्शनमें ८२ समुच्चयज्ञानी मतिश्रुतिज्ञानीमें | १३/१८ ८३ अवधिज्ञानीमें
१४
२२
९० १२६२ २८३
३. १६२ २१०
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6 6 6 6
८४ मनपर्यवज्ञान केवल ज्ञानमें । ० ० | १५ ८५ समु० अज्ञान मति० श्रुतिअज्ञान | १४ | ८६ विभंग ज्ञानमें ८७ संयति० सा० सू० यथा.
छेदोपस्थाः परि० ९ असंयतिमें ९० संयतासंयतिमें ९५ साकारमनाकारोपयोममें
आहारीको ও গলাৱাৰী ९४ भाषकमें এ অমান্ধর্ষ ९६/ परतमें अपरतमें ९७ ओपरत नो अपरतमें १० पर्याप्ता जीवोंमे १९/ अपर्याप्तामें १०० नोपर्याप्ता नोअपर्याप्ता १० सूक्ष्म जीवोमें १०२ बादर जीवोमें १०३, नोसूक्ष्म नोबादर १०४ संझी जीवोमें १०५/ असंही जीवोमें १०६ नोसझी मोअसंही १०७ भव्य जीवोमें
| १४ | ४८ ३०३ १९८
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१०८ अभव्यजीवोमें १०९ नोभव्य नो अभव्यमें ११० चरमजीवोमें १११/ अचरमजीवों में १९२ गर्भज जीवोंमें १९३/ नोगर्भज जीवोंमे १९४/ भरतक्षेत्रके जीवोंमे ११५/ महा विदेहक्षेत्रमें ११६, जंबुद्विपक्षेत्रमें ११७ लवणसमुद्रमें ११८ धातकी खंडमें ११९ पुष्कराई द्विपमें १२०/ अढाइद्विपमें १२१ असंख्यातविप समुद्रमें १२२ कीसी स्थानकि पोलारमे १२३ लोकरे चर्मान्तमे १२४ सिद्धक्षेत्रमें १२५ श्रीसिद्ध भगवानमें
॥ सेवं भंते से भंते तमेष सबम् ।।
है
इति श्री शीघ्रबोध भाग ७ वां समाप्तम्.
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॥ श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः ॥ शीघ्रबोध जाग जवां।
थोकडा नं. ७७
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० १.
(योगों की अल्पा बहुत्व ). संसारी जीवों के चौदे भेद है-जैसे सुक्ष्म एकेन्द्रि के दो मेंद पर्याप्ता, अपर्याप्ता, बादर एकेन्द्रि के दो भेद पर्याप्ता, अपर्याप्ता एवं बेन्द्रि, तेरिन्द्रि, चोरिन्द्रि, सन्नीपंचेन्द्रि और असपिचेन्द्रि के दो दो भेद पर्याप्ता अपर्याप्ता करके १४ भेद हुवे । ___जीव के आत्म प्रदेशों से अध्यवसाय उत्पन्न होते है और यह शुभाशुभ करके दो प्रकारके है। इन अध्यवसायों की प्रेरणा से जीव पुद्गलोंको ग्रहण करके प्रणमाते है उसे परिणाम कहते है वह सूक्ष्म है और परिणामों की प्रेरणा से लेश्या होती है और लेश्या की प्रेरणा से मन वचन काया के योग व्यापार होते है जिसे योग कहते है। योग दो प्रकार के होते है। (१) जघन्य योग (२) उत्कृष्ट योग । उपर जो १४ भेद जीवोंके कहे है उनमे जघन्य और उत्कृष्ट योग की तरतमता है उसी को अल्पाबहुत्व करके नीचे बतलाते है:
(१) सबसे स्तोक सूक्ष्मपकेन्द्रिके अपर्याप्ताका जघन्ययोग. (२.) बादर एकेन्द्रि के अपर्याप्ता का जघन्य योग असं० गुणा. (३) बेरिन्द्रि के
, " "
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७८
.. ४ तेरिन्द्रि के , (५ चौरिन्द्रि के (६) असन्नी पंचेन्द्रि के ,, (७) सन्नी पंचेन्द्रि के , (८) सुक्ष्म एकेन्द्रि के पर्याप्ताका (९) बाबर एकेन्द्रि के , (१०) सुक्ष्म पकेन्द्रि के अपर्याप्ता का उत्कृष्ट (११) बादर एकेन्द्रि के , (१२) सुक्ष्म एकेन्द्रि के पर्याप्ता का (१३) बादर एकेन्द्रि के ,, ,, (१४) बेरिन्द्रि के पर्याप्ता का जघन्य० ,,, (१५) तेरिन्द्रि के (१६) चौरिन्द्रि के (१७) असन्नी पंचेन्द्रि के ,, (१८) सन्नी पंचेन्द्रि के ११९) बेरिन्द्रि के अपर्याप्ता (२०) तेरिन्द्रि के (२१) चौरिन्द्रिके (२२) असन्नी पंचेन्द्रि के ,, (२३) सन्नी पंचेन्द्रि के (२४) बेरिन्द्रि के पर्याप्ता का (२५) तेरिन्द्रि के (२६) चोरिन्द्रि के , (२७) असन्नी पंचेन्द्रि के , (२८) सन्नी पंचेन्द्रि के ,
सेवभंते सेवभते तमेव सच्चम् ।
उत्कृष्ट."
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७६
थोकडा नं० ७८
[ श्री भगवती सूत्र श० २५-ॐ० १ ].
जीवोंके योगों की तरतमता देखने के लिये यह थोकडा खूब दीर्घदृष्टिले विचार करने योग्य है ।
प्रथम समय के उत्पन्न हुवे दो नारकी के नैरीया क्या सम योग वाले है या विषम योगषाले है ? स्यात् सम योग वाले है स्यात् विषम योग वाले है। क्योंकि प्रथम समय के उत्पन्न हुवे नारकी के नेरीयों के योग आहारीक से अणाहारीक और अणाहारीक से आहारीक के परस्पर स्यात् न्यून है, स्यात् अधिक है और स्यात् बराबर भी है । यद्यपि न्युन हो तो असंख्यातभाग, संख्यात भाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण न्यून हो सकते है और अगर अधिक हो तो इसी तरह असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण, अधिक होते है और यदि बराबर हो तो दोनों के योग तुल्य होते है । यथा:
( १ ) एक समय का आहारीक है परन्तु मींडक गती करके आया है और दूसरा जीव भी एक समय का आहारीक है परन्तु ईलका गतो करके आया है। इन दोनों के योग असंख्यात भाग, न्यूनाधिक ।
( २ ) एक जीव एक समय का आहारीक है और मींडक गती से आया है तथा दूसरा जीव दो समय का आहारीक है परन्तु एक का गती करके आया है। इन दोनों के योग संख्यात भाग न्यूनाधिक है ।
( ३ ) एक जीव एक समय का आहारीक है और मींडक गवी
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करके आया है दूसरा एक समयका अहारीक अणाहारी है परन्तु एक वंका गती करके आया है। इनके योग संख्यातगुण न्यूनाधिक है ।
( ४ ) एक जीव एक समय का आहारीक मींडक गती करके आया है और दूसरा दो समय का अणाहारीक दो समय की का गती करके आया है। इन दोनों के योगों में असंख्यातगुण म्यूनाधिकपने है ।
जैसे नार की कहो उसी माफक शेष भुवनपति १० स्थावर ५, विकलेन्द्रि ३, तीर्थच पंचेन्द्रि १, मनुष्य १, व्यन्तर १, क्योतिषी १, वैमानिक १, एवं चौवीस दंडक भी समझ लेना । विशेष विस्तार गुरु महाराज की उपासना कर प्राप्ती करना चाहिये इति । सेवते सेवते तमेव सचम् |
थोकड़ा नं० ७६
( श्री भगवती सूत्र श० २५ - उ० १. ) ( योगों की अल्पावहुत्व ).
योग १५ है यथा ( ४ मनका ) सत्य मनयोग, असत्य मन योग, मिश्र मनयोग और व्यवहार मनयोग | ( ४ वचन का ) सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, मित्र वचनयोग और व्यवहार वचनयोग | ( ७ काय का ) औदारीक काययोग, औदारोक मिश्र काययोग, वैक्रिय काययोग, वैक्रिय मिश्र काययोग, आहारिक काययोग, आहारीक मिश्र काय योग और कार्मण काय. योग | एवं १५ ।
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योग के स्थान असंख्याते हैं परन्तु यहां समाम्यता से १५ ही को प्रहण कर प्रत्येक के दो दो भेद मपन्य और उतष्ट करके ३० बोलों की अल्पाबहुत्व कही है यथाः
(१) सबसे स्तोक कार्मण का मगन्य योग. (२) औदारीक के मित्र का मधन्य योग अस० गुणा. (३) क्रिय के
" " " । (५) औदारीक कामधन्य याग . ,, .. (५) वैक्रिय का : (६) कार्मण का उत्कृष्ट योग ,
(७) आहारीक के मिश्र का जघन्य योग,, , (८) आहारीक के मिश्र का उत्कृष्ट योग, (९) औदारीक के मिश्र का और वैक्रीय के मित्र का
उस्कृष्ट योम परस्पर तुल्य और में बोल सेभस.
स्यात गुणा. (१०) व्यवहार मनका जघन्य योग अस० गुणा. (११) आहारीक का , , , (१२) तीन मन के और चार बचन के जघन्य योग परस्पर
तुल्य और ११ वा बोल से असंख्यात गुणा. (१३) माहारीक का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा. (१५) भौदारीककाय योग, वैक्रीय काययोग, चार मनका
और चार वचन का एवं १० का उतकृष्ट योग परस्पर तुल्य और ११३ गोल से असं गुणा ॥ इति ॥
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
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- थोकड़ा नं० ८०..
(श्रीं भगवती सूत्र श० २५-उ० २.)
(द्रव्य ). द्रव्य दो प्रकार के है । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । जीव अन्य क्या संख्याता है ? असंख्याता है या अनम्ता है ? संख्याता, असंख्याता नही किन्तु अनन्ता है क्योंकि जोष अनन्ता है इसी वास्ते जीव द्रव्य भी अनन्ता है। . ___ अजीव द्रव्य क्या संख्याते, असंख्याते या अनन्ते हैं? संख्याते, असंख्याते नहीं किन्तु अनन्ते हैं क्योंकि अजीव द्रव्य पांच है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेशीहै। आकाश और पुगल के अनन्ते प्रदेश है और काल वर्तमान एक समय है, भूत, भविष्यापेक्षा अनन्ते समय है इस वास्ते अजीव द्रव्य अनन्ता है। ... जीव द्रव्य अजीव द्रव्य के काम आते है, या अजीव द्रव्य जीव द्रव्यके काम आते है? जीव द्रव्य अजीव द्रव्य के काम नहीं आते है किन्तु अजीव द्रव्य जीव द्रव्यके काम आते है क्योंकि जीव अजीव द्रव्य को ग्रहण करके १४ बोलों उत्पन्न करते है यथा-औदारीक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारीक शरीर, तेजस शरीर, कामण शरीर, भोरेन्द्रीय, चक्षुरिन्द्रीय, घ्राणेन्द्रीय, रसेन्द्रीय, स्पर्शन्द्रीय. मन योग, वचन योग, काय योग, श्वासोश्वास, एवं चौदा । ___अजीव द्रव्य के नारकी का नेरीया काम में आते है या मजीव द्रव्य नारकी के नेरीये के काम आते है ? अजीव द्रव्य के नारको काम में नहीं आते है परन्तु नारकी के अजीव द्रव्य काम
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८३
में आते है। यावत् ग्रहण करके १२ बोल निपजावे औदारीक शरीर, आहारीक शरीर बर्ड के इसी माफक १३ दंडक देवताओं का भो समझ लेना और पृथ्वीकाय अजीव द्रव्य को प्रहण करके
बोल निपजावे । ३ शरीर, १ स्पर्शेन्द्री, १ काय योग, १ श्वासो. श्वास । इसी तरह अपकाय तेउकाय और वनस्पतिकाय भी समझ लेना तथा वायुकाय में ७ बोल कहना याने वैक्रिय शरीर अधिक कहना और बेइन्त्री में ८ बोल शरीर इन्द्री २ योग १ और श्वासोश्वास । तेरिन्द्री में ९ षोल । इन्धी एक वषी बाणेन्द्री पर्व ९चोरिन्द्रीमे १० । इन्द्री एकबधी चक्षु । तियेच चन्त्री में १३ बोल शरीर ४ इन्द्री ५ योग ३ और श्वासोश्वास व १५ और मनुष्य में सम्पूर्ण १४ बोल उत्पन्न करे । इति। .
सेभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं०८१
(श्री भगवती सूत्र श० २५-उ०-२.)
(स्थिनास्थित ). हे भगवान् ! जीव औदारिक शरीरपणे जो पुद्गल प्रहण करते हैं वे क्या "ठिया" स्थित-याने अकम्प पुद्गल ग्रहण करें गा" अछिया" कम्पायमान पुद्गल ग्रहण करे! गौतम ! अकंप पुल भी ले और कंपायमान पुद्गल भी ले. यदि स्थित पुद्गल ले सोया द्रव्य से ले, क्षेत्र से ले, काल से ले या भावसे ले ! अगर अन्य से ले तो अनन्त प्रदेशी. क्षेत्र से असंख्यात प्रदेश अवगाथा, पास से एक समय दो तीन यावत् असंख्यात समय की स्थिती
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८४
का, आव से ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्शषाले पु० को लेवे, अगर वर्ण का लेवे तो एक गुण काला दो तीन यावत् अनन्त गुण - काला का लेवे पर्व १३ बोल वर्णादि २० बोल में लगाने से भाव के २६० भांगा, और स्पर्श किया हुषा १, अवगाचा २, अणन्तर अवगाहा ३, अणुवा ४, वादर ५, उर्ध्वदिशीका ६, अधोदिशीका ७, तीर्थमदिशीका ८, आधिका ९, मध्यका १०, अन्तका ११, अणुपूर्वी १२, सविषय १३, निर्व्याघात ६ दिशा व्याघाताश्रीय स्वात् 'तीन दिशी व्यार दिशी पांच दिशी १४, एवं द्रव्यका १, क्षेत्रका १, कालका १२, भाषका २६०, और स्पर्शादि १४, कुल २८८ बोल का पुल औदारिक शरीर पणे ग्रहण करे एवं वैक्रिय, आहारिक परन्तु नियमा छे दिशीका लेवे, कारण दोनो शरीर प्रसनाली में है, और तेजस शरीर की व्याख्या औदारीक शरीर माफिक करना तथा कार्मण शरीर प्यार स्पर्शवाले होनेसे ५२ बोल कम करने से द्रव्यादि २३६ बोलका पुद्गल ग्रहण करे,
जीव श्रोत्रेन्द्रीय पणे २८८ बोलों वैकिय शरीर की माफिक नियमा छे दिशि का पुद्गल ग्रहण करे पर्व चक्षु, घाण, रसेन्द्री भी समझना, स्पर्शेन्द्री औदारिक शरीर की माफिक समझना ।
मन बचन पणे कार्मण शरीर कि माफिक चौफरसी पुनल ग्रहण करे। परन्तु असनाली में होने से नियमा छे दिशी का पुल ग्रहण करे और काययोग तथा श्वासोश्वास औदारीक शरीर के माफिक २८८ बोलका पुद्गल ग्रहण करे, व्याघाताधीव ३-४-५ दिशी का और निर्व्याघात आश्रीय नियमा ६ दिशीका पु० ग्रहण करे, इति । समुचय जीव उपर चौदा ( ६ शरीर, ५ इन्द्रीय ३ योग, १ श्वासोश्वास ) बोल कहा इसी को अब प्रत्येक दंडक पर लगाते हैं।
नारकी, देवताओ में १२ बोल पावे ( आहारीक औदारीक
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८५
वर्जके ) समुच्चयवत् बोलों का पुद्गल ग्रहण करे परन्तु नियमा छे दिशी का समझना। " पृथ्वी, अप, तेउ और वनस्पति में ६ बोल (शरीर, ३ इन्द्रिय, काय १ श्वासोश्वास १) पावे और समुभयवत बोलों का पुद्गल ग्रहण करे, परन्तु दिशी में स्यात् ३-४-५ दिशी निर्व्यापात नियमा ६ दिशी का पुगल ले एवं वायुकाय परन्तु क्रिय शरीर अधिक है, और वैक्रिय शरीर पुनल नियमा छ दिशी का लेवे।
बेरिन्द्री में ८ तेरिन्द्रो में ९ चौरिन्द्री में १० सर्व समुच्चयवत् समझना परन्तु नियमा छे दिशी का पुद्गल प्रहण करे।।
तिर्यच पंचेन्द्रिय १३ बोल ( आहारक पर्ज के ) और मनुष्य मे १४ बोल पावे | सर्वाधिकार समुश्चयवत् २८८ बोल का पुल ग्रहण करे. परन्तु नियमा छे दिशी का ले क्योंकि १९ दंडकों के मीयों केवल सनाली में ही होते है इसलिये नियमा छे दिशी का पुद्गल प्रहण करे शेष ५ दंडक स्थावरों को सर्व लोक में है वास्ते स्यात् ३-४-५ दिशीका पु० ले। यह लोकके अन्त आभीय है। इस थोकडे को ध्यान पूर्वक विचारो।
सेवंभंते सेवभते तमेव सच्चम् ।
थोकड़ा नं० ८२..
.
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[श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ३.]
.. (संस्थान ). . .. संस्थान-आकृती को कहते है जिसके दो भेद है जीव
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संस्थान समचौरसादि छे भेद और अजीव संस्थान परिमंडलादि के भेद है। यहां पर अजीव संस्थान के भेद लिखते हैं-(१) परिमंडल संस्थान जो प्यूडी के आकार होता है (२) वह संस्थान गोल ला के आकार (३) प्रस-सिंघोरे के आकार (४) चोरस चोकीके आकार (५) आयतन लम्बा आकार (६) अवस्थित इनपांचों से विपरीत हो । परिमंडल संस्थान के द्रव्य क्या संख्याते, असंख्याते या अनन्ते है? संख्याते, असंख्याते नहीं किन्तु अनन्ते है एवं यावत् अन्वस्थातादि छेओं संस्थान के द्रव्य अनन्ते हैं।
परिमंडल संस्थान के प्रदेश क्या संख्याते, असंख्याते, या अनन्ते है ? संख्याते असंख्याते नहीं किन्तु अनन्ते हैं। यावत् अन्वस्थातादि छेओं संस्थान के कहना । अब इन छओं संस्थानों की द्रव्यापेक्षा अल्पाबहुत्व कहते है:
(१) सब से थोडा परिमंडल संस्थान के द्रव्य. (२) बट्ट संस्थान के द्रव्य संख्यात गुणा. (३) चौरस संस्थान के द्रव्य संख्यात गुणा. (४) अस संस्थान के द्रव्य संख्यात गुणा. (५) आयतन संस्थान के द्रव्य संख्यात गुणा. । ६ ) अन्वस्थित संस्थान के द्रव्य असंख्यात गुणा.
प्रदेशापेक्षा संस्थानों की अल्पाबहुत्व भी इसी माफिक समझ लेना । अब द्रव्य प्रदेशापेक्षा दोनोंकी शामिल अल्पाबहुत्व कहते हैं-(१) सब से थोडा परिमंडल संस्थान का द्रव्य (२) पट द्रव्य सं० गुणा० (३) चौरस द्रव्य तै० गुणा० । ४) प्रस ब्रम्प सं० गुणा० (५) आयतन द्रव्य सं• गुणा० ( ६ ) अन्वस्थित द्रव्य असं० गुणा० (७) परिमंडल प्रदेश असं० गुणा० (८) या प्रदेश सं० गुणा. (९), चौरस प्रदेश सं० गुणा० (१०) पस
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प्रदेश में० गुणा० (११) आयतन प्रदेश सं० गु० (१२) अन्य स्थित प्रदेश असं० गुणा इति।
सेवभंते सेवभते तमेव सच्चम् ।
थोकड़ा नं० ८३. [श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ३.]
( संस्थान.) संस्थान पांच प्रकार के होते हैं-यथा परिमंडल व प्रस. पौरस. आयतन परिमंडल संस्थान क्या संख्याते, असंख्याते 'पा अमंते है ? संख्याते, असंख्याते नहीं किन्तु अनन्ते है एवं बापत् आयतन संस्थान भी कहना।
रत्नप्रभा नारकी में परिमंडल संस्थान अनन्ते है, एवं यावत् मायतन संस्थान भी अनन्ते है, इसी तरह ७ नारकी, १२ देवलोक, ९ प्रेषेक, ५ अनुत्तर थैमान और सिद्धशिला, पृथ्वी एवं ३५ पोलों में पांचों संस्थान अनन्ते अनन्ते है, पैंतीस को पांच गुणा करने से १७५ भागा हुवा।।
एक यवमध्य परिमंडल संस्थानमे दूसरे परिमंडल संस्थान कितने है ? अनन्ते है एवं यावत् आयतन संस्थान भी अनन्त कहना, इसी तरह एक यवमध्य परिमंडल की माफिक शेष पहादि चारों संस्थानों की व्याख्या करनी एक संस्थान में दूसरे पांचो संस्थान अनन्ते है इसलिये पाँचको पांचका गुण करनेसे २५ पोल हुवे, पूर्ववत् नरकादि ३५बोलोंमे २५-२५ बोल पावे एवं कुल ८७५ भांगा हुवा और १७५पहिलीका सब मिलके १०५ भांगा हुवा।
सेवंभंते सेवंभंते सच्चम् ।
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थोकड़ा नं० ८४. (श्री भगवती सूत्र श० २५-उ०३)
(संस्थान ). पुदगल परमाणु के एकत्रित होने से अजीव का संस्थान (आकार ) बनता है उसी का सविस्तार वर्णन करेंगे कि कितने २ परमाणु इकट्ठे होने से कौन २ से संस्थानकी उत्पत्ति होती है!
परिमंडल संस्थान के दो भेद होते है, परतर और धन । मो परतर परिमरल संस्थान है वह जघन्य से जघन्य २० प्रदेश का होता है और अवगाहना भी २० आकाश प्रदेश की होती है। उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशी और असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाही होता है और धन परिमंडल संस्थान जघन्य ५० प्रदेशी और ४० आकाश प्रदेश अवगाही होता है, और उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशी असंख्याते आकाश प्रदेश अवगाहते है, शेष यंत्र से समझनाः
। संस्थान
परतर.
घन.
उज प्रदेशी जम प्रदेशी उज प्रदेशी जम प्रदेशी
चौरस,
मायत,
१५
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८६
* नोट-मायतन का तीसरा भेद श्रेणी है उन के उन प्रदेशी
प्रदेशी है तुम प्रदेशी २ प्रदेशी हैं। जघन्य नितने प्रदेश का संस्थान होता है उतनाही आकाश प्रदेश अवगाहता है और उत्कृष्ट प्रदेश सब संस्थान अनन्त प्रदेशी है और असंख्याता आकाश प्रदेश अवगाहते हैं । इति ।
सेवभते सेवभंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं. ८५.
श्री भगवती सूत्र श० १८-उ० ४.
(जुम्मा) लोक में जो जीव अजीव पदार्थ हैं वह द्रव्य और प्रदेशा. पेक्षा कितने २ हैं उनकी गिणती करने के लिये यह संख्यागांधी है। ___गोतम स्वामी भगवान से पूछते हैं कि हे भगवान ! जुम्मा कितने प्रकार के हैं ? गौतम! चार प्रकार के है. यथा-कुरजुम्मा, तेहगा लुम्मा, दावरजुम्मा, और कलउगा जुम्मा। जैसे किसी एक रासी में से चार घार निकालने पर शेष ४ बचे उसे कुडजुम्मा करते हैं। इसी तरह चार २निकालने हुवे शेष बचे उसे उगा जुम्मा कहते हैं। अगर चार २ निकालने पर शेष २ बरे तो दायरजुम्मा, कहते हैं और एक बचे तो कलउगा जुम्मा, जाते हैं। नारकी के मेरिया क्या कुटजुम्मा है, यावत् कलउना हम्मा है? जपन्य पदे कुरजुम्मा, उत्कृष्ट पदे तेउगा, मध्यम पदे सरों भांना पाये।इसी तरह १० भुवनपती १ तीच पंवेदी,
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१ मनुष्य, १ व्यंतर, १ ज्योतिषी और धैमानिक एवं १६ दरक समझ लेना । पृथ्वीकाय जघन्य पदे कुरजुम्मा, उत्कृष्ट पदे वापर तुम्मा और मध्यम पहेचारों मांगा पाये। इसी तरा अप, तेज, बायु, बेरिन्द्री, तेरिन्द्री और चौरिन्द्री भीसमझ लेना बनस्पति मधन्य उस्कृष्ट पदे अपदा मध्यम पदे चारों भांगा पाये एवं सिर भगवान भी समझना.
पनर दरक की श्री ( मनुष्य १, तोर्यच १, देवता ११) मधन्य उत्कृष्ट पदे कुड जुम्मा, और मध्यम पदे चारों भांगा।
सेवभंते सेवंभंते तमेव सचम्.
थोकड़ा नं० ८६.
(श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ३.)
( संस्थान जुम्मा ) हे भगवान् ! एक परिमंडल संस्थान द्रव्यापेक्षा क्या कुरहम्मा है यावत् कलउगा जुम्मा है ? गौतम ! कलउगा जुम्मा है, शेष कुरजुम्मादि तीन बोल नहीं पाये। एवं बट्ट, प्रस, चौरस और आयतन भी समझना क्योंकि एक द्रव्यका प्रश्न है इस लिये कलउगा जुम्मा ही होवे ।
घणा परिमंडल संस्थान के प्रश्नोत्तर में पहिले इसके दो भेद बताये हैं समुचय (सर्व) और अलग अलग। समुपम भाषीय परिमंडल संस्थान कीसी समय कुडलुम्मा है यावत् स्थात् कलउगा है और अलग अलग की अपेक्षा से कीसी भी
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६१
समय पूछो एक कलउग जुम्मा मिलेगा शेष ३ बाल नहीं, ए. पह, प्रस, चौरस और आयतन भी समझ लेना।।
हे भगवन् ! एक परिमंडल संस्थान के प्रदेश क्या कुछ जुम्मा है यावत् कलउगा है ? गौतम ! स्यात् कुडजुम्मा है पावत् स्यात् कलउगा जुम्मा है । घणा परिमंडल की पुच्छा समुचय की अपेक्षा स्यात् कुडझुम्मा है यावत् स्यात् कलयुग गुम्मा है और अलग अलग की अपेक्षा कुडलुम्मा भी घणा पावत् कलयुगा भी घणा एवं, बट्ट, प्रस, चौरस और आयतन भी कहना।
हे भगवन् ! क्षेत्रापेक्षा एक परिमंडल संस्थान क्या कुर हुम्मा प्रदेश क्षेत्र अवगाय है यावत् कलयुग जुम्मा प्रदेश क्षेत्र अवगाह है ? गौतम ! कुडजुम्मा प्रदेश अवगाह है, शेष ३ पोल नहीं एवं एक बट्ट संस्थान स्यात् कुडजुम्मा, तेउगा और कलयुगा प्रदेश अवगान है। दाधर जुम्मा नहीं, और एक त्रस संस्थान स्यात् कुडजुम्मा, तेउगा, और दावरजुम्मा प्रदेश अबगाम है, शेष कलयुगा नहीं, और चौरस संस्थान स्यात् कुडझुम्मा, तेउगा कलयुगा प्रदेश अवगाह है। दावर जुम्मा नहीं और आयतन संस्थान. स्यात् कुडजुम्मा, तेउगा. क्षवरजुम्मा अषगाया है, कलयुगा नहीं।
घणा परिमंडल संस्थानकी पृच्छा--समुचय आश्रीय कुखजुम्मा प्रदेश अवगाह्म है, एवं शेष घणा चार संस्थानों की अपेक्षा भी कुडजुम्मा प्रदेश अवगाहा है कारण पांचों संस्थान पूर्ण लोक व्याप्त है सो लोक कुडजुम्मा प्रदेशी है और अलग २ पणा परिमंडल संस्थानों की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा, प्रदेश • अवगाय है। घणा बट्ट संस्थान अलग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा, घणा तउगा, घणा कलयुगा प्रदेश अवगाब है। घणा प्रस
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संस्थान अलग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा, घणा तेउगा, घणा दावरजुम्मा प्रदेश अवगाह है। घणा चौरस संस्थान अलग २ की अपेक्षा (बवत् ) घणा कुखजुम्मा, तेउगा, कलयुग प्रदेश अवगाहा है, और अलग २ घणा आयतन संस्थान घणा कुडझुम्मा प्रदेश यावत् घणा कलयुगा प्रदेश अवगाहा है।
हे भगवान् ! एक परिमंडल संस्थान कालापेक्षा क्या कुरजुम्मा समयकी स्थितिवाला है ? यावत् कलयुगा समयकी स्थितिवाला है.१ गौतम स्यात् कुडजुम्मा समयकी स्थितिवाला है एवं यावत् स्यात् कलयुगा समयकी स्थितिवाला है। इसी तरह वट्ट, प्रस, चौरस और आयतन संस्थान भी चारों बोलोंके समयकी स्थितिवाला कहना । घणा परिमंडल संस्थानको पृच्छा, समुच्चय आश्रीय स्यात् कुडजुम्मा, एवं यावत् स्यात् कलयुगा समयकी स्थितिके कहने और अलग २ की अपेक्षा भी इसी तरह घणा कुडजुम्मा यावत् घणा कलयुगा समयकी स्थितिका कहना। एवं शेष वट्ट, बस, चौरस और आयतनकी भी व्याख्या परिम डलवत् करनी।
हे भगवान् एक परिमंडल संस्थान भावाश्रीय काला गुणके पर्यवापेक्षा क्या कुडजम्मा है ? यावत कलयुगा है? गौतम! स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा है। एवं यावत् आयतन संस्थान भी समझना। घणा परिमंडल मंस्थानकी पृच्छा, समुआयाधीय स्यात् कुडजुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा है, और अलग २ अपेक्षा घणा कुडजुम्मा है यावत् घणा कलयुगा है कहना। पचं यावत् आयतन संस्थान भी कहना। यह एक काले वर्णकी अपेक्षा कहा है। इसी तरह ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्शको पांचों संस्थानों कह देना ॥ इति ॥
॥सेवं भंते सेवं भंते तमेव सबम् ।।
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थोकडा नं० ८७
[श्री भगवती सूत्र श० २५-३० ३.] ( श्रेणी )
आकाश प्रदेशकी पंक्तिको श्रेणी कहते है । गौतमस्वामी anaraसे प्रश्न करते है कि हे भगवान्! समुचय आकाश प्रदे शकी द्रव्यापेक्षा श्रेणी क्या संख्याती, असंख्याती, या अनन्ती है ? गौतम ! संख्याती, असंख्याती नहीं किन्तु अनन्ती है। इसी तरह पूर्वादि छे दिशीकी भी कह देना । एवं समुचयवत् ratararaat भी श्रेणी समझना ( अनन्ती है ) ।
व्यापेक्षा लोकाकाशके श्रेणीकी पृच्छा ? गौतम । संख्याती नहीं, अनम्ती नहीं किन्तु असंख्याती है । इसी तरह छे दिशी भी समझना ।
प्रदेशापेक्षा समुचय आकाश प्रदेशके श्रेणीकी पृच्छा ! गौतम ! संख्याती असंख्याती नहीं किन्तु अनन्ती है, पवं पूर्वादि से दिशीकी भी कहना ।
प्रदेशापेक्षा लोकाकाशके श्रेणीकी पृच्छा ? गौतम ! स्यात् संख्याती, स्यात् असंख्याती है परंतु अनन्ती नहीं, एवं पूर्वाहि चार दिशी कहना, परंतु उंची नीची केवल असंख्याती है।
प्रदेशापेक्षा आलोकाकाश के श्रेणीकी पृच्छा ! गौतम, स्यात् संख्याती, असंख्याती अनन्ती है । परंतु पूर्वादि चार दिशीमें frent अनन्ती है, उंची नीचीमें तीनों बोल पावे ।#
* लोकालोकमें स्यात् संख्याती श्रेणी कहनेका कारण यह है कि लोकके न्त लोक और लोकका खूणा है वहांपर संख्यात्ता आकाश प्रदेश लोकालोककी अपेक्षा है इसी वास्ते संख्याती श्रेणी कही ।
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समुच्चय श्रेणी क्या सादि सान्त है (१) सादि अनन्त है, (२) अनादि सान्त है, (३) या अनादि अनन्त है ? (४) गौतम! अनादि अनन्त है शेष तीन भांगा नहीं, इसी तरह पूर्वादि छे दिशी भी समझ लेना।
लोकाकाशके श्रेणीकी पृच्छा? गौतम! सादि सान्त है. शेष तीन भांगा नहीं एवं छे दिशी भी समझ लेना।
अलोकाकाशके श्रेणीको पुच्छा, गौतम! स्यात् सादि सान्त यावत् अनादि अनन्त चारों भांगा पावे यथा(१) सादि सान्त-लोकको व्याघातमें। (२) सादि अनन्त-लोकके अन्त में अलोककी आदि है परंतु
फिर अन्त नहीं। (३) अनादि सान्त-अलाक अनादि है परंतु लोकके पासमें
अन्त है। (४) अनादि अनन्त-जहां लाकका व्याघात न पडे वहां।
पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण दिशी सादी सान्त धर्ज देना तथा उंची नीची दिशी पूर्ववत् चारों भांगा पावे ।
हे भगवान् ! द्रव्यापेक्षा श्रेणी क्या कुडजुम्मा है ? यावत् कलयुगा है ? गौतम! कुडजुम्मा है, शेष तीन भांगा नहीं, एवं यावत् छे दिशीमे कहना, इसी तरह द्रव्यापेक्षा लोकाकाशकी श्रेणी भी समझ लेना, यावत् छे दिशीकी व्याख्या कर देना एवं अलोकाकाशकी भी व्याख्या करना। __ प्रदेशापेक्षा आकाश श्रेणीकी पृच्छा, गौतम! कुडजुम्मा हैशेष तीन मांगा नहीं एवं छे दिशी। __प्रदेशापेक्षा लोकाकाशके श्रेणीको पृच्छा, गौतम! स्यात् कुडजुम्मा है स्यात् दायरजुम्मा है शेष दो भांगा नहीं, एवं
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पंपादि चार दिशी, और उर्व अधो दिशी अपेक्षा कुडजुम्मा है शेष तीन मांगा नहीं।
प्रदेशापेक्षा अलोकाकाशके श्रेणीकी पृच्छा, गौतम! स्यात् खजुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा है, एवं छे दिशी परन्तु उंची गीची विशीमें कलयुगा वर्जके शेष ३ भांगा कहना ।
श्रेणी: सात प्रकारकी है ( १ ) ऋजु ( सीधी ), (२) एक का, (३) दो बंका, (४) एक खूणावाली, (५) दो खूणावाली, (६) चकवाल, (७ ) अर्ध चक्रवाल ( स्थापना )। - AML L 0
हे भगवान् ! जीव अनुश्रेणी ( सम) गति करे या विश्रेणी (विषम ) १ गौतम! अनुश्रेणी गती करे परंतु विश्रेणी गति नहीं करे इसी तरामारकादि २४ दंडकोंके जीव समझ लेना, एवं परमाणु पुदगल भी अनुश्रेणी करे, विश्रेणी नहीं करे, बिप्रदेभी यावत् अनन्त प्रदेशी भी अनुश्रेणी करे विश्रेणी न करे।इति ।
॥ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ॥
थोकडा नं. ८८
[श्री भगवती सुत्र श० २५-उ० ४ ]
(द्रव्य) ... द्रव्य छे प्रकारके -धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, भाकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ।
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हे भगवान् ! धर्मास्तिकाय द्रव्यापेक्षा क्या कुडजुम्मा है यावत् कलयुगा है ? गौतम ! कलयुगा है शेष तीन बोल नहीं, क्योंकि धर्मास्तिकाय द्रव्यापेक्षा एक ही है एवं अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी समझ लेना ।
व्यापेक्षा जीवकी पृच्छा. गौतम | कुडजुम्मा है शेष तीन बोल नहीं पवं काल भी ।
sourपेक्षा पुद्गलास्तिकायकी पृच्छा. गौतम ! स्यात् कुडजुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा चारों बोल पावे ।
हे भगवान् ! प्रदेशापेक्षा धर्मास्तिकाय क्या कुडजुम्मा है यावत् कलयुगा है ? गौतम ! कुडजुम्मा है शेष तीन बोल नहीं. एवं अधर्मास्तिकायादि छेओं द्रव्य प्रदेशापेक्षा कुडजुम्मा है । षट् द्रव्योंकी द्रव्यापेक्षा अल्पावद्दुत्व
(१) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, प्र. व्यापेक्षा परस्पर तुल्य और सबसे स्तोक है।
(२) जीव द्रव्य अनन्त गुणा (३) पुद्गल द्रव्य अनन्त गुणा और (४) काल द्रव्य अनन्त गुणा ।
षट् द्रव्योंकी प्रदेशापेक्षा अल्पा बहुत्व-
(१) धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश परस्पर तुल्य और सबसे स्तोक है।
( २ ) जीवोंके प्रदेश अनन्त गु० । ( ३ ) पुद्गल प्रदेश अनन्त गुणा । ४ ) काल प्र० अनन्त गु० ।
( ५ ) आकाशके प्रदेश अनन्त गुणे ।
एकेक द्रव्यकी द्रव्य और प्रदेशापेक्षा अल्पाबहुव
(१) धर्मास्तिकाय द्रव्य अपेक्षा स्तोक है धर्मास्तिकाय प्रदेश असंख्यात गुणा ।
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(२) अधर्मास्ति द्रव्य अपेक्षा स्तोक, तस्य प्रदेश भसंख्यात गुण
एवं नीव और पुद्गल की। अल्पा० समझना. (३) आकाशास्ति० द्रव्य अपेक्षा स्तोक, तस्य प्रदेश अनन्त गुणा
और काल की अल्पाबहुत्व नही। षट् द्रव्य के द्रव्य और प्रदेशों की अल्पा.(१) धर्मास्ति० अधर्मास्ति० और आकाशास्तिकाय के द्रव्य
परस्पर तुल्य और सब से स्तोक । (२) धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश परस्पर तुल्य असंख्यात गुणा । (३) नीष द्रव्य अनन्त गुणा । (४) तस्य प्रदेश असंख्यात गुणा। (५) पुदूगल द्रव्य अनंत गुणा। ६) तस्य प्रदेश असंख्यात गुणा। (७) काल द्रव्य अनन्त गुणा । (९) आकाश प्रदेश अनन्त गुणा ।
हे भगवान् ! धर्मास्तिकाय अवगाही हुई है ? (गौतम ) हां अवगाही है, तो क्या संख्याता, असंख्याता या अनन्ता प्रदेश अषगाहा है ? संख्याता और अनन्ता नही किन्तु असंख्याता प्रदेश अवगाहा है, यधपि असंख्याता प्रदेश अवगाहा है तो वह कुरजुम्मा है, या यावत् कलयुगा है ? (गौतम , कुडजुम्मा है शेष तीन बोल नहीं एवं अधर्मास्तिः आकाशास्ति० जीवास्ति. पुदगलास्ति और काल की भी व्याख्या करनी के केवल कुडजुम्मा प्रदेश अवगाध है, शेष तीन बोल नहीं। - रत्नप्रभा नारकीकी पृच्छा ? गौतम ) कुडजुम्मा प्रदेश अवमाय है, शेष ३ बोल नहीं, इसी तरह ७ नारकी, १२ देवलोक, ९ प्रैवेक, ५ अनुत्तर वैमान १ सिद्धशिला और लोक ये ३५ बोलों की व्याख्या करनी के एक कुडजुम्मा प्रदेश अवगाम है शेष नहीं।
सेवभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
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थोकड़ा नं० ८६
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ४. ( जीवों का प्रमाण ० )
इस थोकडे में सब जीवों को जुम्मा रासी कर के द्रव्य क्षेत्र, काल, और भाषाश्रीय बतायेंगे ।
(१) नीव द्रव्य प्रमाण ।
हे भगवान् ! एक जीव द्रव्यापेक्षा क्या कुडजुम्मा या कलयुगा है ? ( गौतम ) कलयुगा है, क्योंकि एक जावाश्रीय प्रश्न है इस लिए एवं २४ दंडक और सिद्ध के भी एक जीवाश्रीय कलयुगा ही कहना ।
घणा जीवों की अपेक्षा क्या कुडजुम्मा है ? यावत् कलयुगा है ? ( गौतम ) घणा जीवों की गणती का दो भेद है एक समुचय दूसरा अलग २, जिस में समुचय को अपेक्षा तो कुडजुम्मा है, शेष ३ भांगा नहीं और अलग २ की अपेक्षा कलयुगा है शेष ३ भांगा नहीं ।
घणा नारकी की पृच्छा ? ( गौतम ) समुचयापेक्षा स्यात कुडजुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा है और अलग २ की अपेक्षा कलयुगा है शेष ३ बोल नहीं, एवं २४ दंडक और सिद्ध भी समजलेना ।
( २ ) जीव प्रदेश प्रमाण.
हे भगवान् ! प्रदेशापेक्षा एक जीव क्या कुडजुम्मा है यावत् कलयुगा है ! ( गौतम ) प्रदेश दो प्रकार के है, एक जीव प्रदेश
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88.
और दूसरा शरीर प्रदेश, जिसमें जीव प्रदेश तो कुखजुम्मा है शेष ३ भांगा नहीं, और शरीर प्रदेश स्यात् कुडजुम्मा है यावत् कलयुगा है एवं २४ दंडक भी समजना । एक सिद्ध के प्रदेश की पृच्छा ? (गौतम) शरीर प्रदेश नहीं है, और जीव प्रदेश अपेक्षा कुडजुम्मा है, शेष नहीं.
घणा जीवों के प्रदेशाश्रीय पृच्छा ? (गौतम) जीवों अपेक्षा समुचय कहो या अलग २ कहो कुडजुम्मा प्रदेश है, शेष३ भांग नहीं और शरीरापेक्षा समु० स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा । और अलग २ अपेक्षा कुडजुम्मा भी यावत् कलयुगा भी घणा । एवं नरकादि २४ दंडकों में भी समजलेना। ___ घणा सिद्धों की पृच्छा ? ( गौतम ) शरीर प्रदेश नही है, और जीवोंके प्रदेशापेक्षा समुचय और अलग २ में सब ठिकाणे कुडजुम्मा प्रदेश कहनां शेष ३ भांगा नहीं। (३) क्षेत्रापेक्षा प्रमाण. .. हे भगवान् ! समुचय एक जीव क्या कुडजुम्मा प्रदेश अवगाह्य है यारत् कलयुग प्रदेश अवगाह्य है ? (गौतम) स्यात् फुडजुम्मा प्रदेश अवगाय है यावत् स्यात् कलयुगा प्रदेश अवगाय है, एवं २४ दंडकों और सिद्ध की भी व्याख्या करनी।
घणा जीव की पृच्छा ? ( गौतम ) समुचय तो कुडजुम्मा प्रदेश अवगाह्य है, क्योंकि जीव सर्व लोक में है और लोकाकाश कुडजुम्मा प्रदेशी है, असग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा प्रदेश अवगाध है, यावत धणा फलयुगा प्रदेश अवगाहा है। .. घणा नारकी की पृच्छा ? ( गौतम ) समुचय स्यात् कुडसुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा प्रदेश अवगाहा है और अलग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा यावत् घणा कलयुगा प्रदेश अवगाव
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है एवं एकेन्द्री वर्ज के यावत् वैमानिक और सिद्धोंकी व्याख्या करनी और एकेन्द्रीय समुचय जीववत् कहना । (४) कालापेक्षा प्रमाण.
हे भगवान् ! समुचय एक जीव क्या कुडजुम्मा समय स्थिति वाला है यावत् कलयुगा समय की स्थिति वाला है ? ( गौतम ) कुडजुम्मा स्थितीवाला है, क्योंकि काल का समय कुडजुम्मा है और जीव सब काल में शाश्वता है।
एक नारकी के नेरिये की पृच्छा! (गौतम) स्यात् कुर जुम्मा यावन् कलयुगा समय की स्थिति का है एवं २४ दंडक और सिद्ध समुचय जीव की माफिक समझना।
घणा जीव की पृच्छा! ( गौतम ) समुचय और अलग २ कुडजुम्मा समय की स्थिति वाले है शेष बोल नहीं ।
घणा नारकी की पृच्छा! (गौतम) समुचय स्यात् कुर जुम्मा यावत् कलयुगा समय की स्थिति वाले है और अलग २ अपेक्षा कुडजुम्मा घणा यावत् घणा कलयुगा समय की स्थिति वाले है एवं २४ दंडकों और सिद्ध समुचयवत् । (५) भावापेक्षाप्रमाण,
हे भगवान् ! समुचय एक जीव काला गुण पर्यायापेक्षा क्या कुडजुम्मा यावत् कलयुगा है ? ( गौतम ) जीव, प्रदेशाश्रीय वर्णादि नहीं है, और शरीर प्रदेशापेक्षा स्यात् कुडजुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा पर्याय वाला है, एवं २४ दंडकों और सिद्धों के शरीर नहीं।
समुचय घणा जीव की पृच्छा! (गौतम) जीवों के प्रदे. शोंपेक्षा वर्णादि नहीं है और शरीरापेक्षा स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा पर्याय वाले है, एवं २४ दंडकों भा समझ लेना और
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काले वर्ण की व्याख्या के माफिक शेष वर्ण ५ गंध, २ रस, ५ स्पर्श आठ एवं २० बोलों की व्याख्या समझ लेना।
(६) ज्ञानपर्यःवापेक्षा प्रमाण.. हे भगवान् ! समुचय एक जीव मतिज्ञान की पर्यायापेक्षा क्या कुरजुम्मा है, यावत् कलयुगा है ? (गौतम) स्यात् कुड सुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा है, एवं एकेन्द्रीय पर्ज के शेष १९ रंडकों समझ लेना। एकेन्द्रीय में मतिज्ञान नहीं है ओर इसी तरह घणा जीवोंपेक्षा समुचय और अलग २ की व्याख्या भी करदेनी, एवं श्रुतज्ञान भी समझना और अवधीज्ञान की व्याख्या भी इसी तरह करदेना परन्तु १९ दंडक की जगह १६ दंडक काना क्योंकि पांच स्थावर के सिवाय तीन विकलेन्द्री में भी अवधीज्ञान नहीं होता है और मनः पर्यव ज्ञान की भी व्याख्या भतिज्ञानयत् करनी परन्तु मनुष्य दंडक सिवाय अन्य दंडक में मनः पर्यव ज्ञान नहीं है, इस लिये एक ही दंडक कहना। केवल ज्ञान की पृच्छा ? ( गौतम) कुड जुम्मा पर्याय है शेष तीन बोल नहीं एवं घणा जीव समुचय और अलग २ की भी व्याख्या करदेनी। ___मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान में २४ दंडक और विभंग ज्ञान मे १६ दंडक चक्षुदर्शन में १७ दंडक, अयक्षुदर्शन में २४ दंडक और अवधी दर्शन में १६ दंडक इन सबकी व्याख्या मतिज्ञानवत् समझनी, और केवल दर्शन केवलज्ञानकी माफिक यह थोकडा एवं दीर्घद्रष्टि से विचारने लायक है, धर्म ध्यान इसी को कहते
द्रव्यानुयोग में उपयोग की तिव्रता होने से कमों की बड़ी प्रारी निर्जरा होती है, इस लिये मोक्षाभिलाषियों को हमेशा इस पात की गवेषणा करनी चाहिये । इति ।
. सेवभते सेवभंते तमेव सचम् ।
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१०२ थोकड़ा नं. ६०.
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ४.
(जीव कंपाकंप.) हे भगवान् ! समुचय जीव क्या कंपायमान है या अकंप है ( गौतम ) जीव दो प्रकार के है । एक सिद्धोंके और दूसरे संसारी जिसमें सिद्धों के जीप दो प्रकार के है, एक अणंतर ( जो एक समय का ) सिद्धा और दूसरा परंपर (बहुत समय का) सिद्धा मो परम्पर सिद्ध है वे अकंप है और अणंतर सिद्ध । धे कंपायमान है अगर कंपायमान है तो कया देश ( एक हिस्सा) कंपायभान है या सर्व कंपायमान है ? देश कंपायमान नहीं है किन्तु सर्व कंपायमान है क्योंकि मोक्ष जाता हुआ जीव रस्ते में सर्व प्रदेशों से चलता है। "संसारी जीव दो प्रकार के है एक शलेस प्रतिपन्न । चौदवे गुणस्थानवर्ती) और दूसरा अशैलेस (पहिले से तेरवें गुण स्थान तक के ) जिस में शैलेस प्रतिपन्न है वह अकंप है, और अशलेस है बह कंपायमान है ? अगर कंपायमान है तो क्या देश कंपायमान है या सर्व कंपायमान है, देश कंपायमान भी ।
और सर्व कंपायमान भी है। जैसे हाथ हिलाना यह देश कंपायः मान या आत्म सर्व प्रदेशों से गती आगती करता है सो सर्व है।
नारकी के नेरीयों की पृच्छा ? ( गौतम ) देशकम्प भी। और सर्व कम्पी भी है कारण नारकी दो प्रकार के है, एक परभव गमन गतीवाले, और दूसरे वर्तमान भवस्थित देशकंप है, इसी माफिक भुवनपति १०, स्थावर, ५ विकलेन्द्री, तीन १ मनुष्य, ग्यंतर. १ जोतिषी और वैमानिक भी समझ लेना । इति ।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
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१०३
थोकडा नं० ६१.
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ४. ( पुद्गलों की अल्पबहुत्व. )
पुद्गल - परमाणु संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनप्रदेशी स्कंध इनकी द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश की अल्पा बहुत्व कहते है
( १ ) सबसे स्तोक अनन्त प्रदेशी स्कंध के द्रव्य है । (२) परमाणु पुद्गल के द्रव्य अनन्त गुणे ।
( ३ ) संख्यातप्रदेशी के द्रव्य संख्यात गुणे ।
( ४ ) असंख्यातप्रदेशी के द्रव्य असंख्यात गुणे |
प्रदेशापेक्षा भी अल्पाबहुत्व इसी माफिक ( द्रव्यवत् ) समझलेना ।
( द्रव्य और प्रदेश की अल्पावहुत्व . )
( १ ) सब से स्तोक अनन्तप्रदेशी स्कंध के द्रव्य । ( २ ) तस्य प्रदेश अनंत गुणे ।
( ३ ) परमाणु पुद्गल के द्रव्य प्रदेश अनंत गुणे ।
( ४ ) संख्यात प्रदेशी स्कंध के द्रव्य संख्यात गुणे । ( ५ ) तस्य प्रदेश संख्यात गुणे ।
( ६ ) असंख्यात प्रदेश स्कंध के द्रव्य असंख्यात गुणे ! (७) तस्य प्रदेश असंख्यात गुणे ।
क्षेत्रापेक्षा अल्पाबहुत्क
(१) सब से स्तोक एक आकाश प्रदेश अवगाहा द्रव्य ।
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(२) संख्यात प्रदेश अवगाह द्रव्य संखात गुणे । (३) असंख्यात प्रदेश अवगाह द्रव्य असंख्यात गुणे। । इसी माफिक प्रदेश की भी अल्पाबहुत्व समझ लेना। (१) सब से स्तोक एक प्रदेश अबगाह द्रव्य और प्रदेश । (२) संख्यात प्रदेश अवगाह द्रव्य संख्यात गुणे। (३) तस्य प्रदेश संख्यात गुणे। (४) असंख्यात प्रदेश अवगाह द्रव्य असंख्यात गुणे। (५) तस्य प्रदेश असंख्यात गुणे।
कालापेक्षा अल्पाबहुत्व. (१) सब से स्तोक एक समय की स्थिति के द्रव्य । (२) संख्यात समय स्थिति के द्रव्य संख्यात गुणे। (३) असंख्यात समय स्थिति के द्रव्य असंख्यात गुणे। इसी माफिक प्रदेशों की भी अल्पाबहुत्व समझ लेना। (१) सब से स्तोक एक समय की स्थिति के द्रव्य और प्रदेश (२) संख्यात समय की स्थिति के द्रव्य संख्यात गुणे। . (३) तस्य प्रदेश संख्यात गुणे। (४) असंख्यात समय की स्थिति के द्रव्य असंख्यात गुणे। (५) तस्य प्रदेश असंख्यात गुणे।
भावापेक्षा प्रमाण कि अल्पाबहुत्व. (१) सब से स्तोक अनन्त गुण काले पुगलों के द्रव्य। (२) एक गुण काला पुद्गल द्रव्य अनन्त गुणे । (३) संख्यात गुण काला पुद्गल द्रव्य संख्यात गुणे। (४) असंख्यात गुण काला पुद्गल द्रव्य असंख्यात गुणे। इसी माफीक प्रदेशों की भी अल्पाबहुत्व समझ लेनी। (१) सब से स्तोक अनंत गुण काले के द्रव्य ।
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(२) तस्य प्रदेश अनन्त गुणे। (३) एक गुण काला द्रव्य और प्रदेश अनन्त गुणे । (४) संख्यात प्रदेश काले० पु. द्रव्य सं० गुणे। (५) तस्य प्रदेश संख्यात गुणे। (६) असं० प्रदेश काले पु० द्रव्य असंख्यात गुणे। (७) तस्य प्रदेश असं० गुणे।
इसी माफिक ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ४ स्पर्श ( शीत, उष्ण, स्निग्ध, सक्ष, ) एवं १६ बोलों की व्याख्या काले वर्णवत् तीन तीन अल्पबिहुत्व करनी।
कर्कश स्पर्श की अल्पाबहुत्व. (१) सब से स्तोक एक गुण कर्कश का द्रव्य । (२) स. गुरु ककेश द्रव्य स• गु० । (३) असं गु० कर्कश द्रव्य असं गुः। (४) अनंत गुणा कर्कश द्रव्य अनंत गुणे।
कर्कश स्पर्श प्रदेशापेक्षा अल्पा० (१) सब से स्तोक एक गुण कर्कश के प्रदेश । (२) संः गुणा ककेश के प्रदेश असं• गुणे। (३) असं गुणा कर्कश के प्रदेश असं० गुणे।
(४) अनंत गुणा कर्कश के प्रदेश अनंत गुणे । ... कर्कश० द्रव्य प्रदेशापेक्षा अल्पा० ।
(१) सब से स्तोक एक गुण कर्कश के द्रव्य प्रदेश।
(२) सं० गुणा कर्कश पुद्गल द्रव्य सं० गुणे। . (३) तस्य प्रदेश असं० गुणे।
(१) असं० गुणा कर्कश पुगल द्रव्य असं० गुणे। (६) तस्य प्रदेश असं० गुणे।
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(६) अनंत गुणा कर्कश पुगल द्रव्य अनंत गुणे। (७) तस्य प्रदेश अनंत गुणे ।
इसी माफिक मृदुल, गुरु, लघु भी समझ लेना । कुल ६९ अल्पाबहुत्व हुई।३ द्रव्य की, ३ क्षेत्र की, ३ काल की, और ६० भाव की।
. सेवंभंते सेवभंते तमेव सञ्चम् ।
थोकडा नं० ६२.
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ० ४. ( १ ) द्रव्य प्रदेशापेक्षा पुच्छा।
हे भगवान् ! एक परमाणु पुद्गल द्रव्यापेक्षा क्या कुडजुम्मा है यावत् कलयुगा है ? गौतम ! कलयुगा है, शेष तीन भांगा नहीं एवं यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यापेक्षा कलयुगा है।
घणा परमाणु पुद्गल की द्रव्यापेक्षा पृच्छा ? गौनम ! समुषयापेक्षा स्यात् कुडजुम्मा स्यात् चारों भांगा पावे, अलग २ को अपेक्षा केवल कलयुगा शेष ३ भांगा नहीं एवं यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध भी समझना।
एक परमाणु पुदल प्रदेशापेक्षा पृच्छा! (गोतम कलयुगा है शेष भागा नहीं, एक दोपदेशी स्कंधको प्रच्छा! गौतम दापरमुम्मा है, एक तीन प्रदेशी स्कंध तेउगा है, एक चार प्रदेशी स्कंध कुडजुम्मा है, एक पांच प्रदेशी स्कंध कलयुगा है, एक के प्रदेशी स्कंध दावरजुम्मा है, एक सात प्रदेशी स्कंध तेउगा है, एक आठ प्रदेशी स्कंध कुडजुम्मा है, नव प्रदेशी स्कंध कलयुगा
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है, दश प्रदेशी स्कंध दावरजुम्मा है, शेष तीन भांगा नहीं, एक संख्यात प्रदेशी स्कंध स्थात् कुखजुम्मा यावत् कलयुगा एवं यावत् एक अनन्त प्रदेशी स्कंध में भी चारों भांगा समझ लेना।
घणा परमाणु पुद्गल को पुच्छा! (गौतम) समुचयापेक्षा स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा है, और अलग २ अपेक्षा कल. युगा है. शेष तीन भांगा नहीं।
घणा दो प्रदेशी स्कंध की पृच्छा? गौनम ! समुचयापेक्षा स्यात् कुडजुम्मा तथा स्यात् दावरजुम्मा है शेष दो भांगा नहीं और अलग २ की अपेक्षा दावरजुम्मा है, शेष तीन भांगा नहीं, घणा तीने प्रदेनी स्कंध समुचयापेक्ष स्यात् कुडजुम्मादि चारों भांगा पावे और अलग २ की अपेक्षा ते उगा है, घणा चार प्रदेशी स्कंध समुचयापेक्षा कुडजुम्मा है, और अलग २ की अवेक्षा भी कुडजुम्मा है, शेष ३ मांगा नहीं, घणा पांच प्रदेशी स्कंध और घणा नौ प्रदेशी स्कंध की व्याख्या परमाणु पुद्गलबत्, घणा छः प्रदेशी और घणा दश प्रदेशी की व्याख्या दो प्रदेशीवत् , घणा सात प्रदेशी की व्याख्या तीन प्रदेसीवत् और घणा आठ प्रदेशी की व्याख्या चार प्रदेशोवत् कह देना। __ घणा संख्यात प्रदेशी स्कंध को पृच्छा ? गौतम ! समुचया. पेक्षा स्यात् चारों भांगा पावे । और अलग २ की अपेक्षा भी चारों भांगा पावे! कुडजुम्मा भी घणा यावत् कलयुगा भी घणा एवं असंख्यात् प्रदेशी और अनंत प्रदेशी भी समझ लेना।
( २ ) क्षेत्रापेक्षा पृच्छा
हे भगवान् ! एक परमाणु पुद्गल क्या कुडजुम्मा यावत् कलयुगा प्रदेश अबगार है ? कलयुगा प्रदेश अवगाया है शेष ३ माँगा नहीं। * एक दो प्रदेशी स्कंध की पृच्छा ? गौतम । स्यात् दावर
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जुम्मा स्यात् कलयुगा प्रदेश अवगाया है शेष दो भांमा नहीं। एक तानीप्रदेशी स्कंध स्यात् तेउगा दावरजुम्मा और कलयुगा प्रदेश अवगामा है, कुडजुम्मा नहीं। एक चार प्रदेशी स्कंध स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा प्रदेश अवगाया है। एवं यावत् पांच, छ, सात आठ, नौ, दश प्रदेशी संख्यान असंख्यात और अनंत प्रदेशी.भी स्यात कुडजुम्मा यावत् कलयुगा आवगाहा है।
घणा परमाणु पद्गल की पृच्छा ? गौतम! समुचय कुडजुम्मा प्रदेश आधगाह्मा है। कारण परमाणु सर्व लोक में है। भलग २ की अपेक्षा कलयुगा प्रदेश अवगाला है। घणा दो प्रदेशी स्कन्ध की पच्छा ? गौतम! समुचय कुडजुम्मा प्रदेश अषगाया है और अलग २ की अपेक्षा घणा दावरजुम्मा घणा कलयुगा प्रदेश अवगाला है। शेष दो भांगा नहीं। घणा तीन प्रदेशी स्कन्ध समुचय की अपेक्षा कुडजुम्मा प्रदेश अवगाह्मा है। अलग २ की अपेक्षा घणा तेउगा दाधरजुम्मा और कलयुगा प्रदेश अवगाहा है। शेष कुडजुम्मा नहीं। घणा चार प्रदेशी स्कन्ध समुचय की अपेक्षा कुडजुम्मा प्रदेश आवगाया है । अलग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा यावत् घणा कलयुगा प्रदेश अब. गाया है एवं पांच प्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी की व्याख्या चार प्रदेशीषत् करनी। • (३) कालापेक्षा पृच्छा
हे भगवान! एक परमाणु पुद्गल क्या कुडजुम्मा यावत् कलयुगा समय की स्थिति वाला है ? गौतम स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा समय की स्थिति वाला है एवं दो तीन यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी समझ लेना।
घणा परमाणु पुद्गल की पच्छा ? गौतम! समुचय स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा समय स्थिति का है एवं अलग २ की
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अपेक्षा भी घणा कुडजुम्मा यावत् कलयुगा समय कि स्थिति का है इसी माफक दो, तीन यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी समझ लेना ।
( ४ ) भाषापेक्षा पृच्छा
हे भगवान् ! एक परमाणु पु० कालावर्ण की पर्यायाश्रीय क्या कुडलुम्मा प्रदेशी है यावत् कलयुगा प्रदेशी है ? ( गौतम ) स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा प्रदेशी है एवं दो तीन यावत् अनन्त प्रदेशी भी समझ लेना, घणा परमाणु की पृच्छा ? ( गौतम ) समुचय स्यात् कुडजुम्मा यावत् कलयुगा प्रदेशी है, अलग २ की अपेक्षा घणा कुडजुम्मा यावत् कलयुगा प्रदेशी है एवं दो तीन यावत् अनन्त प्रदेशी की भी व्याख्या करनी, जैसे काले वर्ण का कहा इसी तरह शेष ४ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ४ स्पर्श ( शीत, ऊष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, ) एवं १६ बोल समझ लेना ।
एक अनन्त प्रदेशी स्कंध कर्कश स्पर्शाश्रीय क्या कुडजुम्मा प्रदेशी यावत् कलयुगा प्रदेशी है ? ( गौतम ) स्यात् कुड जुम्मा यावत् स्यात् कलयुगा प्रदेशी है एवं घणा अनन्त प्रदेशी स्कंध भी समुचयापेक्षा स्यात् चारों भांगा और अलग २ अपेक्षा भी चारों भांगा ( कुडजुम्मा भी घणा यावत् कलयुगा भी घणा कहना ) एवं मृदुल गुरु, लघु की भी व्याख्या करनी, ये चार स्पर्श वाले पुद्गल संख्यात, असंख्यात प्रदेशी नहीं होते किन्तु अनन्त प्रदेशी ही होते है क्योंकि ये चार स्पर्श बादर स्कंध में होते है जहां ये चार स्पर्श हैं वहां पूर्व कहे चार स्पर्श नियमा हैं, यह थोकडा दीर्घ दृष्टि से विचारने योग्य है ।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् । -XCO3+
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थोकड़ा नं. ६३
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श्री भगवती सूत्र श० २५ उ० ४..
(परमाणु). हे भगवान् ! परमाणु पुद्गल क्या कम्पायमान है के अकम्प है ? गौतम ! स्यात् कम्पायमान है स्यात् अकम्प है एवं दो तीन यावत् दश प्रदेशी तथा संख्यात् असंख्यात् और अनन्त प्रदेशी भी समझ लेना।
घणा परमाणु पुद्गल की पृच्छा ? गौतम! कम्पायमान भी घणा और अकम्प भी घणा इसी तरह घणा दो तीन प्रदेशी यावत् घणा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी समझ लेना।
एक परमाणु पुद्गल कम्पायमान रहे तो कितने काल तक और अकम्प रहे तो कितने काल तक रहे ! गौतम! कम्पायमान रहे तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलीका के असंख्यात में भाग और अकम्प रहे तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्याता काल एवं दो, तीन यावत् अनन्त प्रदेशी समझ लेना।
घणा परमाणु पुद्गल कम्पायमान तथा अकम्प की पच्छा ? गौतम! सदा काल सास्वता एवं दो, तीन यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध समझ लेना।
एक परमाणु पुद्गल कापायमान तथा अकम्प का अन्तर पडे तो कितने काल का ? गौतम! कम्पायमान का स्वस्थाना. पेक्षा ज० एक समय उ. असंख्याता काल और परस्थानापेक्षा न. एक समय उ. असंख्यात काल और अकम्प का स्वस्थानापेक्षा ज. एक समय उ• आवलिका के असं० भाग और पर .
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स्थानापेक्षा न० एक समय उ० असंख्याता काल क्योंकि दो आदि प्रदेश में जाकर रहे तो असं० काल तक रहे ।
दो प्रदेशी स्कन्ध की पृच्छा ? गौतम ! कम्पमान का स्वस्थान अन्तर ज ० एक समय उ० असं काल परस्थानापेक्षा न० एक समय उ० अनन्त काल क्योंकि जो परमाणु अलग हुवा है वही परमाणु अनन्त काल के पीछे अवश्य आकर मिलता है । उत्कृष्ट अनन्त काल तक अलग रहे और अकम्प की स्वस्थानापेक्षा ज० एक समय उ० आवलीका के असं० भाग परस्थानापेक्षा न० एक समय उ० अनन्त काल एवं तीन, चार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध समझ लेना ।
घणा दो प्रदेशी तीन प्रदेशी यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का अन्तर नहीं क्योंकि बहुवचन होने से कम्पायमान और अकम्प सास्वते होते है ।
( कम्पायमान् तथा अकम्प का अल्पा ० )
( १ ) सब से स्तोक कम्पायमान परमाणु.
(२) अकम्पमान परमाणु असंख्यात गुणा.
एवं दो प्रदेशी यावत असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध कम्पायमान अकम्प असंख्यात गुणे.
(१) सबसे स्तोक अकम्पायमान अनन्त प्रदेशी स्कन्ध । : ( २ ) कम्पायमान अनन्त प्रदेशी स्कन्ध अनन्त गुणे ।
( परमाणु पु० से अनं० प्रदेशी स्कन्ध की कम्पाकम्प आश्रयद्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश की अल्पा० । ) ( १ ) सबसे स्तोक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का अकम्प द्रव्य । ( २ ) अनन्त प्रदेशी कम्पायमान द्रव्य अनन्त गुणे । (३) परमाणु पु० कम्पायमान द्रव्य अनंत गुणे ।
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४) संख्यात प्र० कम्पायमान द्रव्य असं० गुणे। (५) असंख्यात प्र. , , " " (६) परमाणु पु० अकम्प० " " " . (७) संख्यात प्र. , , सं० , (८) असंख्यात प्र. " , असं० " - इसी माफक प्रदेशकी अल्पा० समझना; परन्तु परमाणु को
भप्रदेशी कहना और ७ में बोल में संख्यात प्र० स्कन्ध के प्रदेश असंख्यात गुणा कहना अब द्रव्य और प्रदेश की अल्पा० । (१) सबसे स्तोक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध अकम्प का द्रव्य ।। (२) तस्य प्रदेश अनन्त गुणे। (३) अनन्त प्रदेशी स्कन्ध कम्पायमान का द्रव्य अनन्त गुणे। (४) तस्य प्रदेश अनं० गुणे। (५) परमाणु पु० कम्पायमान द्रव्य प्रदेश अनं० गुणे । (६) संख्यात प्र० कम्पायमान द्रव्य असं० गुणे। (७) तस्य प्र० संख्यात गुणे। (८) असंख्यात प्र० कम्प० द्रव्य असं० गुणे। (९) तस्य प्रदेश असं० गुणे। (१०) परमाणु पु० अकम्प० द्रव्य, प्रदेश असं० गुणे । (११) सं० प्र० अकम्प द्रव्य असं० गुणे । (१२) तस्य प्रदेश सं० गुणे। (१३) असं० प्र० अकम्प. द्रव्य असं० गुणे। (१४) तस्य प्रदेश असं० गुणे ।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम्.
- - १ असंख्यात् गुणा कहा सो विचारणीय है ।
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११३ थोकडा नं०६४
श्री भगवती सूत्र श० २५-उ०४
(परमाणु पुद्गल ). है भगवान ! एक परमाणु पु. क्या सर्वकम्प है, देश कम्प है या अकम्प है ? गौतम ! देश कम्प नहीं है स्यात् सर्व कम्प है स्यात् अकम्प है । देशकम्प नहीं है।
दो प्रदेशी स्कन्ध की पृच्छा. गौतम ! स्यात् देश कम्प ( एक विभाग) है। स्यात् सर्व कम्प है और स्यात् अकम्प भी है एवं तीन चार यावत् अनन्त प्रदेशी की भी व्याख्या इसी तरह करनी।
घणा परमाणु की पृच्छा. गौतम ! देश कम्प नहीं है सर्व कम्प घणा और अकम्प भी घणा है और घणा दो प्रदेशी स्कन्ध, देश कम्प भी घणा, सर्व कम्प भी घणा, और अकम्प भी घणा, इसी तरह घणा तीन, चार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी समझ लेना। - हे भगवान् ! एक परमाणु पु० सर्व कम्प और अकम्प पने रहे तो कितने काल तक रहे ? गौतम ! कम्पायमान रहे तो जा एक समय उ० आवलीका के असंख्यात में भाग जितना काल और अकम्प रहे तो ज. एक समय उ. असं० काल. तथा दो प्रदेशी स्कन्ध देश कम्पायमान और सर्व कम्पायमान पने रहे तो न. एक समय उ० आवली के असं० भाग जितना काल और अकम्प पने रहे तो ज. एक समय उ० असं० काल एवं तीम, चार
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११४
यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी समझ लेना और घणा परमाणु, दो प्रदेशी, तीन प्रदेशी यावत् घणा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध सर्व कम्प, देश कम्प और अकम्प सद्धिा याने सास्वता है।
एक परमाणु पु० के सर्वकम्प और अकम्पका अन्तर कितना है ? गौतम ! कम्पायमान स्वस्थानाश्रीय ज. एक समय उ० असं० काल एवं परस्थानाश्रीय भी समझना और अकप का स्वस्थानाश्रय जल एक समय उ. आवली का के असं० भाग और अन्यस्थानाश्रय ज. एक समय उ. असं काल भावना पूर्ववत् क्योंकि विप्रदेशादि स्कन्ध की स्थिति असंख्याता काल की है ।
द्वि प्रदेशी स्कन्ध देश कम्प, सर्व कम्प और अकम्प का भन्तर ज० तो सबका एक समय है और उत्कृष्ट देश कम्प और सर्व कम्प का स्वस्थानापेक्षा ज० एक समय उ० असं काल और परस्थान आश्री अनन्त काल क्योंकि वे दो प्रदेश अलग २ होकर दूसरे स्कन्धों में जा मिले तो उ० अनन्ता काल तक अलग रहकर फिर ही दो प्रदेश दो प्रदेशी स्कन्धपने मिले तो उ. अनन्त काल में मिले और अकम्प का अन्तर स्वस्थानापेक्षा उ० आवली का के असं भाग और पर स्थानापेक्षा अनन्त काल भावना पूर्ववत् एवं तीन, चार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को भी व्याख्या कर देनी।
घणा परमाणु पु. दो प्रदेशी स्कन्ध तीन प्रचार प्र यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के देश कम्प, सर्वकम्प और अकम्प का अन्तर नहीं है कारण सर्व काल में तीनों प्रकार के पुद्गल सास्वते है।
(प्रत्येक अल्पाबहुत ). (१) सबसे स्तोक सर्व कम्पायमान परमाणु पुर। (२) अकम्प परमाणु पु. असं गुणा ।
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(१) सबसे स्तोक दो प्रदेशी स्कन्ध सर्व कम्प । (२) दो प्रदेशी स्कन्ध देश कम्प असं० गु० । (३)
अकम्प असं? गु० एवं दो, तीन यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध की भी अल्पा० दो
प्रदेशीवत् अलग २ लगा लेना। (१) सबसे स्तोक अनन्त प्र० स्कन्ध सर्व कम्प। १२) अकम्प अनन्त प्र० स्कन्ध अनन्त गुणा । (३) देशकम्प , अनन्त गुणा।
द्रव्यापेक्षा अल्पाबहुत्व. (१) सबसे स्तोक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का सर्वकम्प द्रव्य । (२) अनं० प्र० अंकम्प का द्रव्य अनन्त गुणा । (३) ,, , देशकम्प , अनं० गुः । (४) असं० प्र० सर्वकम्य, अनं० गु। (५) सं० प्र० " "
असं० गु०॥ (६) परमाणु पु. , , असं० गु०। (७) सं० प्र० देशकम्प० , असं० गु० । । ८ असं०प्र०
असं० गु०। (९) परमाणु पु० अकम्प०, असं० गुरु। . (१०) सं० प्र०
सं० गुल। (११) असं० प्र० ,
असं गुरु। इसी तरह प्रदेश की भी अल्पार समझ लेना; परन्तु परमाणु को अप्रदेशी और १० में बोल में संख्यात प्रदेशी अकम्प अ० असं० गुणे कहना।
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(द्रव्य और प्रदेश की अल्पाबहुत्व ) . (१) सबसे स्तोक अनन्त प्र० सर्व कम्पका द्रव्य । (२) तस्य प्रदेश अनन्त गुणे । (३) अनं०प्र० अकम्प द्रव्य अनं० गुणे। (४) तस्य प्र. अने० गुणे। (५) अनं० प्र० देशकम्प द्रव्य अनं० गुणे । (६) तस्य प्र० अनंत गुणे। (७) असं० प्र० सर्वकम्प० द्रव्य अनं० गु०। (८) तस्य प्र० असंख्यात गुणे। (९) सं० प्र० सर्वकम्प० द्रव्य अस० गु०। (१०) तस्य प्र० संख्यात गुणे । (११) परमाणु पु० सर्वकम्प० द्रव्य प्र० असं० गु०। (१२) सं० प्र० देशकम्प द्रव्य असं • गु० । (१३) तस्य प्र० संख्यात गुणे । (१४) असं० प्र० देशकम्प द्रव्य असै० गु० । (१५) तस्य प्रदेश असं० गु० । (१६) परमाणु पु० अकम्प द्रव्य प्रदेश असं गुः । (१७) सं० प्र० अकम्प द्रव्य सं० गु० । (१८) तस्य प्रदेश सं० गुः । (१९) असं० प्र० अकम्प द्रव्य असं० गु० । (२०) तस्य प्रदेश असं• गुरू। यह थोकडा खूब दीर्घ दृष्टी से विचारने योग्य है।
सेवभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ।
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थोकडा नं०६५
श्री भगवती सूत्र श० ८ उ०-१
(पुद्गल). सर्व लोक में पुद्गल तीन प्रकार के है. प्रयागशा, मिश्रशा और विशेशा। दोहा-जीष गृह्या ते प्रयोगशा मिशा जीवा रहित ।
विशेषा हाथ आवे नहीं ज्ञानी भाष्या ते तहत् ।। प्रयोगशा-जीव ने जो पुद्गल शरीरादिपने गृहण किया वह । मिश्रशा-जीव शरीरादि पने गृहण करके छोडे हुवे पुद्गल । विशेषा-शीतोष्णादि पने जो स्वभाव से प्रणम्या पुद्गल । ___ अब इन पुदगलों का शास्त्रकारोने अलम २ भेद करके बतलाया है, प्रयोगशा पु. का नव दंडक कहते है जिसमें पहिले दंडक में नीष के ८१ भेद है, यथा सात नारकी, रत्नप्रभा, शर्कराप्रमा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा तमप्रभा, तमस्तमःप्रभा.१० भुवनपति-असुरकुमार, नागकु. सुवर्णकु. विद्युतकु. अग्निकु०बीपकु. दिशाकु० उदधिकु० वायुकु० स्तनित्कुमार. ८ व्यंतर-पिशाच, मृत, जक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व. ५ ज्योतिषीचन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा. १२ देवलोक सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्मा, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आणत, प्राणत्, आरण, अच्युत. ग्रेवेक-भद्र, सुभद्र, सुजया, सुमाणसा, पुरर्शना, प्रियदर्शना, अमोय, सुपडिबन्धा, यशोधरा. ५ अनुत्तर मान-विजय, विजयंत, जयंत, अपराजित, सर्वार्थसिद्ध. ५ साम-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, घाउकाय, घनस्पतिकाय
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११८ एवं ५ बादरकाय-पृथ्वीकायादि. ३ विकलेन्द्री बेरिद्री, तेरिद्री, पौरिन्द्री, ५ असन्नीतियच. जलचर, स्थलघर, खेचर, उरपरी भुजपरी, एवं ५ सन्त्री निर्यच जलचरादि० दो मनुष्य-गर्भज और समुत्सम यह पहिले, दंडके ८१ भेद हुवे।
(२) दूसरा दंडकमे जीवोंके पर्याप्ता-अपर्याप्ता के १६१ घोल है जेसे जीवोंके ८१ भेद कहा है जिस्के अपर्याप्ता के ८५
और पर्याप्ता के ८० क्योंकि समुत्सम मनुष्य पर्याप्ता नहीं होते एवं ८१-८० मिलके १६१ भेद दूसरे दंडकका १६१ बोल हुवा,
(३) तीसरे दंडकमें पर्याप्ता अपर्याप्ता के शरीर ४९१ ॥ यथा दूसरे दंडक में जो १६१ बोल कहे हैं जिसमें तीन तीन शरीर सब में पावे कारण नारकी देवता में वैक्रिय, तेजस, कार्मण शरीर है और मनुष्य तिर्यंच में औदारिक, तेजस, कर्मिण है इसलिये १६१ को तीन गुणा करने से ४८३ भेद हुवे तथा वायुकाय और सन्ना तिर्यंच में शरीर पावे चार जिसमें तीन २ पहिले गणचुके शेष ६ बोलों के ६ शरीर और मनुष्य में ५ शरीर है जिसमें। पहिले गण चुके शेष २ मनुष्य के और ६ बायु तिथंच के एवं मिलाने से ४९१ भेद तीजे दंडक का हुवा।
(४) चौथे दंडक में जीवों की इन्द्रियों के ७१३ भेटी यथा दुसरे दंडक में १६१ भेद कह आये हैं जिसमें एकेन्द्रिय २० बोलों में २० इन्द्री विकलेन्द्री के ६ बोलों कि ६८ इन्द्री शेष १३५ बोलों में पांच २ इन्द्री गणनेसे ६७५ इन्द्रियां एवं २०१८-६७५ सब मिलके ७१३ भेद हुवे ।
(५) पांचवे दंडक में शरीर की इन्द्रियों के २१७२, भेद है। यथा-तीसरे दंडक के ४९१ भेद कर आये है जिसमें एकेन्द्रीय के ६१ शरीर में इन्द्रीय ६९ है और विकलेंद्री के १८ शरीर इन्द्रीय ५४ हैं शेष ४१२ शरीर पंचेन्द्रीयके हैं, जिसमें २०६०
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११६ पन्नीयां हैं एवं ६१-५४-२०६० मिलके सर्व २१७५ मेर पांच दंरक के हुवा।
(६) छठे दंरक में पर्याप्तापर्याप्ता में वर्णादिके ४०२५ भेद यथा दूसरे दशक में १६१ बोल कह आये हैं उनको ५ वर्ण २ गंध ५ रस ८ स्पर्श और ५ संस्थान के साथ गुणा करनेसे ४०२५ भेद हाते है, क्योंके १६१ बालों में वर्णादि २५ पचपीस बोल गीननेसे १०२५ बोल हुवे।
(७) सात दंडक के ११६३१ भेद यथा तीसरे दंडक में मो बोल ४९१ शरीर कह आये है, जिसमें वर्णादि २५ बोल पाते है षास्ते वर्णादि २५ बोल से गुणा करनेसे १२२७५ बोल हुये, परन्तु १९१ भेद में १६१ भेद कामण शरीर के है और कार्मण शरीर चौफरसी होता है इसलिये १६१ भेदके चार चार स्पर्श कम करनेसे ६४४ भेद कमती हुवे बाकी ११६३१ भेद सातवे इंटक के।
(८) आठवें दंडक के १७८२५ भेद यथा चौथे दंडक में ७१३ जीयों की. इन्द्रियां कही हैं जिसमें वर्णादि २५ पचविश पोल पावे वास्ते ७१३ बोलों को वर्णादि २५ बोलसे गुणा करनेसे १७८२५ भेद आठवे दंडक के हुवे।।
(९) नौवें दंडक के ५१५२३ भेद यथा पांचवे दंडक के २१७५ भेद कहे हैं, उनको वर्णादि २५ बोलसे गुणा करने से ५५३७५ भेद हुवे परन्तु एक २ इन्द्री में एक २ कार्मण शरीर । और कामण चौस्पर्शी है, इसलिये २८५२ बोल कम करनेणे शेष ५१५२३ भेद नौ दंडक के हुवे एवं नवों दंडक के ८१-१६११९१-७१३-२१७५-४०२५-१९६३१-१७८२५-५१५२३ सब मिला
से ८८६२५ भेद हुवे, सो इतने प्रकारके प्रयोगशा पुद्गल प्रणमसे हैं पदलों की परीही विचित्रता है, पेसा नगत में कोहनीय
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नहीं है कि जिसने इन पुद्गलों को ग्रहण न किया हो एकवार नहीं परन्तु अनन्तीबार इसी तरह ग्रहण कर करके छोड़ा है जैसे प्रयोगशा के नौ दंडक और उनके भेद करके बताये हैं, उसी माफिक मिश्रशाके भी भेद समझ लेना विशेषा पुदगल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, और संस्थानपने प्रणम्या है उसके ५३० भेद है वा शीघ्रबोध दूसरे भागसे समझलेना, एवं प्रयोगशा, मिश्रशा विशेषा के १७७७८० भेद हुवे ।
सेवेमंते सेवभंते तमेव सच्चम् । ___ -- ** -- थोकडा नं. ६६.
श्री भगवती सूत्र श०८-उ० ६.
(बन्ध) बंध दो प्रकारके होते हैं, एक प्रयोगबंध जो किसी दूसरेके प्रयोग से होता है. और दूसरा विशेषबंध जो स्वभाव से ही होता है। . (१) विशेष बंध के दो भेद-अनादिबंध और सादोबंध जिसमें अनादीबंध के तीन भेद है धर्मास्तिकाय का अनादीबंध है एवं अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय का भी अनादि बन्ध है इन तीन के स्वस्थ प्रदेश के साथ अनादिबंध है।
धर्मास्तिकाय का अनादिबंध है वह क्या सर्वबंध है या देश बंध१ गौतम ! देशबंध है क्योंकि संकल के माफिक प्रदेश से प्रदेश बंधा हुवा है, एवं अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय भी बमझ लेना।
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.. धर्मास्तिकाय के विशेषाबंध की स्थिति कितनी है ? गौतम! सर्षादा याने सदाकाल सास्वता बंध है एवं अधर्मास्ति० आकाशास्ति० भी समझ लेना।
सादी विशेषा बन्ध कितने प्रकारका ? गौ० तीन प्रकारका बन्धनापेक्षा, भाजनापेक्षा और परिणामापेक्षा जिसमे बंधामापेक्षा जैसे दो प्रदेशी, तीन, चार यावत् अनंत प्रदेशी का आपस में बंध हो। परन्तु ऋक्षसे ऋक्ष न बंधे स्निग्ध से स्निग्ध न बग्वे परन्तु ऋक्ष और स्निग्ध संबंध होवे वह भी जघन्य गुण धर्जके
से पक गुण ऋक्ष और एक गुण स्निग्ध का बंध न होघे परंतु विषम मात्रा जैसे एक गुण ऋक्ष और दो गुण स्निग्ध का बंध होथे इसी तरह यावत् अनंत प्रदेशी तक समझ लेना, इनकी स्थिती न० एक समय की उ० असंख्याताकाल। __भाजनापेक्षा-जैसे किसी भाजन में जूना गुल तथा तंदूल मदरादि गालने से उनका स्वभाव से बन्ध हो, उनकी स्थिती ज. एक समय उ० संख्याः कालकी है।। . परिमाण बन्ध-जैसे बादल, इन्द्रधनुष, अमोघा, उद्रमच्छादि इनकी स्थिती ज. एक समय उ० छे मासकी है। . __प्रयोग बन्ध के तीन भेद-अनादि अनन्त, अनादि सांत । और सादि सांता जिसमें ( १ ) अनादि अनंत-जीव के आठ रुचक प्रदेशोंका बन्ध वह भी तीन २ प्रदेशके साथ है, और शेष आत्म प्रदेश हैं वे सादि सांत है, (२ सादी अनंत एक सिद्धों के आत्म प्रदेश स्थित हुवे है वह सादी है परन्तु अन्त नहीं, (३) सादि सांतके ४ भेद है-आलाषणबन्ध, अलियाषणबन्ध, शरीरबन्ध, और शरीर प्रयोगवैध ।
आलावणबन्ध-जैसे तृणके मारेका बन्ध, काष्ट के मारेका पन्ध, एवं पत्र, पलाल, वेली आदि का बन्ध इनकी ज० स्थिती एक समय उ० संख्याता कालः ।
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अलियाणबंध के ४ भेद - लेसाण बंध, उच्चयबन्ध, समु arबंध, और साधारणबंध, जिसमें लेसाणबंध जैसे कादेते, चूमेसे, लाखसे, मेणसे, पत्थर तथा काष्टादि को जोडकर घर प्रासाद आदि बनाना इसकी स्थिती अ० अंतर मुहूर्त उ० से. water काल (२) उच्चयबन्ध - जैसे--तृणरासी, काष्टशती, पत्र रासी तुस, भुल० गोबर रासी का ढेर करने से बंध होता है उसकी स्थिती ज० अंतर मुहुर्त उ० संख्याता काल - ( ३ ) समुच्चयबन्ध- जैसे- तालाब, कूषा, नदी, ग्रह, बावडी, पुष्कर्णी, देवकुल, सभा, पर्वत, छत्री, गढ, कोट, किला, घर, रस्ता, चौरस्तादि जिनकी स्थिती ज० अंतर मुहुर्त उ० संख्याताकाबकी है. ( ४ ) साधारणबन्ध - जिसके दो भेद - देसबन्ध जैसेगाडा, गाडली, पीलाण, अम्बाडी, पिलंग, खुरसी, आदि और दूसरा सर्वबन्ध जैसे पाणी दूध इत्यादि इनका स्थिती ज० अंतर मुहुर्त उ० संख्याताकाल ।
शरीरबन्ध के दो भेद-पूर्व प्रयोगापेक्षा और वर्तमान प्रयोगा पेक्षा जिस में पूर्व प्रयोग जैसे नरकादि सर्व संसारी जीवों के जैसा २ कारण हो वैसा २ बंध होता है. और वर्तमान प्रयोग बंध जैसे केवली समुद्घात से निवृत्त होता हुवा अन्तरा और मथन में प्रवृत्तमान तेजस और कारमण का बन्धक होवे, कारण उस वक्त केवल प्रदेशही होते हैं ।
शरीर प्रयोग बन्धके ५ भेद जैसे औदारिक शरीर प्रयोग is, efore आहारक० तेजस० और कारमण शरीर प्रयोगबंध इनकी स्थिती सविस्तार आगे के थोंकडे में कहेंगे
०
सेवंभंते सेवते तमेव सच्चम् ।
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थोकड़ा नं० ६७.
श्री भगवती सूत्र श० ८-उ० ९.
( सर्वबंध देशवंध.) शरीर पांच प्रकारके हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारिक, तेजस, और कार्मण शरीर (१ ) औदारिक शरीर आठ बोल से निपजावे-द्रव्य से, वीर्य से, संयोग से, प्रमाद से, भवसे जोगसे कर्मसे आयुष्य से औदारिक शरीर का स्वामी कौन है?..१) समुषय जीव ( २ ) समुचय एवेन्द्री ( ३ ) पृथ्वीकाय ( ४ ) अप (५)
उ० (६) बाउ० (७) वनस्पति०१८ ) बेरेन्द्री ( ९ तेरिन्द्री (१०) चौरिन्द्री ( ११) तिर्यंच पंचेंद्र।। १२) मनुष्य इन बारह बोलों में सर्व बन्धका आहार ले यह ज. एक समय का है सर्व बन्धका आहार जीव जिस योनी में उत्पन्न हो उस योनी में जाके प्रथम समय ग्रहण करता है और वह प्रथम समय का लिया हुवा आहार उमर भर रहता है, जैसे तेलके अंदर बड़ा का दृष्टांत.
देश बंधका आहार-समुचय जीव, समुचय एकेन्द्रिय, वायुकाय तियेचपंचेन्द्री, और मनुष्य इन पांच बोलों के जीवों का देश बंध के आहार की स्थिति ज. एक समय की भी है कारण ये जीव औदारक शरीर से बैकिय करते हैं और बैंकि. पेसे पीछा औदारिक करते हुये प्रथम समय ही काल करे तो औदारिक के देश बंध का एक समय जघन्य बंधक हुआ. शेष सात बोलों ( ४ स्थावर, ३ विकलेन्द्री) के जीव देश बंध म०. क्षुलक भव से तीन समय भ्यन कारण दो समय की विग्रह गती और एक समय सर्व बंध का एवं ३ समय भ्यन
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क्षुलक भव ( २५६ आवली) देश बंधका आहार करे और. १२ बोल के जीवों की उत्कृष्ट देश बंध की स्थिति नीचे प्रमाणे ।
समुचय जीव, मनुष्य, और तिर्यंच तीन पल्योपम एक समय म्यून समुचय एकेन्द्री, पृथ्वीकाय २२००० वर्ष एक समय यून, एवं अप्पकाय ७००० वर्ष, तेउ० तीन दिन, वायु ३००० वर्ष, वनस्पति १०००० वर्ष, बेरिन्द्री १२ वर्ष, तेरिन्द्री ४९ दिन, चोरिन्द्री ६ मास सब में एक समय न्यून समझना क्योंकि एक समय सर्व बंध का आहार ले।
औदारिक शरीर के सर्व बंध का अन्तर-समुचय औदारिक शरीर के सर्व बंध का अन्तरजा एक क्षुलक भव तीन समय न्यून कारण १ समय प्रथम भष में सर्व बंध का आहार किया
और दो समय की विग्रह गती की और उ० ३३ सागरोपम पूर्व क्रोड वर्ष में एक समय अधिक कारण कोइ जीव पूर्व कोडी का भव किया उसमें एक समय सर्व बंध का आहार लिया सो पूर्व कोड में न्यून हुवा वहां से सातवीं नरक बा सर्वार्थ सिद्ध विमान में ३३ सा. और वहां से २ समय की विग्रह गती करके उत्पन्न हुवा इस वास्ते । समय अधिक कहा शेष ११ बोलों का स्वकायाश्री सर्व बंध का अन्तर जः एक क्षुलक भव नीन समय न्यून और उ० अपनी २ स्थिति से एक समय अधिक समझना भावना पूर्ववत् ।
देश बंध का स्वकायाश्री अन्तर कहते हैं-समुचय जीव, समुचय एकेन्द्री, वायुकाय, तियंच पंचेन्द्री और मनुष्य इनमें जा एक समय उ० अन्तर मुहूर्त ( वैक्रियापेक्षा) शेष ७ बोलों मे ज. एक समय उ. ३ समय ।। .... देश बन्ध का परकायाश्री अन्तर--समुचय एकेन्द्री सर्व बंध अन्तर ज. २ क्षुलक भव तीन समय न्यून और देश बंध
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का एक क्षुलक भव १ समय अधिक उ० दोनों बोलों को २००० सागरोपम संख्याता वर्षाधिक।
बनस्पतिकाय और-समुच्चय एकेन्द्रीय का सर्व अन्तर म. एकेन्द्रीय माफिक उ. असंख्याता काल पृथ्वीकाय की काय स्थितिवत्-शेष ९ बोल का सर्वे बन्धान्तर ज. एकेन्द्री माफिक और उ० अनन्त काल ( वनस्पति काल)।
( अल्पा बहुत्व ) (१) सबसे स्तोक औदारिक शरीर के सर्व बंध के जीवों। (२) अबन्धक जीवों विशेषाधिक । (३) देश बन्धक जीवों असं गुणे।
(२) वैक्रिय शरीर ९ कारणों से बन्धते है जिसमें ८ पूर्व औदारिकवत् और नवमां लब्धि वैकिय । जिसका स्वामी (१ समुच्चय जीव, ( २ ; नारकी, (३) देवता, (४) वायुकाय, (५) तीर्यच पंचेद्री, (६) मनुष्य ।।
समुच्चय क्रिय का बन्ध दो प्रकार के है सर्व बन्ध और देश बन्ध जिसमें सर्व बन्ध की स्थिति ज० एक समय नरकादि प्रथम समय आहार ले वह सर्वबन्ध है) उत्कृष्ट दो समय (मनुष्य, तिर्यंच औदारिक से वैक्रिय धनाता हुवा प्रथम समय का सर्वबंधका आहार गृहण करके काल करे और नारकी देवता में उत्पन्न हो वहां प्रथम समय सर्वबंध का आहार ले इसबास्ते दो समय का सर्वबंध का आहार कहा है ओर देशबंध की स्थिति ज. एक समय मनुष्यादि औदारिक शरीर से वैक्रिय बनावे उस वक्त एक समय का देशबंध का आहार ग्रहण करके काल करे ) उ०३३ सागरोपम एक समय न्युन । . नारकी, देवताओं में सर्व बन्धका आहार ज० उ० एक
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१२६
समय और देशबंध का ज० अपनी २ जघन्य स्थिती से तीन समय न्यून कारण दो समय की विग्रह गती और एक समय सर्व बन्धका । और उ• अपनी २ उत्कृष्ट स्थिती से १ समय
म्यून ।
__वायुकाय तिर्यंच पंचेंद्री और मनुष्य में चैक्रिय शरीर के सर्वबंधके आहार की स्थिती ज० उ० एक समय और देशबन्ध की स्थिती ज० एक समय उ० अन्तरमुहुर्त ।
वैक्रिय शरीर के सर्वबन्ध देशबन्ध का अन्तर ज० एक समय उ० अनंतो काल यावत् वनस्पति काल, नारकी, देवता में स्वकायाश्रीय अन्तर नहीं है, कारण नारकी, देवता मरके नारकी देवता नहीं होते। घायुकाय का स्वकायाश्रीय वैक्रिय शरीर के सर्वबन्ध का अन्तर ज. अंतर मुहुर्त उ० पल्योपम के असंख्यात मे भाग इसी तरह देशबन्धका भी अन्तर समझ लेना। तिर्यच मनुष्य के स्वकायाश्रीय वैक्रिय शरीर के सर्वबन्ध का अन्तर ज० अन्तर मुहुर्त उ० प्रत्येक क्रोड पूर्व वर्षोंका । नारकी देवता का परकायापेक्षा वैक्रिय शरीर के सर्वबन्ध का अन्तर जा अपनी २ जघन्य स्थिती से अन्तर मुहुर्त अधिक और देशबंधका ज. अंतर मुहुर्त उ० दोनों का अनंत काल ( घनस्पतिकाल) आठमे देवलोकतक समझना । नवमें देवलोक से नौ अवेयक तक सबंध का अंतर ज. अपनी २ स्थिती से प्रत्येक वर्ष अधिक और देशबंधका अंतर ज प्रत्येक वर्ष उ० दोनों बोल में अनन्ता काल ( वनस्पतिकाल ) चार अनुतर विमान के देवताओं का सर्वबन्ध अन्तर ज० ३१ सागरोपम प्रत्येक वर्ष अधिक देशबंध का अन्तर ज० प्रत्येक वर्ष उ० सं. ख्याता सागरोपम और सर्वार्थसिद्ध विमान में फिर नहीं जाये वास्ते अन्तर नहीं है, और वायुकाय, तिथंच तथा मनुष्य में
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किय शरीर सर्वबन्ध देशम्बध का आन्तर अन्तर मुहुर्त उ० अनंताकाल वनस्पतिकाल )।
(अल्पा बहुत्व ). (१) सबसे स्तोक वैफ्रिय शरीर के सर्वबंध के जीवों। (२) वैक्रिय शरीर देशबंध वाले जीवों असं गुणे। (३) , , अबंध वाले जीवों अनन्त गुणे ।
(३) आहारिक शरीर बांधने के ८ कारण औदारिकवत् नौवां धि जिसका स्वामी मनुष्य यह भी ऋद्धिवन्त मुनिराज है आहरिक शरीर के सर्वबंध की स्थिती ज० उ० एक समय और देशव की स्थिती ज० उ० अन्तर मुहुर्त अन्तर सर्व बंध देशबंध प्रज० अन्तर मुहुर्त उ० अनन्तकाल यावत् अईपुदल परावर्त । (१) सबसे स्तोक आहारक शरीर के जीवों सर्वबन्ध । (२) आहारक शरीर के देश बन्धके जीवों संख्यात गुणे । १३) , , अबन्धक जीवों अनन्त गुणे ।
(४) तेजस शरीर बंध का स्वामी पकेन्द्रीयसे यावत् पंखेन्द्री है और आठ कारण से बंध होता है औदारिकवत् तेजस घरीर सर्व बंध नहीं होता केवल देशबंध होता है जिसके दो मेद अनादी अनन्त । अभव्यापेक्षा ) और अनादि सान्त ( भव्यापेक्षा ) इन दोनों का अन्तर नहीं है निरन्तर बंध होता है
(१) तेजस शरीर का अवन्धक स्तोक । .(२) और देश बंधक जीवों अनन्त गुणा ।
(५) कार्मण प्रयोग बंध के आठ भेद-यथा ज्ञानावर्णीय एशना०, वेदनी, मोहनी०, आयुष्य०, नाम०, गोत्र०, अंतरायः
आठ कमों के बंधका ७९ कारण शीघ्रबोध० भाग २ में लिखा करमाणका देशबंध है सर्वबंध नहीं होते है स्थिती तथा अन्तर सैबस शरीर के माफिक समझ लेना अल्पाबहुत्व आयुष्य कर्म
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छोड के शेष ७ कर्मकी तेजस शरीरवत् और आयुष्य कि सबसे स्तोक देशबंध के और अबन्धके संख्यात गुणे ।
( परस्पर बन्ध अबन्ध) (१) औदारिक शरीर के सर्वबंध का बंदक है यहां वैक्रिय, आहारिक का अबन्धक है और तेजस कार्मण का देश बन्धक है इसी तरह औदारिक शरीर के देशबंध का भी कह देना। . (२) वैक्रिय शरीरका बंधक है यहां औदारिक, आहारिव शरीर का अबंधक है तेजस कार्मण का देशबंधक है इसी तर वैक्रिय का देशबंध का भी कहना। '
. (३) आहारिक शरीर का बंधक है वहां औदारिक वैक्रिय का अबंधक है और तेजस कार्मण का देशबंधक है एवं आहारिक शरीर के देश बंध का भी कहना।
(४) तेजस शरीर का देशबंधक है वहां औदारिक शरीर का बंधक भी है और अबंधक भी है यदि बंधक है तो देशबंधक भी है और सर्वबंध भी है एवं आहारिक वैक्रिय शरीर भी समा लेना कार्मण शरीर नियमा देशबंध है। (५) कार्मण शरीर की व्याख्या तेजसवत् करना । इति ।
(अल्पाबहुत्व ). (१) सबसे स्तोक आहारिक शरीर का सर्व बंधक । • (२) आहा शरीर का देश बंधक सं• गुः । . (३) वैक्रिय , सर्व , असं० गु० । (४) , , देश , ,
(५) तेजस कार्मण का अबंधका अन• गु० । .. (६) औदा० शरीर सर्वबंधक अनं• गु० ।
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१२६ (७) , , अबंधका विशेषा। (८) , , देश , असं० गु० (९) तेजस कार्मण का देश बंधक विशेषा। (१०) पैक्रिय का अबंधक विशेषा। (११) आहारिक शरीर के अबंधक विशेषा ।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम्.
-* *थोकडा नं. १८
श्री भगवती सूत्र श०८-उ० १०
. (पुद्गल ). हे भगवान् ! पुद्गल कितने प्रकार से प्रणमते है ? गौतम ! पांच प्रकार से यथा व ५, गंध २, रस ५, स्पर्श और संस्थान ५ एवं २५ बोलों से प्रणमते है।
पुदगलास्तिकाय के एक प्रदेश को क्या एक द्रव्य कहना १ या घणा द्रव्य कहना २ या एक प्रदेश कहनो ३ या घणा प्रदेश कहना.४ या एक द्रव्य एक प्रदेश कहना ५ या एक द्रव्य घेणा प्रदेश कहना ६ या घणा द्रव्य एक प्रदेश कहना ७ या घणा द्रव्य घणा प्रदेश कहना? इन ८ भांगा में से एक प्रदेश में दो भांगा पाये ( १ ) एक प्रदेश (२ अपेक्षा से एक द्रव्य भी कहते है।
दो प्रदेशी में पांच भांगा पावे क्रमसर तीन प्रदेशी में सात मांगा पावे क्रमसर चार प्रदेशी में ८ भांगा पाधे एवं ५-६-७-८
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९-१० संख्याते, असंख्याते और अनन्ते प्रदेशो में भी ८-८ भांगा समझ लेना ।। एवं २-५-७-८० सब मिलाके ९४ भांगे हुवे ।
हे भगवान ! जीव पुदली है या पुद्गल है ? गौतम! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है क्योंकि जैसे किसी मनुष्य के पास छात्र हो उसको छत्री कहते हैं दंड हो उसको दंडी कहते हैं इसी माफिक जीव ने पूर्व काल में पुद्गल ग्रहण किया था इस वास्ते पु० ग्रहणापेक्षा से जीवको पुद्गल कहते हैं और श्रोतेन्द्रि, चक्षु०, घ्राण, रस० स्पर्शेन्द्रो की अपेक्षा से जीव को पुद्गली कहते हैं । यहा उपचरित्तनयापेक्षा समझना ।
पृथ्व्यादि पांच स्थावर एक स्पर्शन्द्रीय अपेक्षा पुद्गली है और जीव अपेक्षा पुद्गल है । बेइंद्रिय के दोइन्द्री, तेन्द्रीय के तीनइन्द्रिय चौरिन्द्रीय के चारइन्द्री की अपेक्षा से पुदली है और जीवापेक्षा से पुदल है नारकी १, भुवनपति १०. तिर्यंच पंचेन्द्री १, मनुष्य १, व्यंतर १, ज्योतिषी १, वैमानिक एवं १६ दंडक में पांचइन्द्री की अपेक्षा से पुद्गली है और जीव की अपेक्षा से पुद्गल है भावना पूर्ववत् । इति ।
सेवभंते सेवंभंते तमेव सचम् ।
-*@Kथोकडा नं ६
श्री भगवती सूत्र श० १०-उ० १.
(लोक दिशा) . दिशा दश प्रकार की है यथा-: . (१) इन्द्रा [पूर्व दिशा ], [२] अग्नि [अग्नि कौन ]
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[ ३ ] जमा (दक्षिण दिशा), ( ४ ) नेरुती [ नैरत कौन , ( ५ ) वाउणा [ पश्चिम दिशा ], (६) वायु ( वायव कौन ), (७ ) सोमा [ उत्तर दिशा ], (८) ईसाण [ईसान कौन ], ( ९ ) विमला [ ऊंची दिशा] (१०) तमा [नीची दिशा] ।
इन्द्रा (पूर्व दिशा) में क्या जीव है १ नीष का देश है २, जीवका प्रदेश है ३, अजीव है ४, अजीव का देश है ५, अजीवका प्रदेश है ६? गौतम! हां जीव है यावत् अजीयका प्रदेश है जीव है तो क्या एकेन्द्री है बे० ते चो० पं० और अनेंदिया है ? हां एकेन्द्रीय बेन्द्रीय तेन्द्रीय चौन्द्रीय पंचेन्द्रीय और अनेन्द्रीय ये ६ बोल हैं इनके देश ६ और प्रदेश ६ एवं १८ बोल हुवे ।
अजीव के दो भेद है एक रूपी दूसरा अरूपी जिसमें पूर्व दिशा में रूपी का स्कन्द है स्कन्धदेश है स्कन्धप्रदेश है तथा परमाणु पुद्गल है एवं चार और अरूपी का ७ धर्मास्तिकाय नहीं है परंतु धर्मास्तिकाय का एक देश है और प्रदेश घणा है एवं अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय २ और सातवां काल एवं अजीव के ११ और जीव के १८ सब मिला के २९ बोल पूर्व दिशा में पावे एवं पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में २९-२९ बोल पावे।
अग्निकौन की पृच्छा ? गौ० जीव नही है जीव का देश है, यावत् अजीवका प्रदेश है अगर जीषके देश है तो क्या एकेन्द्रीयके है।
(१) अग्निकौन में नियमा एकेन्द्रीयका देश है। ( २ ) घणा एकेन्द्रीयके घणा देश एक बेन्द्रियको एक देश ६३" , ,
, के घणादेश (४) , , , , घणे बेन्द्रिय के घणादेश (७) एवं तीन आलावा तेरिन्द्रिय का १० तीन चौरिद्री
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१३२
का ( १३ ) पंचेन्द्रीय का ( १६ ) अनेन्दियका एवं १६ आलाव कहना । प्रदेशापेक्षा ।
(१) घणा पकेन्द्रियके घणो प्रदेश ।
( २ )
एक वेरिन्द्रयका घणे प्रदेश ।
( ३ )
घणो वैरिन्द्रीके धणे प्रदेश |
31
"3
एवं तेरिन्द्रीके दो, चौरिन्द्रीके दो, पंचेंद्रिीके दो, और अनेंद्रिय दो सर्व ११ अलावा कुल जीवोंके २७ भेद हुवे और अजीव के दो भेद-रुपी और अरुपी जिसमें रूप के चार भेदस्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश, और परमाणुपुद्गल, दूसरा अरूपी जिसके ६ भेद-धर्मास्तिकाय नहीं है परंतु धर्मास्तिकाय का एक देश, और घणा प्रदेश एवं अधर्मास्तिकाय देश प्रदेश आका शास्तिकाय देश, प्रदेश एवं अजीब के १० और जीवका २७ सर्व मिलाके ३७ बॉल अशिकौन में पावे एवं नैऋत्य वायकोन ईसान कौन में भी ३७-३७ बोल समझना ।
विमला ( ऊंचीदिशी ) में जीव के २७ भेद अग्निकौनवत् और अजीव के ११ भेद पूर्व दिशिवत् एवं ३८ बोल समज्ञना और नीची दिशी में ३७ बोल कहना कालका समय नही है। ( प्र० ) ऊंची दिशी में कालका समय है और नीची में नही कहा जिसका क्या कारण ? मेरु पर्वत का एक भाग स्फाटिक रत्नमय है और नीचे का भाग पाषाणमय है, उपर स्फटिक रत्नवाला भाग में सूर्य की प्रभा पडती है और नीचेका भाग पाषाणमय होनेसे सूर्य की प्रभाको नहीं खींच सकता इस लिये शास्त्रकार ने वहां समय की विवक्षा नहीं की, और नीची दिशा में अनेन्द्रीया का प्रदेश कहा सो यह केवली समुद्घातकी अपेक्षा से हैं । इति ।
सेवंभते सेवते तमेव सच्चम् । Sy Ola
77
97
"
2,
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१३३ थोकडा नं० १००
श्री भगवती सूत्र श० ११-उ० १०
(लोक) हे भगवान् ? लोक कितने प्रकारके है ? गौ० चार प्रकार के यथा-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक निसमें पहिले क्षेत्रलोक की व्याख्या करते हैं, क्षेत्रलोक तीन प्रकारका है उर्वलोक, अधोलोक और तिर्यग लोक उर्वलोक मे १२ देवलोक ९ अवेक ५ अनुत्तर विमान और सिद्ध शिला, अधोलोकमे ७ नारकी और तिर्यग् लोक में जम्बूद्वीप, लवण समु. प्रादि असंख्याद्वीप समुद्र है । ____ अधोलोक तिपाई के संस्थान तोयंग लोक झालर के संस्थान, ऊर्ध्वलोक उभी मृदंगाकार ( संस्थान ) सर्व लोक तीन लावला, के अथवा जामा पहिरे हुवे पुरुष के संस्थान है
और अलौक पोला गोला ( नारियल ) के संस्थान है। ___अधोलोक क्षेत्रलोक में जीव है, जीव के देश है, जीवके प्रदेश है एवं अजीव, अजीप के देश, अजीव के प्रदेश हैं ? जीव है यावत् अजीव का प्रदेश है तो क्या एकेन्द्रिय यावत अनेन्द्रिय है ? हां एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनेन्द्रिय एवं ६ बोल और इन छे का देश और छे का प्रदेश सर्व १८ बाल हुवे ।। ___अजीव के दो मेद रुपी और अरुपी जिसमें रुपी के चार भेद पूर्ववत् और अरुपी के ७ भेद धर्मास्ति का देश, प्रदेश एवं अधर्मास्ति, आकाशाास्त का भी देश, प्रदेश और काल
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१३४
समय एवं २९ बोल अधोलोक में पावे इसी तरह तीर्यंं लोक भे २९ और ऊर्ध्व लोक में काल का समय छोड़ के शेष २८ बोल पावे |
सर्व लोक में बोल पावे २९ पूर्ववत् और अलोक में नीवादि नही है फक्त आकाश है वह भी सर्वाकांश से अनन्त में भाग न्यून ( लोक जितना न्यून ) |
atarata के एक आकाश प्रदेश पर जीव नहीं है जीव का देश, प्रदेश और अजीव, अजीव के देश, प्रदेश है । यथा(१) घेणे एकेन्द्रिय के घणे देश तो नियमा है। ( २ ) घणे एकेन्द्रिय के घणे देश एक बेरिन्द्रिय का एक देश । ( ३ ) घणे बेन्द्रिय के घणे देश । एवं तेन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनेन्द्रिय के दो दो बोल कहना एवं ११ ।
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( ३ )
33
( १ ) घणे एकेन्द्रिय के घणे प्रदेश ।
( २ ) घणे एकेन्द्रियके घणे प्रदेश और एक बेन्द्रियका घ
प्रदेश | ( ३ ) " एवं तेन्द्रिय २ चौन्द्रिय २ पचेन्द्रिय २ एवं ९
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( १ ) घणे एकेन्द्रियके घणे देश और एक अनेन्द्रियको
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एवं ३-९-११ मिलके २३ भांगे हुवे
और अजीब के
४ भेद चार रुपी और पांच अरुपी पूर्ववत् कुल ३२ बोल हुये।
ऊंचा लोक के एक आकाश प्रदेश पर काल का सम
" $9 52
"
घणे देश.
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छोडके शेष ३१ बोल पावे तीर्यक् लोकमें नीचा लोक वत् ३२ बोल पावे लोंक के एक आकाश प्रदेश पर भी कहना। अलोकाकाश पर जीव आदि नही है केवल आकाश अनन्त अगुरु लघु पर्याय संयुक्त है। २।।
(२) द्रव्यलोक-नीचे लोक में अनन्ते जीव द्रव्य है अनन्ते अजीष द्रव्य है एवं ऊंचा लोक, तीर्थक् लोक और सर्व लोक अलोक में केवल अजीव वह भी आकाश अनन्त अगुरु लघु पर्याय संयुक्त है।
(३) काललोक-ऊंचा, नीचा, तीर्यक और सर्वलोक कोई कर्यो नहीं करे, नहीं, और करसी नहीं एवं तीनों काल में सदा सास्वत है एवं अलोक।
(४) भावलोक ऊंचो, नीचो, तीर्यक् लोक और सर्वलोक में अनंते वर्ण, गंध, रस स्पर्श और संस्थान का पर्याय है ॥ और अनन्ते गुरुलघु और अनन्ते अगुरुलघु पर्याय करके संयुक्त है और अलोक में केवल आकाश द्रव्य अगुरुलघु संयुक्त है। .. - इसका.जादा खुलासा देखना हो तो श्रीमान् विनयविजयजी महाराज कृत लोकप्रकाश देख लीजीये ॥
सेवभंते सेवंभंते तमेव सच्चम्.
थोकड़ा नं० १०१.
श्री भगवती सूत्र श० १६-उ०८. ... लोक-लोक के देश और लोक के प्रदेशों का अधिकार पहले बोकडोंमें आगे लिखा गया है अब लोक के चरमान्त का २१०
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१३६
'बोलो में जीवादि ६ पदके कितने २ बोल हैं वह इस थोकडे द्वारा नीचे लिखते हैं ।
समुचय लोक के पूर्व के चरमान्त में क्या (१) जीव, (२) नीवका देश, (३) जीवका प्रदेश, (४) अजीष, (५) अजीवका देश, (६) अजीवका प्रदेश है ? जीव नहीं है जीवका देश है, यावत् अजीवका प्रदेश है जीव का देश है तो क्या एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनेंन्द्रिय का देश है । (१) घणेन्द्रिय एकेन्द्रिय के घणे देश सूक्ष्म जीवापेक्षा सास्वते लाघे, (२) घणे एकेन्द्रिय के घणे देश और एक बेन्द्रिय के एक देश, (३) घणे एकेन्थि के घणे देश और एक बेन्द्रिय के घणे देश, (४) घणे एकेन्द्रिय के घणे देश और घणे बेन्द्रिय के घणे देश-एवम् aद्रय के ३ चौन्द्रिय के ३ पंचेन्द्रिय के ३ एवम् (१३) (१४) घणे एकेन्द्रिय के घणे देश और एक अनेंद्रिय के घणे देश (१५) घणे पर्केन्द्रिय के घणे देश और घणे अनेंद्रिय के घणे देश (१६) और प्रदेश की व्याख्या घणे एकेन्द्रिय के घणे प्रदेश (१७) घणे एकेंन्द्रिय के घणे प्रदेश एक बेन्द्रिय के धणे प्रदेश (१८) घणे एकेन्द्रिय के
प्रदेश और घणे बेन्द्रिय के घणे प्रदेश एवम् तेंन्द्रिय के २ चौरिन्द्रिय के २ पंचेन्द्रिय के २ अनेंन्द्रिय के २ एवम् २६ बोल जीवों के हुवे ।
अजीव दो प्रकार के हैं रूपी और अरूपी. जिसमें रूपी के ४ भेद (१) स्कंध (२) स्कंधदेश ( ३ ) स्कन्धप्रदेश (२) परमाणु और अरूपी के ६ भेद धर्मास्तिकाय नहीं है संपूर्णापेक्षा परंतु धर्मा स्तिकाय के देश, प्रदेश है एवं अधर्मास्ति के २ आकाश स्तिकाय के २ अरूपी के ६ और रूपी के ४ मिलके अजीष के १० भेद तथा नीव २६ सर्व मिलाकर पूर्व दिशा के चरमांत में ३६ बोल हुए. एवम्, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा भी समझना ।
म.
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उपरवत् ७ नारकी १२ देवलोक ९ नवधेयक ५ अणुत्तरविमान १ इसी प्रभारा पृथिवी (सिद्धशिला ) एवम् ३४ बोलों के चारों दिशों के चरमांत में तथा समुचय लोक के चारों दिशों के घरमांत मिलके १४० चरमांत में बोल छत्तीस छत्तीस पावे। ___ ऊंचेलोक के चरमान्त की पृच्छा-ऊँचेलोक के चरमान्त में (१) एकेन्द्रिय और अनेन्द्रिय का देश सदा काल साश्वता है (२) एकेन्द्रिय और अनेन्द्रिय का घणे देश और एक बेन्द्रिय का एक देश (३) और घणे बेन्द्रिय के घणे देश एवम् तेन्द्रिय का २, चौन्द्रिय का २, पंचेन्द्रिय का २, मिलकर ९ बोल तथा प्रदेश (१०) पकेन्द्रिय और अनेन्द्रिय के घणे प्रदेश (साश्वता) (११) एकेन्द्री अनेन्द्रिय का घणा प्रदेश और एक बेन्द्रिय के घणे प्रदेश (१२) घणे बेन्द्रिय के घणे प्रदेश एवम् २ तेन्द्रिय का, २ चोन्द्रिय कार, पंचेन्द्रिय कार, मिलकर १८ भेद हुवे और अजीव के १. भेद है सपी के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु पुरल और अलपी के धर्मास्तिकाय देश, प्रदेश अधर्मास्तिकाय देश, प्रदेश, आकाशास्तिकाय देश, प्रदेश, एवम् सर्व मिलाकर ऊंचेलोक के परमान्त में बोल २८ पावे।
नीचेलोक के चरमान्त की पृच्छा बोल ३२ पावे, यथा घणे एकेन्द्रिय के घणे देश, एक बेन्द्रिय का एक देश, धणे बेन्द्रिय के घणे देश, पवम् तेन्द्रिय २ चौन्द्रिय २ पंचेन्द्रिय २ अनेन्द्रिय २ मिलाकर ११ तथा प्रदेश-धणे एकेन्द्रिय के घणे प्रदेश एक बेन्द्रिय का घणे प्रदेश, घणे बेन्द्रिय के घणे प्रदेश पवम् तेन्द्रिय के २, चोन्द्रिय के २ पंचेन्द्रिय कार,अनेन्द्रिय के २, मिलाकर ११ अजीघका पूर्ववत सर्व ३२ इसी माफिक ९ ग्रेवेयक ५ अनुत्तर विमान पक इसीप्रभारा ( सिद्धशिला ) के इन १५ के ऊंचे तथा नीचे ३० चरमान्त समझना।
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रत्नप्रभा के ऊपर के चरमान्त की पृच्छा जैसे बिमला दिशा मैं बोल २८ समझना रत्नप्रभा को वर्ज के ६ नरक के उपर के और सातों नारकी के नीचे के चरमान्त ९३ और १२ देवलोक के नीचे ऊंचे के २४ चरमान्त एवम् ३७ चरमांत में बोल पाये ३३ जिसमें जीव के देश के १२ एकेन्द्रिय पंचेंद्रिय के घणे देश भी लेणे, प्रदेश का ११ अजीब का १० |
लोक के पूर्व का चरमांत का परमाणु पुद्गल क्या एक समय में लोक के पश्चिम के चरमांत तक जा सके ? हां गौतम ! पूर्व के चरमांत का परमाणु एक समय में पश्चिम के चरमांत में जा सक्ता है। एवम् पश्चिम से पूर्व, दक्षिण से उत्तर, उत्तर से दक्षिण तथा ऊंचेलोक के चरमांत से नीचेलोक के चरमांत और नीचेलोक के चरमांत से ऊंचेलोक के चरमांत तक एक समय में जा सकता है जिस परमाणु में तीव्र वर्ण, गंध, रस, स्पर्श होता है वह परमाणु एक समय में १४ राजलोक तक जा सक्ता है । इति ।
सेवंभते सेवंभंते तमेव सच्चम् |
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थोकडा नं० १०२.
श्री भगवती सूत्र श० ११-उ० १०. ( लोक. )
हे भगवान ! लोक कितना बडा है ? गौतम ! चौदह राज का है। यानि असंख्याते कोडोन कोड योजन लम्बा चोडा है । जिस्की स्थापना -
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101
1
lha
संस्थान.
प्रस नाली
101
/
स्थापना
अलोक
११.
राजका घन.
चौ तर्फ सात राज.
घन चौतरा. यह सातराज लम्बा चौडा चौतरा है जिसके मध्य भाग से नाप लेने के लिये कोई देवता महान ऋद्धि, ज्योति, कान्ती महासुख और महा भाग्य का धणी जिसके चलने की सक्तो कैसी है यह कहते हैं जम्बूद्वीप एकलक्ष योजन का लम्बा चौडा है जिस्के मध्य भाग में मेरु पर्वत एक लक्ष योजन का ऊंचा है उस मेर
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से चौतर्फ जम्बूद्वीप के ४ दरवाजे, पैतालीस २ हजार योजन दुर है उस मेरु पर्वत की चूलका पर पूर्वोक्त सुद्धि वाले छे देवते खडे है उस बक्त चार देवीयां जम्बूद्वीप के चारों दरवाजे पर लवणसमुद्र की तर्फ मुंह करके हाथ में एक २ मोदक काला लिये खडी है बे दरवाजे समधरती से ८ योजन ऊंचे है वहां से उन लड्डूओं को वे देवीयां समकाल छोडे और देवीयों के हाथ से लड्डूछूटते ही मेरूपरसे छेओं देवताओं से एक देवता वहांसे निकले और ऐसा शीघ्र गति से चले कि उन चारों लड्डूषों को अधर हाथ में लेले याने जमीन पर न गिरने दे, ऐसी शीघ्र गती वाले वे छेओं देवता लोकका नापा ( अन्त) लेनेको जावे, और उसी समय किसी साहूकार के एक हजार वर्षकी आयुष्य वाला पुत्र जनमा, गौतम स्वामी प्रश्न करते है कि है भगवान् ! उस पुत्र के माता पिता काल धर्म प्राप्त हो गये इतने काल में वे छेओं देवताओ छओ दिशी का अंत लेके आवे ? गौ० नहीं तो क्या वह लडका सम्पूर्ण आयुष्य पूर्ण करे तब वे देवता लोकका अंत लेकर आवे ? गौ० नहीं तो उसके हाड, नाम गोत्र विच्छेद हो जाय इतना काल वितीत होने से वे देवता लोक का अन्त लेके आवे ? गौ० नहीं।
हे भगवान् ! ऐसी शीघ्र गती वाले देवता भी इतने काल तक चले तो क्या गतक्षेत्र जादा है या शेष रहा क्षेत्र जादा है ? गौ० गत क्षेत्र जादा है और शेष रहा क्षेत्र कम है शेष रहे हुधे क्षेत्र से गतक्षेत्र असंख्यात गुणे है और गत क्षेत्र से शेष रहा क्षेत्र असंख्यात में भाग है। इतना बड लोक है। ___ अलोक की पृच्छा ! लोक के माफीक कहना विशेष इतना है कि समयक्षेत्र ४५ लक्ष योजन का है जिसकी मर्यादा के लिये चौतर्फ मनुष्योत्तर पर्वत् है और मध्य भाग में मेरुपर्वत् है ॥ उसपर दश देवता महऋद्धिक बैठे है और आठ देवी मनुष्योत्तर
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१४१ पर्वत से मोदक के लड्डू छोडे और शीघ्र गतीवाला देवतां अधर हाथ में लेले, इसकी सब व्याख्या पूर्ववत् कहदेना विशेष इतना है के वहां ४ लड्डू कहे है यहां ८ कहना और वहां छे दिशी का सन्त लानेको गये कहा है यहां दश दिशी कहना और लरके की आयुष्य लक्ष वर्ष की कहना तथा गतक्षेत्र की अपेक्षा शेष रहा क्षेत्र अनन्त गुणा कहना शेष रहे क्षेत्रसे गतक्षेत्र अनन्त में भाग है इतना बड़ा अलोक है।
लोक ओर अलोक किसी देवता ने नापा किया नहीं करे नहीं और करेगा नहीं परन्तु ज्ञानीयों ने ज्ञान से देखा है वैसी ही औपमा द्वारा बतलाया है।
सेवंभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ।
*OOK थोकडा नं. १०३.
श्री भगवती सूत्र श० ५-उ०८.
(परमाणु.) हे भगवान् ! परमाणु पु० इधर उधर चलता है कि स्थिर है ? गौ० स्यात् चलता है, स्यात् स्थिर है, भांगा २, दो प्रदेशी की पृच्छा ?(१ स्यातू चले (२ । स्यात् न चले (३)स्यातू देश चले स्यात् देश न चले एवं भांगा ३, तीन प्रदेशी का भी भागा ३ पूर्ववत् (४) स्यात् देश चले स्यात् बहुत से देश न भी चले (५) स्यात् बहुत से देश चले स्यात् एक देश न चले एवं भांगा ५। चार प्रदेशी के ५ भांगा पूर्ववत् (६) बहुत से देश चले, बहुत से देश नहीं चले इसी माफिक ५-६-७-८-९-१०
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संख्याते असंख्या० अनंत० प्रदेशी के सूक्ष्म और बादर के भी छे छे भांगे समझ लेना एवं सर्व भागे ७६ हुवे ।
(२) परमाणु पु० तरवार की धारसे छेदन भेदन नहीं होघे, अग्नि में जले नहीं, पुष्करावृत मेघ वर्षे तो सडे नहीं एवं दो प्रदेशी यावत् सूक्ष्म अनंत प्रदेशी और वादर अनन्त प्रदेशी छेदन भेदन जले या सडे गले विद्वंस होवे और स्यात् नही भी होवे।
(३) परमाणु पु० क्या सार्द्ध है, समध्य है, सप्रदेश है, अनार्दू है, अमध्य है, अप्रदेश है? इन छे वोलों में एक अप्रदेशी है शेष सुन्य है दो प्रदेशी पृच्छा छ बोलों में दो बोल पावे सार्द्ध
और सप्रदेश एवं ४-६-८-१० प्रदेशी में भी समझ लेना और तीन प्रदेशी में दो बोल समध्य सप्रदेश एवं ५-७-९ प्रदेशी
और संख्यात प्रदेशी में छे बोलों में से १ अप्रदेशी वर्ज के शेष ५ बोल पावे एवं असं० अनं० प्रदेशी भी समजलेना।
(४) परमाणु पु० परमाणु पु० ने स्पर्श करता जावे तो नीचे लिखे नौ भागों में से कितना भांगा स्पर्शे (१) देश से देश (२) देश से देशा(३) देश से सर्व (४) देश से देश (५) देशा से देशा (६) देशा से सर्व (७) सर्वसे देश (८) सर्व से देशा (९) सर्व से सर्व, जिस्मे परमाणु पुद्गल सर्व से सर्व स्पर्शे परमाणु पुद्गल ने स्पर्शतो जावे तो भांगा एक १ परमाणु पुद्गल दो प्रदेशी ने स्पर्श तो जाये तो भागा दो पावे ७-९ मो परमाणु तीन परदेशी ने स्पर्श तो जावेतो भांगा ३ पावे ७.८-९ यावत् अनं० प्रदेशी कहना।
दो प्रदेशी परमाणु को स्पर्शतो जावे तो भांग २ पावे ३-१ दो प्रदेशी दो प्र०को स्पर्शतो जावे तो भांगा ४ पाये १-३-७-९
१ जहां पर देशा शब्द हो वहां वहुवचन समझो ।
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दीप्र० तीन प्र० को स्पर्शता नावे तो भांगा ६ पावे १-२-३-७-८-९ एवं यावत् अनन्त प्रदेशी समज लेना । - तीन प्रदेशी परमाणु को स्पर्श करता जाय तो भांगा ३ पावे ३-६-९ तीन प्र० दो प्र० को स्पर्श करतो जावेतो भांगा ६ पावे १-३-४-६-७-९ तीन प्र. तीन प्र० को स्पर्श करता जावे तो भांगा ९ पूर्ववत् पावे एवं यावत् अनन्त प्रदेशी कहना चार प्रदेशी से यावत् अनन्त की व्याख्या तीन प्रदेशीषत् करनी ।
(५) परमाणु की स्थिती ज० एक समय उ. असं० काल एवं दो प्र० यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध की भी स्थिती कहदेना।
(६ ) एक आकाश प्रदेश अवगाहा पुद्गलों की स्थिती दो प्रकार की है एक कापता हुषा जैसे एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश जाने वाला और दूसरा अकम्पमान याने स्थिर जिसमें कम्पमान कीज एक समय उ० आवली का के असं० भाग और अकम्प की ज० एक समय उ. असं० काल एवं दो तीन यावत् असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहा आदि समझना।
(७).एक गुण काले पु. की स्थिती ज. एक समय उ० असं० काल एवं दो तीन यावत् अनन्त गुण काले पु० कीभी समझ लेना इसी तरह ५ वर्ण २ गंध५ रस ८स्पर्श भी समझ लेना।
(८) जो पुद्गल ( सुक्ष्मपणे प्रणम्य है वे ज० एक समय उ० असं० काल एवं बादरपने प्रणम्या भी कहना ।
(९) पुद्गल शब्द पने प्रणम्या है वे ज० एक समय उ० आपली के असं० भाग।
(१०) नो पुदगल अशब्द पने प्रणम्या है वेज एक समय उ. असं काल। ... ११) परमाणु पु० का अंतर न. एक समय उ० असं०
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काल दो प्रदेशी का अंतर ज० एक समय उ० अनंत काल एवं यावत् अनंत प्रदेशी कहना ।
( १२ ) एक प्रदेश अवगाहा पुगल का अंतर ज० एक समय उ० असं• काल एवं दो तीन यावत् असं० प्रदेशी अवगाहा पु० भी कहना, और कम्पमान सब जगह अ० एक समय उ० आवली के असं० भाग० भाग । वर्ण. गंध, रस, स्पर्श, सुक्ष्म 1 पणे और बादर पने प्रणम्या हुवा कम्पमान, अकम्पमान का अंतर पूर्ववत् समझलेना ।
(१३) शब्दपने प्रणम्या का अंतर न० एक समय उ० असं० काल ।
( १४ ) अशब्द पने प्रणम्या का अंतर ज० एक समय उ० आवली का के असं० भाग ।
(१५) अल्पाबहुत्व ( १ ) सबसे स्तोक क्षेत्र स्थानायुः (२) अवगाहना स्थानायुः असं० गुणा ( ३ ) द्रव्य स्थानायुः असं० गुणा (४) भाव स्थानायु: असं० गुणा विस्तार सूत्र से देख लेना । सेवंभंते सेवते तमेव सचम् । -*(@K
थोकडा नं १०४.
श्री भगवती सूत्र श० ११-३० १. ( उत्पल कमल )
( द्वार ) उत्पात् १, परिणाम २, अपहरण ३, अवगाहना ४, कर्मबन्धे ५, कर्मवेद ६, उदय ७, उदीर्ण ८, लेश्या ९, दृष्टी
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१७, ज्ञान अज्ञान ११, योग १२, उपयोग १३, वर्ण १४, उस्वास १५, आहार १६, अत्ति १७, क्रिया १८, बंध १९ संज्ञा २०, कषाय २५, वेदबन्ध २२, संज्ञी २३, इन्दीय २४, अनुबंध २५, संबाह २६, आहार २७, स्थिति २८, समुद्घात २९, चवन ३०, वेदना १, मूलोत्यात् ३२ इति।
यह बत्तीसवार उत्पल कमलपर उतारे जावेगे द्रव्यानु योग में प्रवेश करने वालों के लिये यह विषय बहुत ही उपयोगी है। ___ राजमहीनगर के गुणशिला उद्यान में भगवान् श्री वीर प्रभु पधारे उस बखत श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया है भगवान् ! उत्पल कमल के पत्ते में एक जीव है या अनेक १ गौतम पसे में एक जीव है परन्तु उसकी निश्राय में अनेक नीव उत्पन्न होते हैं याने पत्ते की डंडी में मूलगा एक जीव रहता है शेष उसकी निश्राय से पते में असंख्यात जीव हैं ।
(१) उत्पात्-उत्पल कमलमे नीव चौहत्तर जगह से आके उत्पन्न होते हैं यथा ४६ तिर्य च ( यहां वनास्पतिके चार ही भेद माना है ) ३ मनुष्य (पर्याप्ता, अपर्याप्ता, समुत्सम ) २५ देवता (भुवनपति १०, व्यंतर ८, ज्योतिषी ५, पहला दूसरा देवलोक) इन ७४ जगह से आके जीव उत्पन्न होते है.
(२) परिमाण- एक समय में १-२-३ यावत् संख्याते असंख्याते जीव उत्पन्न होते है।
(३) अपहारण-उस एक पत्ते के जीवों को एकेक समय एकेक जीवको निकले तो असंख्याते काल याने असं० उत्सर्पणी अवसर्पिणी व्यतीत होजाय इन जीवोंको किसी ने निकाला नहीं निकालेगा नहीं परंतु ज्ञानियोंने अपने ज्ञान से देखा है।
(४) अवगाहना-उत्पल कमल की अवगाहना ज. अंगुल के भसंख्यातमा भाग उ० एक हजार योजन कुछ अधिक।
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१४६ . (५) कर्मबंध-ज्ञानवर्णीय कर्मके बंधक स्यात् एक जीव मिले स्यात् बहुत जीव मिले एवं आयुष्य कर्म वर्ज के शेष । कर्म कहना और आयुष्य कर्म बंधक के भांगा ८ (१) आयुष्य कर्म का बंधक एक (२ ) अबंधक एक ( ३ ) बंधक बहुत (४ अबंधक बहुत (५) बंधक एक अबंधक एक (६) बंधक एम अबंधक बहुत (७) बंधक बहुत अबंधक एक (८) बंधक बहुत अबंधक भी बहुत इसी माफक जहां पर फीर भी ८ भांगा को उसको भी इसी तरह लगा लेना सात कर्मों के १४ भांगे यथ ज्ञानवर्णी का एक और ज्ञानवर्णीय के बहोत इस तरह एक वचन बहुवचन करने से १४ भांगे हुवे और ८ आयुष्य के एवं २२ भांगे। - (६) कर्मवेदे-ज्ञानावर्णीय कर्म वेदने वाले किसी समय एक. और किसी समय बहुत जीव मिले एवं वेदनीय कर्म छोड के शेष कर्मों के १४ भांगे और वेदनीताता, असाता दो प्रकार को वेदे इसलिये इसके ८ भांगा पूर्ववत् एवं २२ भांगा।
(७) उदय ज्ञानवर्णीय के उदयवाला किसो समय एक जीव मिले और किसी समय बहोत एवं अंतराय यावत् ८ कर्मों के १६ भांगा हुवे।
(८) उदीर्णा वेदनी और आयुष्य कर्म को छोड के शेष मानावर्णीयादि६ कर्मोके एक वचन बहुवचनाश्रीय १२ भांगे और वेदनी आयुष्यके ८-८ भांगे पूर्ववत् समझना एवं २८ मांगे ।
(९) लेश्या-उत्पपल में चार लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, और तेजो इन चार लेश्याओं के अस्सी भांगे होते है यथा अ. संयोगी ८ किसी समय कृष्णलेसी एक, किसी समय नील लेसी एक, किसी समय कापोत लेसी एक और किसी समय तेजोलेशी एक यह एक पचनापेक्षा चार भांगा इसी तरह बहुवचन के भी चार भांगा समझ लेना एवं ८ भागा और हिक संयोगो २१
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कृष्ण, नील कृष्ण, कापोत कृष्ण, तेनो
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नोल, कापोत नील, तेजो कापोत, तेजो|
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त्रिक संयोगी ३२ कृ० नी० का. कृ. नी० ते. कृ० का. ते० नी० का० ते०
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१४८ चतुष्क संयोगी १६ भांगा। कृ• नील० का० ते० कृ० नील० का०ते.
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एवं ८,२४,३२,१६ मिला के सब ८० भांगे हुवे इसी माफिक कषाय द्वार तथा संज्ञाहार कहेंगे वहां भी ८० भांगे समझ लेना।
(१०) दृष्टी-मिथ्या दृष्टी है वे किसी समय एक जीवमिले और किसी समय बहत्व जीवमिले इसलिये मांगा दो और भी जहाँ दो भांगा लिखें वहां यही दो भांगे समझना।
(११) ज्ञान-अज्ञानी भांगा दो पूर्ववत् । (१२ ) योग-एककाय योगी है भांगा २ पूर्ववत् ।
(१३) उपयोग-साकारोपयोग, अनाकारोपयोग भांगा ८ असंयोगी ४ द्विसंयोगी ४ साकार १-३ अनाकार २-३ और साकार ११-१३-३१-३३।।
(१४ ) वर्ण-जीवापेक्षा अवर्णयावत् अस्पर्श है और शरीरापेक्षा ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श।
(१५) उश्वास-उश्वासगा है निश्वासगा है और नोउश्चासगा निश्वासगा है ( वाटे पहतां ) जिसके भांगा २६ यथा असं. योगी ६ तीन एक वचन ३ वहुवचन ।
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१४६
वि० वचन, विसंयोगी १२
त्रिक संयोगी ८
उ. नि.. उ. नो. नि. नो० उ०नि० नो० उ०नि० नो०
-
-
( १६ ) आहारक- आहारक है भांगा २ पूर्ववत् । ( १७ ) वृत्ति-अवृत्ति है भांगा २ पूर्ववत् । (१८ ) क्रिया-सक्रिय है भांगा २ पूर्ववत् ।
( १९) बन्ध-सातकर्म का बन्धगा, आठ कर्म का बन्धगा जिसका भांगा ८ पूर्ववत् ।
(२० ) संज्ञा-आहारादि चारों संज्ञा पावे जिसके भांगा ८० पूर्ववत् । लेश्या द्वारसे देखो।
( २१ ) कषाय क्रोधादि चारों कषाय पावे भांगा ८० पूर्ववत् ( २२ ) वेद-एक नपुंसक है भांगा दो पूर्ववत् ।
(२३) वेदबन्ध-स्त्री, पुरुष, नपुंसक तीनों वेद के बांधने वाले है भांगा २६ पूर्ववत् । उश्वास द्वारकी माफीक ।
(२४) संज्ञी-असंझी है भांगा दो पूर्ववत् । - (२५) इंद्रिय-सइंन्द्रिय है, भांगा दो पूर्ववत् ।
(२६) अनुबंध याने काय स्थिती-ज. अंतर मु० उ० असंख्याते काल।
(.२७) संवह-उत्पल कमल का जीव अन्य स्थान में जाकर पीछा उत्पल कमल से आवे जैसे पृथ्वी और उत्पल कमल में
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गमनागमन करे ऐसे ही अन्य काया में भी गमनागमन करे उसे " संवह " कहने है ।
उत्पल और पृथ्वी में गमनागमन करे तो जिसका दो भेद एक भवापेक्षा और दूसरा कालापेक्षा जिसमें भवापेक्ष ज० दो भव उ० असं० भव और काल ज० दो अंतर मु० उ० असं० काल इसी तरह अप, तेज, वायु, भी समझ लेना वनस्पति ज० दो उ० अनं ० भव और काल ज० दो अंतरमु० उ० अनं० काल तीन विकलेन्द्रिय में ज० दो भव और काल पृथ्वीवत् उ० सं० भव और सं० काल तीर्थच पंचेंन्द्रिय और मनुष्य ज० दो भव और काल पृथ्वीवत् उ० ८ भव करे और काल प्रत्येक पूर्व कोड ।
( २८ ) आहार - २८८ बोल का आहार ले परंतु नियमा छे दिशी का ( देखो शीघ्रबोध भाग ३ )
( २९ ) स्थिती - न० अंतर मु० उ० दश हजार वर्ष ।
(३०) समुद्घात- तीन पावे, कषाय, वेदनी और मरणन्ति तथा समोईया दोनो प्रकार से मरे ।
( ३१ ) चवण - उत्पल का जीव चवके ४९ जगहजावे | ४६ तीर्थच ३ मनुष्य कर्म भूमीका पर्या अपर्या• समुच्छिम |
(३२) मूलद्वार - सर्व प्राण, भूत, जीव, सत्व याने सर्व संसारी जीव उत्पल कमल के मूल, स्कंध, त्वचा, पत्र, केसराकणिकादि पणे अनंतीवार उत्पन्न हुवा है यथा असइ अहुवा अ ंतिरकुतो । इति ।
सेवते सेवते तमेव सम् 00000000000000000 इति श्री शीघ्रबोध भाग ८ वा समाप्तम्. 0000000000000000
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं ३९.
अथश्री शीघ्रबोध भाग हवा.
थोकडा नम्बर १०५
(गुणस्थानपर ५२ द्वार ) [१] नामद्वार [२] लक्षणद्वार [३] क्रियाद्वार [४] बन्धद्वार [५] उदय० [६] उदिर्णा० [७] सत्ता० [८] निर्जरा० [९] आत्मा० [१०] कारण० [११] भाव० [१२] परिसह [१३] अमर० [ १४. पर्याप्ता० [१५ ] आहारिक० [१६] संज्ञा० {१७] शरीर० [१८] संघयण [१९] संस्थान [२०] वेद० [२१] कषाय० [२२] सन्नी० [२३] समुदघात० [२४ ; गति [२५] जाति, [२६] काय० [२७] जीवके भेद० [२८] योग० {२९] उपयोग० [३२] लेश्या० [३१] दृष्टी० [३२] ज्ञान [३३ . दर्शन [३४ ] सम्यक्त्व० [३५ ] चारित्र० [३६ ] नियंट्ठा० [३७ ] समोवसरण [३८] ध्यान [३९] हेतु [४०] मार्गणा० [४१] जीवयोनी० [४२] दंडकर [४३] नियमा भजना [४४] द्रव्यप्रमाण [४५] क्षेत्रप्रमाण [४६ ] सान्तर निरन्तर [१७] स्थिति [४८ ] अन्तर० [४९] आगरेस० [५० ] अवगाहना० [५१ ] स्पर्शना० [५२ ] अल्पाबहुत्व०
[१] नामद्वार-[१] मिथ्यात्व गुणस्थानक [२] सास्थाइन० [३] मिथ० [४] अबतिसम्यक्त्वदृष्टि० [५] देशव्रती० [६] प्रमत्तसंयतः [७] अप्रमत्तसंयत० [८] निवृत्तीबादर० [९]
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अनिवृत्तीबादर० [१०] सुक्ष्मसम्पराय० [११] उपशाम्तमोह० [१२] क्षीणमोह० [१३] संयोगी० [१४] अयोगी गुणस्थानक. [२] लक्षणद्वार -[१] मिथ्यात्व गुणस्थानकके तीन भेद
अनादी अनन्त [ अभव्यकी अपेक्षा ] [२] अनादी सान्त [ भव्यापेक्षा] [३] सादीसान्त [सम्यक्त्व प्राप्त करके पीछा मिथ्यात्वमे गया उसकी अपेक्षा ] और मिथ्यात्व दो प्रकारका एक व्यक्त मि० दसरा अव्यक्त मि. जिसमें एकेन्द्रिय बेरिन्द्रिय तेरिन्द्रिय चौरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियमें अव्यक्त मिथ्या. त्व है और पंचेन्द्रिय कितनेक व्यक्त मि० कितनेक अव्यक्त मि. है जिस्मे व्यक्त मि० के २५ भेद है यथा
(१)जीवको अजीव श्रद्धे-जैसे कितनेक लोक एकेन्द्रिय आदिको जीव नहीं मानते हैं । केवल चलते फिरते ही को जीवं मानते हैं यह एक किस्म का मिथ्यात्व है। ..(२) अजीवको जीव श्रद्धे-जैसे जितने जगत्मे पदार्थ है वे सब जीव है । यानि जड पदार्थोंकों भी जीव माने मि०
(३) साधुको असाधु श्रद्धे-याने, जो पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि सदाचारमे प्रवृत्ति करनेवालेको साधु न माने। मि०
(४, असाधुको साधु श्रद्धे-यथा आरम्भ, परिग्रह, भांग, गांजा, चडसादि पीनेवाले अनेक संसारी जीवोंको भी साधु माने । मिः
[५] धर्मको अधर्म श्रद्धे-जैसे अहिंसा, सत्य शील, तपादि शुद्ध धर्मको अधर्म समझे । वह भी मिथ्यात्व है।
(६) अधर्मको धर्म श्रद्धे-जैसे यज्ञ, होम, जप, पंचाग्नि तापना, कन्दमूल खाना, ऋतुदान देना इत्यादि अधर्मको धर्म माने । मि.
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( ७ ) मोक्षमार्गको संसारका मार्ग श्रद्धे-जैसे ज्ञान दर्शन चारित्रादिको संसार समझे । " मि०
(८) संसारके मार्गको मोक्षका मार्ग श्रद्धे-जैसे मृतककी पीछे पड, श्राद्ध, ओसर, बलीदानादिको मोक्ष मार्ग समझना । मि०
( ९ ) मोक्ष गयेको अमोक्ष समझना-जैसे केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष गयेको फिर आके अवतार लेंगे ऐसा कहना । मि०
(१०) अमोक्षको मोक्ष कहना -जैसे कृष्णादिकी अभी मोक्ष नही हुवा उनको मोक्ष हुवा मानना । मि०
( ११ ) अभिग्रह मिथ्यात्व - जैसे मिथ्यात्व, हठ, कदाग्रहको पकडकर कुगुरु, कुदेव, कुधर्मपर ही श्रद्धा रखे अपने ग्रहण कियेको मिथ्या समझने पर भी न छोडे । मि०
( १२ ) अनभिग्रह मिथ्यात्व - जैसे कुदेष, कुगुरु, कुधर्मपर वैसे ही सुदेव, सुगुरु, सुधर्मपर एक सरीखी श्रद्धा रखे सबको एक सरीखा माने । मि०
( १३ ) संशय मिथ्यात्व- वीतरागके वचनोंपर संकल्प विकरूप करना और उसपर संशय करना । मि०
( १४ ) अनाभोग मिध्यात्व - जिसको धर्माधर्म, हिताहितका कुछ भी ख्याल नहीं है अजाणपनेसे या बेदरकारीसे हरएक काम करता है । मिथ्यात्वादि को सेवन करता है मि०
( १५ ) अभिनिवेश मिथ्यात्व-धर्माधर्म, सत्यासत्यकी गवेver और विचार करके उसका निश्चय होनेपर भी अपने हठकों नहीं छोडना । मि०
( १६ ) लौकिक मिध्यात्व-लोकोंके देखादेखी मिथ्यात्वकी क्रिया करे अर्थात् धन पुत्रादिके लिये लौकिक देवोंकी सेवा उपासना करे। मि०
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(१७ ) लोकोत्तर मिथ्यात्व-मोक्षके लिये करने योग्य क्रिया करके लौकिक सुखकी इच्छा करे या वीतराग देवके पास लौकीक सुख सम्पदा धनादिकी प्रार्थना करे । उसे लोकोत्तर मिथ्यात्व कहते है।
[१८] ऊंणो मिथ्यात्व-धीतरागके वचनोंसे न्यून प्ररुपणा करे तथा नीयको अंगुष्ट प्रमाण माने या न्युन क्रिया करे । मि.
। [१९] अधिक मिथ्यात्व-वीतरागके वचनोंसे अधिक प्ररुपणा करे। या अधिक क्रिया करे-मनःकल्पित क्रिया करे। मि.
[२०] विपरीत मिथ्यात्व-वीतरागके वचनोंसे विपरीत प्ररुपणा करे या विपरीत क्रिया करे-कुलिंगादि को धारण करे।
[२१] गुरुगत मिथ्यात्व-अगुरुको गुरु करके माने जैसे जंगम, जोगी, सेवडा, चमखंडा चमचीरीया की जिसमें गुरुका गुण न हो लक्षण न हो और लिंग न हो अथवा स्वलिंगी पासत्था उसन्ना संसक्ता कुर्लिग्यादिको गुरु माने । मि.
( २२ ) देवगत-जो रागी द्वेषी आरम्भ उपदेशी जिनकी मुद्रामे राग द्वेष विषय कषाय भरा है ऐसे देव हरी, हलधर भेरु भवानी शीतला मातादिको देव माने । मि०
( २३ ) पर्वगत-जैसे होली, कष्ण अष्टमी, गोगानवमी, आमावास्यादि लौकिक पर्वको पर्व मान कर मिथ्यात्वको क्रिया करे । मि०
(२४) अक्रिय मिथ्यात्व-क्रिया करनेसे क्या फल होता है इत्यादि माने-क्रिया का नास्तिपणा बतलाना । मि०
( २५ ) अविनय मिथ्यात्व-देव, गुरु, संघ, स्वाधर्मी भाइयों का उचित विनय न करके उनका अविनय-आशातना करे। मि.
यह २५ प्रकारका मिथ्यात्व कहा। इसके सिवाय शास्त्रका
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रोन मिथ्यात्वकी ४-५-१० यावत् अनेक तरहसे प्ररुपणा की है वे सब भेद एक दूसरेमें समावेस हो सकते है। परन्तु विस्तार करनेका इतना ही कारण है कि बालजीव सुगमतासे समझ सके। वास्तवमे मिथ्यात्व उसीका नाम है जो सद् वस्तुको असद समझे । जब सुगमताके लिये इसके जितने भेद करना चाहे उतना भी हो सकते है।
मिथ्यात्वको गुणस्थानक क्यों कहा ? इसमें कौनसे गुणका स्थानक है ? अनादिकालसे जीव संसारमें पर्यटन करता आया है। यथा दृष्टांतः-दो पुरुष कीसी रस्ते पर जा रहे थे और जाते २ उन दोनोंकी नजर एक सीपके टुकडा पर पडी । एकने कहा भाइ ! यह चांदीका टुकडा पडा है, दूसरेने कहा चांदी नही यह सीपका ठुकडा है। इसी तरह जीव अनादिकालसे संसार चक्रमे फिरते हुवे कभी भी उसको ऐसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हइ कि चांदी किसे कहते है और सीप किसे कहते है। आज यह ज्ञान हुवा कि उसके सफेद रंग और चमकको देख कर कहा कि यह चांदी है इसी विपरीत ज्ञानको मिथ्यात्व कहते है
और जिस वस्तुका पहिले कुछ भी ज्ञान नहीं था उसको आज विपरीतपने जानता है वह जानना यह एक किस्मका गुण है। इसी तरह जीव अव्यवहार रासीमें भ्रमण करते अनंत काल व्यः तीत हो गया परन्तु वह इस बातको नहीं जानता था कि देवगुरु धर्म किसे कहते है और क्या वस्तु है। आज उसको इतना क्षयो पशम हुवा है की वह सदको असद् समझता है। अब किसी वक्त सुयोग मिलेगा तो यथावत् सम्यग ज्ञानकी भी प्राप्ति हो मायगी। परन्तु जब तक मिथ्यात्व गुणस्थानककी श्रद्धा है तबतक चतुष्क गती रुपी संसारार्णवमें भटकता ही रहेगा, विना सम्यग् ज्ञान के परम सुखको प्राप्त नहीं कर सकता।
(२) सास्वादन गुणस्थानकका लक्षण-जीष अनादि
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कालसे मिथ्यात्वमें रमण करता २ स्वाभावहीसे कर्म पतन करके द्रव्य, क्षेत्रादिका संयोग मिलने से प्रथम औपशम सम्यक त्वको ग्रहण कर चतुर्थ गुणस्थानकको प्राप्त करता है, वहां प अच्छा निमित्त मिलनेसे क्रमशः उत्तरोत्तर गुणोंकी प्राप्ति कर अंतमें मोक्ष सुखको भी प्राप्त करलेता है। यदि अच्छा निमत । मिले तो चतुर्थ गुणस्थानकसे गिरता हुवा सास्वादन गुणस्थाना पर आता है यथा दृष्टांत:-कोइ पुरुष खीरखांड ( दुधपाक) भोजन करने के वाद वमन होने पर गुलचटा स्वाद रहता है। इस माफिक सम्यक्त्वको वमन करता हुवा सास्वादन गुणस्थाना पर आता है अथवा गंभीर घंटाका नाद. कम होते २ रणका शब्द पीछे रहता है या जीवरूपी वृक्ष सम्यक्त्व रूपी फल मो। रूपी पवन के चलनेसे गिरकर मिथ्यात्व रूपी जमीन पर। पहुंचा तब तक सास्वादन गुणस्थानक कहलाता है इसकी स्थिति ६ आवलीकाकी है। इससे कौनसे गुणकी प्राप्ति हुई ? कृष पक्षीका शुक्ल पक्षी हुवा और उत्कृष्ट देशोण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन करके नियमा मोक्ष जावेगा।
(३) मिश्र गुणस्थानकका लक्षण-जैसे श्रखंडको स्वार कुछ खट्टा और कुछ मीठा होता है इसी तरह मिश्र मुबालेका परिणाम मिश्रभाव रहता है । यथा दृष्टान्त-किसी नगरके बाहर क्षान्त्यादि गुणालंकृत मुनि महाराजके पधारनेकी खबर सुनो नगर के सब लोग धर्म देशना सुनने को गये उस समय एक मिा सेठ भी धर्मदेशना सुनने के लिये चला, मगर रस्तेमें अकस्मार काम हो जानेसे विलम्ब हो गया इतने में मुनि महाराज देशना विहार कर गये । यह बात सेठने सुनी और वह सोचने लगा कि मैं कैसा अभागा हूं कि मुझे महात्माके दर्शन तक भी न हुपा खेर. अब चलो दूसरे तापसादि है उनके पास जा आवे कहीं धर्म सुनना है धर्म तो सब एकसाही है। इससे यह हुवा कि
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१५७ शासन पर प्रेम नही और अन्य धर्म पर द्वेष भी नही । शासनके सम्मुख हुवा पर स्वीकार करनेकों असमर्थ है। जीव दूसरे गु. की माफक शुक्ल पक्षी है और नियमा मोक्ष जावेगा।
[४] प्रवृत्ति सम्यगदृष्टि गु०का लक्षण-चतुर्थ गु० प्राप्त करनेवाला जीव प्रथम ७ प्रवृत्तियांका क्षय या उपशम करता है। यथा
(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध-पत्थर की रेखाके समान । (२)
मान-घनके स्तम्भसमान । (३)
माया-वांसको जडके समान । (४) , लोभ-किरमजी रेशमके रंग समान
यह चोकडि धात करे तो सम्यक्त्व की, स्थिति करे तो पावत् जीवकी और गती करे तो नरककी। . (५) मिथ्यात्व मोहनी-मिथ्यात्वमें ही मग्न रहै।।
(६) मिश्र मोहनी-यह भी सच्चा और यह भी सच्चा (मिश्रभाव) (७) सम्यक्त्व मोहनी- क्षायक सम्यक्त्व को न आने दे और सम्य० का विराधक भी न होने दे। इन ७ प्रकृतियोंके ९ मांगे होते है। . [१] चार प्रकृति क्षय करे ३ प्र. उपशमावे तो क्षयोपशम सम्यक्त्व। . [२] पांच प्रक्षय करे और २ प्र० उपशमावे तो क्षयोपशम
३] छ प्र० क्षय कर १ प्र. उपशमावे तो क्षयोपशम सम्यक ... [४] चार प्र० क्षय०२ प्र० उपशमावे १ वेदे तो क्षयोपशम वेदक सम्यक्त्व हो।
[५]५ प्र० क्षय०१ प्र० उप० १ वेदे तो वेदक सम्य.
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[६] ६ प्र. उप० १ प्र० वेदे तो उपशम. वेदक सम्यः [७१६ प्र. क्षय०१प्र. वेदे तो क्षायिक वेदक सम्य. [८] ७प्र. उपशमावे तो उपशम सम्य. [९] ७ प्र. क्षय करे तो क्षायिक सम्य
इन ९ भागों में से कोई भी एक भांगा प्राप्त करके चतुर्थ गुरु में आवे। जीवादि नौ पदार्थों को यथार्थ जाणे और वीतरागदे शासन पर सच्ची श्रद्धा रक्खें। संघकी पूजा प्रभाषनादि सम्यक्त की करनी करे नौकारशी आदि वर्षी तपको सम्यक् प्रकारे श्रद्धे परन्तु व्रत पञ्चखाणादि करनेको असमर्थ । क्योंकि व्रत पञ्चखाण अप्रत्याख्यानी चौकके क्षयोपशम भावसे होता है। सो यहां नहीं है। चतुर्थ गु० याने सम्यक्त्वके प्राप्त होनेसे सात बोलोका आयुष्य नहीं बंधता-(१) नारकी ( २ ) तियेच (३) भुवनपति। (४) व्यंतर (५) ज्योतिषी (६) स्त्रीवेद (७) नपुंसकवेद अगर पहिले बंध गया हो तो भोगना पडे । चौथे गु० वाला ज० ३ भव करे उ० १५ भव करके अवश्य मोक्ष जावे ।
(५) देशवती ( श्रावक ) गु० का लक्षण-जीव ११ प्रकृतियाँका क्षय या क्षयोपशम करे जिसमें ७ पूर्य कह आये है और चार अप्रत्याख्यानीका चौक । यथाः।
(१) क्रोध-तलावके मट्टीकी रेखा समान । (२) मान-हाडका स्थम्भ समान । (३) माया-मेंढाके सिंग समान । (४) लोभ-नगरका कीच या गाडीका खंजण समान |
यह चौकडी श्राववके व्रतकी घात करती है स्थिती १ वर्ष की है और इससे तिर्यचकी गती होती है। इन ११ प्रकृतीयोंके क्षय होनेसे जीव पांचवां गु० प्राप्त करता है और जोधादि पदा
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को श्रद्धा पूर्वक जाणे, सामायिक, पोषध, प्रतिक्रमण, नौकारसो मादि तप करे, आचार विचार स्वच्छ रक्खें लोक विरुद्ध कार्य न करे, अभक्षादि तुच्छ वस्तुका परित्याग करे, और मरके बमानिकमे जावे । इस गुणस्थानकके प्राप्त होनेसे जीव ज०३ उ० १५ भव करके अवश्य मोक्ष जावे ।
(६) प्रमत्त संयत गु० का लक्षण-जीव १५ प्रकृति भय या क्षयोपशम करनेसे इस गु) को प्राप्त करता है जिसमें ११ प्र० पूर्व कही और चार प्रत्याख्यानी चौक । . (१) क्रोध-रेतीपर गाडाकी लकीर समान ।
(२) मान-काष्टके. स्थम्भ समान । (४) माया-चलते हुवे बलदके मूत्रकी धारा समान । (५) लोभ-आंखके अंजन समान ।
यह चोकडी सराग संयमको घातक है। स्थिति इस चार मासकी है। और गती मनुष्यको । इस गु० मे जीव पंच महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, चरणसत्तरी करणसत्तरी आदि मुनि मारग सम्यग प्रकारसे भाराधे और मरके नियमा वैमानिक जावे । इस गु० बाला ज० ३ उ० १५ भव करके अवश्य मोक्ष जावे ।
(७) अपमत्त संयत गु० का लक्षण-मद, विषय कषाय, निद्रा और विकथा इन पाचो प्रमादको छोडके अप्रमत्त पने रहे। इस गुणस्थानवाला जीव तदभव मोक्ष जाय या उ• ३ भव करे।
(८) निवृत्ति बादर गु० लक्षण-अपूर्वकरण शुक्ल शान के प्राप्त होनेसे यह गु० प्राप्त होता है। इस गु. से नीष श्रेणी प्रारंभ करते है. एक उपशम और दूसरी क्षपक । जो पूर्व कही १५ प्रकृतियोको उपशमावे वह उपशम श्रेणि करे और जो
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१६० क्षय करे वह क्षपक श्रेणी करता है। पन्द्रह प्रकृति पूर्व कही और हास्य, रती, अरती, शोक, भय, जुगुप्सा एवं २१ प्रकृतिका क्षय करके नौवें गु० को प्राप्त करता है।
__(8) अनिवृत्ति बादर गु० लक्षण-इस गु० में बी वेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद और संज्वलकात्रिकको क्षय करे।
(१) क्रोध-पानीकी लकीर समान । (२) मान-तृणका स्थंभ समान । ' (३) माया-वांसकी छोल समान ।
यह त्रिक यथाख्यात चारित्रका घातीक है, स्थिती क्रोधको दो मासकी, मानकी एक मासकी, मायाकी पन्द्रह दिनकी और गती देवताकी एवं कुल २७ प्रकृती क्षय या उपशम करनेसे दशव गु० को प्राप्त करता है।
(१०) सुक्ष्मसंपराय गु० का लक्षण--यहां पर संज्व लका लोभ जो हलदीके रंग समान बाकी रहा था उसका क्षय करे एवं २८ प्रकृतिका क्षय करे। यदि पूर्वसे उपशान्त करता हुषा उपशम श्रेणी करके आया हो तो यहांसे इग्यारवें उपशान्तमोह वीतरागी गु० में आवे और ज. एक समय उ० अन्तर मुहूर्त ठहरकर पिछा गिरे तो क्रमशः आठवें गु०पर आके क्रमश: पहले गु० तक भी जा सकता है अगर इग्यारवें गु० पर काल करे तो अनुत्तर वैमानमें उपजे । क्योंकि इग्यारवे गुणस्थानक पर आया हुवा जीव आगे नही जा सकता। यदि तद्भव मोक्ष जानेवाला हो तो आठवे गु० से क्षपक श्रेणि करके दशवें गु० से बारह गु० को प्राप्त करे।
(१०) क्षीणमोह वीतरागी गु० का लक्षण- यहां ज्ञानाधर्णिय, दर्शनावणिय और अन्तराय कर्मका क्षय करके १३
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१६१ धे गुरु को प्राप्त करे और तेरवे गु० के प्रथम समय अनन्त केवल ज्ञान अनन्त केवलदशेन अनन्तचारित्र अनन्तदानलब्धि, लाभलब्धि, भोगल धि, उपभोगलब्धि, और वीर्यलब्धिको प्राप्त करे। इस गु० पर ज० एक अन्तर म० उ० आठ वर्ष क्रम पूर्व क्रोड रह कर फिर चौदवें गु० में जावे। यहां पांच लघु अक्षर (अह उल) उच्चार्ण काल रह कर पीछे अनंत, अव्याबाध, अक्षय, अविनाशी, सादी अनंत भंगे मोक्ष सुखको प्राप्त करता है।
(३) क्रियाद्वार--क्रियाके पांच भेद है-आरंभीया प. रिगृहिया, मायावत्तीय, अपञ्चखाणीया ओर मिथ्यादर्शनवत्तीया पहिले और तीजे गु० में पांचों क्रिया लागे. दूजे, चौथे गुरे चार क्रिया मिथ्यादर्शन की नहीं । पाँचमे गु० तीन क्रिया ( मिथ्या ६० अवृतः नहीं) छठे गुलदो (आरम्म० माया०) क्रिया तया ७-८-९-१० गु० एक मायावतीया क्रिया और ११-१२-१३-१४ गुण पाची क्रिया नहीं, अक्रिया है।
( ४ ) बन्धद्वार --प्रथम गु० से तीसरा वर्जके सातमें गु० तक आयुष्य वर्जके सात कम बान्धे और आयुष्य बांधता हुवा ८ कर्म बांधे तथा ३-८-९ वे आयुष्य वर्ज के सात कर्म बांधे आयु प्यका अबन्धक है । दशमें गु० छे कर्म ( आयुष्य मोह० वर्ज) बांधे. ११-१२-१३ गुः एक साता वेदनी बांधे और चौदवां गु० अंबंधक है।
__ नोट ज° ऊ० बंध स्थानक- वेदनीयका ज० बंध स्थान तेरवे गु० तथा ज्ञानावणिय-दर्शन० नाम० गोत्र अंतराय कर्मकाज बंध दशवें गुरु और मोहनी० का ज० बन्ध स्थान नौवें गु० है तथा उत्कृष्ट बंध सातो कर्मका मिथ्यात्व गु० में होता है। ११
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(५) उदयद्वार--प्रथमसे दशवें गुरु तक आठों कोका उदय तथा ११-१२ गुः सात कोका उदय मोहनीय वर्जके और १३-१४ गु० चार अघाती कर्मों का उदय वेदनी: नाम गोत्र आयुष्य ।
. (६) उदीरणा द्वार--प्रथमसे तीसरा मु० वर्जके छठे ग० तक ७-८ कर्म उदोरे०( आयुष्य वर्जके ) तीजे गु. सात कर्म उदरे ७-८-९ में गु० छे कर्म उदीरे आयु. वेदनी वर्जके। दशमें गु. ५-६ कर्भ उदीरे [पांववालामोहः वर्जे ] इग्यारवें गु० पांच कर्म उदीरे । बारवें गु. पांच या दो उदीरे (दोवाला नाम० गोत्र ) और १३-१४ वें उदोरणा नहीं है।
(७) सत्ता द्वार-प्रथमसे इग्यारवें गु. तक आठों कर्मों को सत्ता है। बारहवें गु० सात कर्मको सत्ता मोहनी. वर्नके और १३-१४ गु. चार अघाति कर्मकी सत्ता है।
(८) निर्जरा द्वार-प्रथमसे दशवां गु. तक आठों कर्मोंकी निर्जरा तथा ११-१२ में गु० सात कर्मों की [ मोहनी वर्जके ] और १३-१४ गु० चार अघाति कर्मों की निर्जरा होती है।
(8) आत्मा द्वार-आरमा ८ प्रकारका है द्रव्यात्मा; कषाय योग उपयोग ज्ञान दर्शन चारित्र और वीर्यात्मा। प्रथम और तीजे गु. छे आत्मा । ज्ञान. चारित्र वर्जके ] तथा २.४ गु. ७ आत्मा [चारित्र वर्जके ] तथा पांचमेसे दशमे गु० तक आठों आत्मा तथा ११-१२-१३ में आत्मा सात [कषाय वर्जके ] और चौदमें गु० छे आत्मा [ कषाय, योग वर्जके )
(१०) कारण द्वार-कारण पांव-मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद केषाय और योग । प्रथम और तीजे गुः पांचों कारण। २-४ गुरु में चार मिथ्यात्व वर्जके । ५-६ गु. में तीन [ अव्रत छोड के ||
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७-८-९-१० गु० में दो कारण कषाय और योग । ११-१२-१३ गु० में एक कारण, योग । और चौदवें गु. में कारण नहीं ।
(११) भाव द्वार-भाव पांच-औपशमिक भाव, क्षायिकभाव, क्षयोपशमिक भाव, औदयिकभाव, और परिणामिक भाव । १-२-३ गु मे भाव ३ उद० क्षयो० और परि०।४ से ११ गु० तक पाचों भाव । १२ गु० में चार भाव (उपशम वर्जके)। १३-१४ मे ३ भाव क्षयो० वर्जके । . (१२) परिसह द्वार-बावीस परिसह देखो शीघ्रधोध भाग १॥ प्रथमसे नौवे गु० तक २२ परिसह, जिसमें एक समय २० वेदे-शीत, उप्ण और चलना, बैठना इन चारमेसे दो प्रति पक्षी छोडके । १०-११-१२ गु० में १४ परिसह आठ मोहनीका बजे के एक समय १२ वेदे । १३-१४ गु०११ परिसह वेदे वेदनीय कर्मका।
(१३) अमर द्वार-३-१२-१३-गु० में मरे नहि शेष ११ गुल में मरे । वास्ते तीन गु० अमर है।
(१४) पर्याप्ता द्वार-१-२-४ गु० पर्याप्ता, अपर्याप्ता होवे शेष ११ गु० में केवल पर्याप्ता हीवे ।
(१५) आहारीक द्वार-१-२-४-१३ गु० में आहारी, अणाहारी दोनो और नौ गु० में केवल आहारी। और चौदवां गु० केवल अणाहारी।
(१६) संज्ञा द्वार-संज्ञा चार-आहार संज्ञा, भय मैथुन परिग्रह. पहिले गु० से पांचवे गु० तक चारों संज्ञा तथा छट्टे गु० भजना और शेष ९ गुल में नो संज्ञा।
(१७) शरीर द्वार-शरीर ५ औदारिक, वैक्रिय, आहा
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रक, तेजस और कार्मण । प्रथमसे पांच वे गु० तक शरीर ४ पाये आहारक नहीं तथा छठे सातवें गु० में शरीर पांच और शेष ७ गुण शरीर तीन औदारिक, तेजस, कार्मण।
(१८) संहनन द्वार-संहनन ६-वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभ नाराच०, नाराच०, अर्द्ध नाराच०, कीलिका० छेवट्ठ संहनन । प्रथमसे छ? गु० तक छेओं संहनन शेष ८ गु० में एक वज्र ऋषभनाराच संहनन होता है।
(१६) संस्थान द्वार-संस्थान छे हैं, समचतुस्रादि-चौदे ही गुरु में छओं संस्थान पावे ।
(२०) वेद द्वार-वेद तीन, पहिलेसे नौवे गु० तक तीनों वेद । शेष ६ गु० में अवेदी।
(२१) कषाय द्वार-कषाय २५ है, जिसमें १६ कषाय ९ नौ कषाय है । पहिले दूसरे गु० में २५ कषाय । ३-४ गु० में २१ कषाय ( अनंतानुबंधी चोक निकला ) पांचवें गुरु में १७ ( अप्रत्याख्यानी चौक निकला) ६-७-८ गु० मे १३ (प्रत्याख्यानी चौक निकला ) नौवें गु० में ७ कषाय (छे हास्यादि निकला) दशवे गु० में एक संज्वलका कषाय, शेष चार गु० अकषाई है।
(२२) संज्ञी द्वार-पहिले, दूसरे गु० में संज्ञी असंज्ञो दोनों प्रकारके जीव होते है । १३-१४ गु० नो संज्ञी नो असंज्ञी; शेष १० गु० संज्ञी है।
.. (२३) समुद्घात द्वार-समुद्घात सात-वेदनी, कषाय, मरणंति वैक्रिय, तेजस, आहारीक, केवली समुद्घात । १-२४-५ गु० में पांच समु० क्रमशः तीजे गु० में तीन (वेदनी, कषाय,
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वैक्रिय० छ? गु० में छै समु० केवली वर्जके। तेरवें गु० एक केवली समु० शेष ७ गु० में समुद्घात नहीं। |२४ २५ २६ । २७ । २८ । २९ । ३. गु.गति जाति काय जीवभेद योग उपयोग लेश्या
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(३२) ज्ञान द्वार-पहिले, तीसरे गु० में तीन अज्ञान । २-४-५ गु० मे तीन ज्ञान छउसे बारहवे गु० तक चार ज्ञान और तेरवे, चौदवे गु० एक केवल ज्ञान ।
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१६६ (३३) दर्शन द्वार-प्रथमसे बारहवे गु० तक तीन दर्शन तेरवे, चौदवें एक केवल दर्शन ।
(३४) सम्यक्त्व द्वार-सम्यक्त्वके ५ भेद-क्षायक, क्षयोपशम, उपशम, वेदक, और सास्वादन । पहिले और तीसरे, गु० सम्यक्त्व नहीं, दूसरे गु० सास्वादन स० । चौथासे सातवें गु० स० चार. सास्वादन वजेके । नौवे गुणस्थान दशवें गु इग्यारवे गु० दो स. (क्षा० उप. ) और १२-१३-१४ गु० एय क्षायक सम्यक्त्व है।
(३५) चारित्रद्वार--चारित्रके ५ भेद. सामायकादि१-२-३-४ गुल में चारित्र नहीं ( पांच वे गु० चारित्राचारित्र छ? सातमें गु० में तीन चारित्र ( सामा छेदों० परि०) आठवें नौमे गदो चारित्र (सामा० छेदो० ) दशमे गु० सुक्ष्मसम्परार चारित्र, और ११-१२-१३-१४ मे गु० मे यथाख्यात चारित्र ।
(३६) नियंट्टाद्वार-नियंटाके छे भेद-पुलाक, बुकस पडि सेवन, कषाय कुशील, निग्रन्थ और स्नातक । प्रथमसे पांचवें गु० तक नियंट्ठा नहीं। छठे, सातव गु० नियंट्ठा चार क्रमशः । आठवें, नौवे. गु० नियंठा तीन बु०प० क. ) दशवें गु. में कषाय कुशील । ११--१२ गु० में निग्रन्थ और १३--१४ गुः में स्नातक नि०
(३७) समौसरण द्वार-समौसरण के चार भेद-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी । पहिले गु. में स० तीन (क्रिया वादी नही) तीजे गु में दो अज्ञानवादी और विनयवादी । शेष बारों ही गु० में समोसरन १ क्रियावादी ।
(३८) ध्यानद्वार-ध्यानके चार भेद-आर्तध्यान, रोट
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ध्यान, धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान । १-२-३ गु० में ध्यान दो आत० रौद्र० तथा ४-५ गु० तीन ( आत० रौद्र० धर्म ध्यान ) छठे गु० आर्त० धर्म ध्यान । सातमें गु० में धर्म ध्यान और शेष गु. में केवल शुक्ल ध्यान है।
(३६) हेतुद्वार-हेतु ५७ है. कषाय २५ योग १५ अवृत १२ ( ५ इन्दी ६ काय १ मन) और मिथ्यात्व ५ पचवीस प्रकार से नं० ११ से १५ ) एवं ५७ हेतु । पहिले गु० में पंचावन (आहारक आहारीक मिश्र वर्ज के)। दूजे गु० मे पचास ( पांच मिथ्यात्व वर्जके)। तीजे गु० ४३ हेतु ( अनंतानु बन्धी चौक और तीन योग' वर्जके ) चौथे गु० ४६ हेतु ( तीन योग' वधीया ) पांचव गु. ३९ हेतु : अप्रत्यार यानी चौक, औदारिक मिश्र, कार्मण योग और अस जीवोंकी अवृत्त टली ) छ? गु० २६ हेतु-यहां आहारक मिश्र योग बधा और अवृत्त ११ प्रत्याख्यानी चौक घटा। सातमे ग० २४ हेतु- ( वैक्रिय मिश्र, आहारक मिश्र वर्जके । आठवें गु० २२ हेतु. ( आहारक; वैक्रिय योग वर्जके ) नौव गु०१६ हेतु ( हास्यछक वर्ज के ) दशवें गुरु नौ योग १ संज्वल लोभ एवं १० हेतु । ११-९२ गु० हेतु नौ नौयोग) तेर। गु० ५-७ हेतु ( योग ) चौदमें गु० अहेतु।
(४०) मार्गणाद्वार-एक गुणस्थानसे दूसरे गुणस्थान नाना उसको मार्गणा कहते है-पहिले गु० की मार्गणा ४ पहिले गुरू वाले ३-४-५-७ गु० जावे । दसरे ग० बाला मिथ्यात्व ग में आवे. तीजे गु० वाला १.४ गुल में जावे । चौथे गु०वाला १-२३-५-७ गु० में जाये। पांचवें गु० वाला १-२-३-४-७ गु० में मावे । छठे गु० वाला १-२-३-४-५-७ गु० में जावे । सातमें गु० पाला ४-६-८ गु० जावे : आठमें गु० वाला ७-९-४ गु० में नावे। १ औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र और कार्मण ।
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नौमें गु० घाला ८-१०-४ गु० में जावे । दशम गु० वाला ९-१११२-४ गु० में जावे इग्यारमें गुरुवाळा ४-१० गु० में जावे बारमें गु० वाला तेरमें गु० जावे तेरवे वाला चौदवें गु० जावे। और चौदवे गु० वाला मोक्ष जावे।
(४१) जीवयोनिद्वार-योनी ८४ लक्ष है। पहिले गुरु में ८४ लक्ष, दूसरे गु० में ३२ लक्ष, तीजे गु० मे २६ लक्ष, चौथे गुरू में २६ लक्ष, पांचमें गु० में १८ लक्ष, छठे गु० में १४ लक्ष, सातमें गुरु से यावत् चौदमें गु० तक १४ लक्ष ।
(४२) दंडकद्वार-पहिले गु० में २४ दंडक दूजेमे १९ दंडक (पाच स्थावर वर्जके) तीजे गुरु में १६ दंडक ( तोनविकले. न्द्रिय धर्जके ) एवं चौथे गु० में १६ दं० पांच में गु० में दो दं० और छठेसे चोदमे गु० तक एक दंडक ।
(४३) नियमा भजनाद्वार १-४-२-६-७-१३ गु० में नि. यमा जीव मिले शेष आठ गु० में भजना।
(४४) द्रव्य परिमाण द्वार-वर्तमानापेक्षा पहले मुण स्थानसे चौदहवा गुणस्थान तक जघन्य एकेक जीव मीले और उत्कृष्ट पहले गु० असंख्याते जीव वह पल्योपम के असंख्यातमे भागके समय जीतना यहां गुणस्थान स्वीकारापेक्षा है एवं पांचवे गु० तक छठे सातवे प्रत्येक हजार आठवे नौवे दशवे गु० तक एकसो बासठ इग्यारवे चौपन बारहवे तेरहवे चौदहवे गु० एकसो आठ जीव मीले। पूर्व प्रतिपन्नापेक्षा प्रथम गु० जघन्य और उत्कष्ट अनन्ते जीव मीले। दूसरे तीसरे गु० ज० एक जीव उ०पल्योपमके असंख्यात समय जीतने जीव मीले । चोथे गु० ज पल्यो। असं. भाग० उत्कृष्ट-जघन्यसे असंख्यात गुणे एवं पंचवे गु० छटे सातवे गु० ज. प्रत्येक हजार क्रोड उ०प्र० हजार क्रोड। आठवे से
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बारहवे गु० तक ज० संख्याते सेंकडो उ० सं० सेंकडो । तेरहवे न० गु० प्रत्येक कोड | चौदहवे गु० ज० उ० प्रत्येक सो जीव मीले । इति द्वारम् |
(४५) क्षेत्र प्रमाण द्वार - एक जीवापेक्षा पहले से चोथे गुणस्थान तक ज० अंगुलके असंख्यातमे भाग उ० हजार योजन साधिक क्षेत्रमें होवे । पांचवे गु० ज० प्रत्येक हाथ उ० हजार योजन | छटे गु० से बारहवे गु० ज० प्रत्येक हाथ उ० पाँचसेा धनुष्य, तेरहवे गु० ज० प्र० हाथ उ० सर्व लोकमें चौदहवे गु० ज०म० हाथ उ० पांचसो धनुष्य । बहुत जीवोंकि अपेक्षा पहले गु० न० उ० सर्व लोकमें, दूसरे गु० से बारहवे गु० तक ज० लौक के असंख्यातमें भाग उ० लौकके असंख्यातमे भाग.. . तेरहवे ज० लौक० असं० भाग० उ० सर्व लोकमें। चौदहवे गु० ज० लोक ० असं ० ० भाग, उ० लोकके असंख्यातमे भाग इति ।
(४६) निरन्तर द्वार - जघन्यापेक्षा पहले गु० सर्वदा यानि सर्व कालमें पहले गुणस्थानमें जीव निरन्तर आया करते है दूसरे से चौद वे गुणस्थान तक दो समय तक निरन्तर आवे | उत्कृष्टापेक्षा - पहले गुरु सर्व काल तक निरन्तर आवे. दूसरे तीसरे चोथे गु· पल्योपमके असंख्यात भागके काल जीतनी बखत आवे | पांचवे गु० आवलिकाके असं० भाग० छटे सातवे मु० • आठ समय तक निरान्तर आवे । आठवे से इग्यारवे गु० तक संख्यात समय तक, बारहवा आठ समय तक, तेरहवा सर्वदा. चौदहा आठ समय तक जीवों को निरन्तर आया करता है इति ।
(४७) स्थितिद्वार - जघन्य स्थिति अपेक्षा पहले तीसरे गु० अन्तर महुर्त दूसरे से इग्यारवे तक एक समय. बारहवे. तेरहवे. चौदहवे. कि अन्तर महुर्त कि जघन्य स्थिति है.
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उत्कृष्टापेक्षा पहले गु० अभव्यापेक्षा, अनादि अन्त, भव्यापेक्षा अनादि सान्त प्रतिपाति यानि सम्बत्वसे पडा हुवा कि देशोना आधा पुद्गल, दूसरे गु० छे अवलिका. तीसरे गु० अन्तर महुर्त चोथा गु० छासट सागरोपम साधिक. पांचवे छटे गु० देशोन कोड पूर्व. सातवा से बारहवे तक अन्तर महुर्त. तेरहवे गुरु देशोना कोड पूर्व चौदहवे गु० पंच हस्वाक्षर उच्चारण जीतनो अन्तर महुर्त कि स्थिति इति ।
(४८) अन्तर द्वार-एक जीवापेक्षा पहले गु० ज० अन्तर महुर्त उ. छासट सागरोपम साधिक, दूसरे गु० जघन्य पल्योपमके असंख्यातमे भाग, तीसरे गु० से इंग्यारवे गु० तक अन्तर महुर्त उ० दूसरे से इग्यारवे तक देशोना अर्द्ध पुद्गल काल बारहवे तेरहवे चौदहवे गु० अन्तर नहीं है। घणा जीवोंकि अपेक्षा-पहले गु० अन्तर नही दूसरे से इग्यारवे गुणस्थानमे ज. एक समय उत्कृष्ट दूसरे गु० आवलिकाके असं० भाग. तीसरे गु. पल्योएम के असंख्यातमे भाग, चोथे गु. सात दिन, पांचवे गु. चौदह दिन, छटे गु० पन्नरादिन. सातवे आठवे नौवे भु० छ मास दशवे गु. प्रत्येक वर्ष. इग्यारवे छे मास. बारहवे तेरहवे चौदवे आन्तर नहीं है इति ।
(४६) आगरीस द्वार-एक जीवापेक्षा जघन्य आधे तो पहले से चौदहवा गु० एकवार आवे उत्कृष्ट आवे तो पहलो गु० प्रत्येक हजार वार. दूसरो गुदो धार. तीजो चोथो प्रत्येक हजार चार. पांचवो छट्टो सातवों गु० प्रत्येक सो वार आवे. आठवो नौवो दशवो चार वार आवे । इग्यारवो गु. दों वार आवे, बारहवा तेरहवा चौदवा गु० एक वार आवे । बहुत जीवों कि अपेक्षा-पहलेसे इग्यारवे तक ज. दो वार आवे. बारहवा तेरहवा चौदहवा एक वार आवे । उत्कृष्ट पहला गु० असं.
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१७१
ख्यात चार आवे दूसरा पांच बार आवे तीजा चोथा गु. असं० बार आवे, पांचवा छट्ठा सातवा, प्रत्येक हजार वार आवे आठवा नौधा दशवा गु० नौ वार आवे. इग्यारवा गु० पांच वार आवे. बारहवा तेरहवा चौदहवा एक धार आवे इति ।
(५०) अवगाहनाद्वार--जघन्यापेक्षा, पहले से चोथे गु० तक अंगुलके असंख्यातमे भाग पांचवे से चौदह ग. तक प्रत्येक हाथकि । उत्कृष्टापेक्षा पहले से चोथे गु० एकहजार योजन साधिक. पांचवे गु० से चौदहवे गु० तक पांचसो धनुष्यकि अवगाहना है इति।
(५१) स्पर्शनावार- - एक जीवापेक्षा पहले गु० ज० अंगु. लके असं० भाग उ० चौदहराज दूसरे गुजः अण्लके असं० भाग उ छेराज उचा. तीसरे गुजः अंगुलछेराज उंचा. चोथा गुलज. अंगु उ० निचा राजा उंचा पांचराज। पांचवेसे चौदहवे तक ज० प्रत्येक हाथ उ· पांचवे गु निचो उचो पांचराज. छठे गु. से इग्यारवे गु. तक निचो चारराज उंची सातराज बारहवे चौदहवे पांचसी धनुष्य. तेरहवे गु. सर्व लोकको स्पर्श करे । घणा जीवों कि अपेक्षा पहला गुणस्थान ज. उ. सर्व लोक स्पर्श करे, दूसरे गु० ज० अंगुलके असंख्यातमे भाग उ० दशराज, तीसरे गु० ज० अ० उ० सातराज. चोथे गु, ज० लोकके असं० भाग उ० आठराज. पांचवे गु० से चौदहवे गु० ज० लोकके असं० भाग० उ० इग्यारवे गु० तक सात राज. बारहवा लोक के असं० भाग. तेरहवा सर्वलोक स्पर्शे चौदहवा गु० लोकके असंख्यातवे भाग का क्षेत्र स्पर्श करे इति ।
(५२) अल्पाबहुत्व द्वार(१) सबसे स्तोक इग्यारवे गु० उपशम श्रेणीवाले ५४ है
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१७२
(२) बारहवें गु० वाले सं० गुणे (१०८) क्षपक श्रेणि .. (३) ८-९-१० गु० वाले परस्पर तुल्य विशेषा प्र० सो (१) तेरहवें गु० वाले सं० गु० प्रत्येक क्रोड जीवों। (५) सातवें गु० वाले सं० गुरु प्रत्येक सो क्रोड। (६) छठे गु० वाले सं० गु: प्रत्येक हजार क्रोड । (७) पांचवे गु० वाले असं. गु. तीर्यंचापेक्षा (८) दूजे गु० वाले असं० गु० ( विकलेन्द्री अपेक्षा) (९) तीजे गु० स्थान वाले असं० गु० ( चारगती अपेक्षा) (१) चौथे गु० वाले असं० गु. ( सम्यक्त्व. दृष्टी अपेक्षा) (११) चौदवें गु० वाले अनं० गु. ( सिद्धापेक्षा) (१२) पहिले गु वाले अनं० गुः ( एकेन्द्रिीय अपेक्षा) .
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १०६
श्री पन्नवणा सूत्र पद १८
(काय स्थिती) . स्थिति दो प्रकारकी होती है भव स्थिति और काय स्थिति । याने एक ही भवसे जितना काल रहे उसको भव स्थिति कहते है। जैसे पृथ्वीकायमें ज. अन्तर मुहूर्त उ० २२००१ हजार वर्ष तक रहे । काय स्थिति-जिस कायमें जन्ममरण करे परन्तु दुसरी कायमें जब तक उत्पन्न न हो उसको काय स्थिति कहते है। जैसे पृथ्वीकायसें मरके फिर पृथ्वीकायमै
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१७३
उत्पन्न हों इसी तरह एक ही कायमें वारंवार जन्ममरण करे । "तो असंख्याते काल तक रह सके उसे काय स्थिति कहते है ।
सूचना.
१ पुढवीकाल - द्रव्य से असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, क्षेत्र से असंख्याते लोक || काल से असंख्या काल और भाव से अंगुल के असं० भाग में जितने आकाश प्रदेश हो उतने लोक ।
२ असंख्याते काल- द्रव्य से क्षेत्र से काल से तो पूर्ववत् और भाव से आवलीका के असं भागमें जितना समय हो उतना लोक |
"
३ अर्द्ध पुगल परावर्तन-जैसे द्रव्य से अनन्ती उत्स अवस० क्षेत्र से अनन्ता लोक, कालसे अनंतोकाल भाव से अर्द्ध पुद्गल परावर्तन
४ वनस्पति काल- द्रव्य से अनंती सर्पिणि उत्सर्पिणि क्षेत्र से अनंतेलोक, कालसे अनंतोकाल. भावसे असंख्याता पुद्गल परावर्तन |
५ अ अ:- अनादि अनन्त । ७ अ० सा० - अनादिसान्त | ६. सा० अ-सादि अनन्त । ८ सा० सा०-- सादिसान्त |
गाथा -- जीवं गैइदिये काऍ जोए वेद कसायें लेसार्य ।
सम्मत्तणीय दंसणं संजमे उपयोग चहारे ।। १४ । भोसंग परिते पसु सन्नी भवं तिथे ' चरिमेये । एसित पदाणं कायठिई होइ गायव्वा || २ ||
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१७४
मार्गणा.
जघन्य कायस्थिति
उत्कृष्ट कायस्थिति
"
सास्वता
१ समुचय जीवोंकि सास्वता
सास्वता २ नारकोकि काय० १०००० वर्ष ३३ सागरोपम ३ देवताकि काय ४ देवी ,
५५ पल्योपम ५ तिर्यच , अन्तर मुहूर्त
अनंतकाल (बना०) ६ तिर्यंचणी,
| तीन प. प्रत्येक कोड पूर्त ७ मनुष्य , ८ मनुष्यणी , ९ सिद्ध भगवान
सास्वता १० अपर्याप्ता नारको | अन्तर मुहूर्त अन्तर मुहूर्त ११ , देवता १२ , देवी ५३ , तीर्यच
, तीर्यचणी १५ , मनुष्य १६ , मनुष्यणो १७ पर्याप्ता नारकी | १०००० वर्ष । ३३ सागर अन्तरमुहूर्त
अन्तर मुहूर्तउणा कुच्छ कम १८ , देवता ।
भव स्थि. अ. मु. उणा १९ , देवी
५५ पल्योपम , २० , तीर्यच | अन्तर मुहूर्त । ३ पल्य अ.मु. उणा
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१७५ २१ पर्याप्ता तीर्यचणी | अन्तर मुहूर्त । ३ पल्य अ. मु. उणा २२ , मनुष्य २३ , मनुष्यणी
" " २४ सइन्द्रिय
अनादि अनं. अना. सां. २९ एकेन्द्रिय अन्तर मुहूर्त अनंतकाल (वना.) २६ बेरिन्द्रिय
संख्याते वर्ष २७ तेरेन्द्रिय २८ चौरिन्द्रिय २९ पंचेन्द्रिय
१००० सागर साधिक ३० अनेन्द्रिय
सादी अनन्त ३१ सकायी .
अन• अन्त० अ० सा० ३२ पृथ्वीकाय
अन्तर मुहूर्त असंख्याते काल ३३ अप्पकाय ३४ तेउकाय ३५ वायुकाय . ३६ वनस्पतिकाय
अनंतकाल (वन) ३७ उसकाय
२००० सागर सं० वर्ष ३८ अकाय सादि अणत सादी अनन्त ४५-३१ से३७नं. अप. अन्तर मु० अन्तर मुहूर्त ५०-३२ से ३६ नं. प०
संख्याता वर्ष ५१ सकाय पर्याप्ता
प्रत्येक सौ सागर ५२ प्रस• पर्याप्ता ५३ समुचय बादर ।
असं.काल असं. जितने ५४ बादर वनस्पति।
लोकाकाश प्रदेश हो
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अनन्तकाल. २००० साग० झाहिरी
10
७ कोडा कोडी सागः
असंख्याते काल .
,
अन्तरमुहूर्त
अन्तर
१७६ ५५ समुञ्चय निगोद | ५६ बादर सकाय ६२ बादर पृ. अप्प. ते.
पा प्रत्येक व.बा.नि. " ६९ समुञ्चय सूक्ष्म पृ.॥ अ. ते. वा. व. नि.
" ८६-५३ से ६९ नं. तक ?
के अपर्याप्ता ९३ समुच्चय सूक्ष्म पृ.
अ. ते. वा. व. और निगोद पर्याप्त ९९ बादर पृ. अ. वा.
प्रत्येक बा.व.पर्याप्ता " १००बादर तेउ. पर्याप्ता , १०१ समुच्चय बादर प. १०३ समुच्चय निगोद ।
बादर निगोद पर्या. " ०४ सयोगी १०५ मनयोगी १०६ वचनयोगी १०७ काययोगी अन्तर मुहूर्त १०८ अयोगी
सं. हजारों वर्ष संख्याता अहोरात्री प्रत्येक सो सागः साधिक
अन्तरमुहूर्त
नादि अनन्त अना. सा.
अन्तरमुहूर्त
१ समय
अनन्तकाल (वना) सादि अनन्त
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१७७
१८९ सवेदी
अ० अ, अ० सां, सा० सां ११. श्री वेद
१ समय ११० पल्यो. पृ.को. पू. सा. १११ पुरुषवेद अन्तरमुहूर्त | प्रत्येक सो सागरो० ११२. नपुंसकवेद १ समय । अनन्त काल ( वन ) ११३ अवेदी सादी अनन्त सा. सा. ज.१ स.उ.अं.मु. ११४ सकाई ! अ. अ. अ. सां
, सादिसान्त सा. सा. | देशोन अर्द्ध पुद्गल ११५ क्रोध
अन्तरमुहूर्त ____ अन्तरमुहूर्त १९६ मान ११७ माया ११८ लोभ
१ समय ११९ अकषाई सा.अ. सा. सा. ज. १ समय उ० अं. मु. १२० सलेशी
- अना० अ, अ० सां. १२१ कृष्णलेशी अन्तर मुहूर्त १३ सागर अं. मु. अधिक १२२ नोललेशी
१० ,, पल्य. असं.भा.अ. १२३ कापोतलेशी १२४ तेजोलेशी १२५ पद्मलेशी
१० ,, अन्तरमु. अधिक १२६ शुक्ललेशी १२७ अलेशी
... | सादि अनन्त १२८ सम्यक्त्वदृष्टि । अन्तरमुहूर्त सा.अ,सा.सां,६६सा.सा. १२९ मिथ्याष्टि | अ. अ. अ. सा. सा. सां. .., सादि सन्त | अन्तर मुहूर्त अनन्तकाल (अर्द्ध पुद्गल) १३० मिश्रष्टी
,
अन्तर मुहूर्त .
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१७८
१३१ क्षायक सम्य.
सादि अनन्तः १३२ क्षयोपशम. | अन्तर मुहूर्त ६६ सागर साधिक २३३ सास्वादन
समय
६ आवली १३४ उपशम
१ समय
अन्तर मुहूर्त १३५ वेदक १३६ सनाणी अन्तर मुहूर्त सा. अ, साला, ६६ साल १३७ मतिज्ञानी
६६ सागर साधिक . १३. श्रुतज्ञानी १३९ अवधिज्ञानी
१ समय १४० मनःपर्यवज्ञानी
देशोण पूर्व क्रोड १४१ केवलज्ञानी
सादि अनन्त १४२ अज्ञानी | अ अ अनासा, सा. सा. जिसमें १४३ मति अज्ञानीसासा.की स्थिति जघन्य अन्तर १४४ श्रुत अज्ञानी 1) मुहूर्त उ०. अनन्तकालकी (अर्द्ध पुद्गला. १४५ विभंगज्ञानी । १ समय । ३३ सागर पृ. सा. १४६ चक्षु दर्शन अन्तर मुहूर्त । प्रत्येक हजार सागरो। १४७ अचक्षु दर्शन
अ. अ. अ. सान्त १४८ अवधि दर्शन १ समय १३२ सागरो साधिका १४९ केवल दर्शन
सा. अनन्त १५० संयती १ समय देशोण पूर्व क्रोडी २५१ असंयती अन्तर मुहूर्त अ. अ. अ. सा. सास ,.सा. सौ.
| अनन्तकाल (अर्द्ध पुर) १५२ संयतासंयत
देशोण पूर्व क्रोड १५३ नोस० नोस० | ...
सादि अनन्त
3
:
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१७६
१५४ समायक चा० । १ समय देशोण पूर्व क्रोड १५५ छंदोपस्थापनीय अन्तर मुहूर्त १५६ परिहार वि० , १८ मास १५७ सुक्ष्म संपराय० १ समय अन्तर मुहूर्त १५८ यथाख्याता
देशोण पूर्व क्रोड १५१ साकार उपयोग अन्तर मुहूर्त अन्तर मुहूर्त १६० अनाकार उप० १६१ आहारक छद्मस्थक्षुलक भवदो समय न्थून असं कालx १६२ आहारक केवली अन्तर मुहूर्त | देशोण पूर्व क्रोड १६३ अणाहारी छद्म १ समय | दो समय १६४ ,, केवली सयोगी ३ समय ३ समय १६५ ,,केवली अयोगी,पांच ह्रस्व अक्ष र उच्चार्ण काल १६६ सिद्ध
सादि अनन्त १६७ भाषक
१ समय अन्तर मुहूर्त १६८ अभाषक सिद्ध ...
सादि अनन्त १६९ अभाषक संसारी अन्तर मुहूर्त अनन्त काल १७० कायपरत
असं. काल (पुढवीकाल) १७१ संसार परत
अर्द्ध पुद्गल परावर्त १७२ काय अपरत
अनन्तकाल (वना. काल) १७३ संसार अपरत
अ० अ० अ०, सां. १७४ नोपरतापरत
सादि अनन्त १७५ पर्याप्ता अन्तर मुहूर्त पृथक्त्व सी सागरो साधिक १७६ अपर्याप्ता
अन्तर मुहूर्त x विग्रह न करे।
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१८०
१७७ नोपर्याप्ताऽपर्याप्ता | ... | सादि अनन्त,. . १७८ सुक्ष्म | अन्तरमुहूर्त असं. काल ( पुढवीकाल १७९ बादर
, असं. काल ( लोकाकाश) १८० नो सुक्ष्म नो बादर ...
सादि अनन्त १८१ संज्ञी | अन्तरमुहूर्त पृथक्त्व सो सागर साधित १८२ असंही
अनन्तकाल (वन) १८३ नो संज्ञी असंझी
सादि अनन्त १८४ भव सिद्धि
अनादि सान्त १८५ अभव सिद्धि
अनादि अनन्त १८६ नोभवसिद्धि असि
सादि अनन्त १८७ धर्मास्तिकाय
अनादि अनन्त १८८ अधर्मास्तिकाय १८९ आकाशास्तिकाय १९० जीवास्तिकाय १९१ पुद्गलास्तिकाय १९२ चर्म
अनादि सान्त १९३ अचर्म
अ० अ०, सा. अ.
सेवभंते सेवभते तमेव सञ्चम् ।
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१८१
थोकडा नं० १०७ श्री पन्नवणा सूत्र पद ३.
(अल्पाबहुत्व ) जीव ९ गति ५ इन्द्रिय ७ काय ८ योग ५ वेद ५ कषाय ६ लेश्या ८ सम्यक्त्व ३ नाण ८ दर्शन ४ संयम ७ उपयोग २ आहार २ भाषक २ परत ३ पर्याप्ता ३ सुक्ष्म ३ संज्ञी ३ भव्य ३ अस्तिकाय ५ चर्म २ इन २२ द्वारोंका अलग २ अल्पाबहुत्य तथा जीवोंके १५ भेद, गुणस्थानक १४ योग १५ उपयोग १२ लेश्या ५ एवं ६२ बोल उतारे जायेंगे।
१3
मार्गणा.
जी० गु० यो० उ० ले०
अल्पाबहुत्व.
१ समुच्चय जीवों में २ नारकीमें ३ तीर्यचमें " तीर्यचणीमें ५ मनुष्य में ६ मनुष्यणीमें ७ देवतामें ८ देवीमें सिद्धमें
१४-१४-१५-१२-६ / वि. ९
३-४-११-२-३ | असं० गु०३ १४-५-१३-९-६ / अनं० गु०८ २-५-१३-९-६ / असं० गु०४ ३-१४-१५-१२-६ / असं० गु० २ २-१४-१३-१२-६ स्तोक १ ३-४-११-९-६ / असं० गु०५ २-४-११-९-४ | सं० गु०६ ---२-० अनं० गु०७ .
-
-
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१८२
१ देवगती २ मनुष्यगती ३ तीर्यचगती ४ नरकगती ५ सिद्धगती १ सइन्द्रिय २ एकेन्द्रिय ३ बेइन्द्रिय ४ तेइन्द्रिय ५ चौरिन्द्रिय ६ पंचेन्द्रिय ७ अनेन्द्रिय
३-४-११-९-६ असं. गु० ३ .
३-१४-१५-१२-६ स्तोक १ १४-५-१३-९-६ अनं० गु.५ ३-४-११-९-३ असं० गु० २
०-०-०-२-० अनं० गु०४ १४-१२-१५-१०-६ वि०७
४-१-५-३-४ : अनं० गु०६ २-२-४-५-३ वि०४ २-२-४-५-३ - वि०३ २-२-४-६-३ वि० २ ४-१२-१५-१०-६ स्तोक १ १--२-४-२-१ अनं० गु: ५ १४-१४-१५-१२-६ वि०८ ४-१-३.३-४ वि०३ ४-१--३-३-४ वि०४ ४-१-३-३-३ असं० मु०२
१ सकायी २ पृथ्वीकाय ३ अप्पकाय । ४ तेउकाय ५ वाउकाय ६ वनस्पतिकाय ७ त्रसकाय ८ अकाय
-IIIAN
४-१-३-३-४ अनं० गु० ७ १०-१४-१५-१२-६ । स्तोक १
०-०-०-२-० अनं० गु०६ १४-१३-१५-१२-६ वि० ५
१-१३-१४-१२-६ स्तोक १ ५-१३-१४-१२-६ असं० गु०२
१ सयोगी २ मनयोगी ३ वचनयोगी
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१८३
४ काययागी ५ अयोगी
१४-१३-१५-१२-६ / अनं• गु०४ १-१-०-२-० अनं० गु०३
-
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१ सदी २ श्रीवेदी ३ पुरुषवेदी . नपुंसकवेदी ५ अवेदी
१ सकषायी २ क्रोध ३मान ४माया ५ लोभ० ६ अकषायी
१४-९-१५-१०-६ / वि०५ २-९-१३-१०-६ | सं० गु०२ २-९-१५-१०-६ / स्तोक १ १४-९-१५-१०-६ / अनं० गु०४
१-५-११-९-१ | अनं० गु०३ १४-१०-१५-१०-६ वि०६ १४-९-१५-१०-६ यि०३ १४-५-१५-१०-६ / अनं० गु०२ १४-९-१५-१०-६ वि ४ १४-१०-१५-१०-६ वि०५ १-४-११-९-१ स्तोक १ १४-१३-१५-१२-६ वि०८ १४-६-१५-१-१ वि०६ १४-६-१५-१०.१ वि०७ १४-६-१५-१०-१ | अनं०५ ३-७-१५-१०-१ सं० गु०३ २-७-१५-१-१ सं० गु०२ २-१३-१५-१२-१ स्तोक १ १-१-०-२-० अनं० गु०४ ६-१२-१५-९-६ | अन० गु०२ १४-१-१३-६-६ | अनं० गु०३
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१ सलेशी २ कृष्णलेशो ३ नील १ कापोत. ५ तेजो०
७ शुक्ल ८ अलेशी०
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१ सम्यगदृष्टी २ मिथ्याष्टी
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१८४
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. ३ मिश्रष्टी
१-१-१०-६-६ स्तोक १ १ सास्वादन ६-३-१३-६-६ स्तोक १ २ क्षयोपशम २-४-१५-७६ असं० गु७४ ३ वेदक
२-४-१५-७-६ सं० गु. ३ ४ उपशम
२-८-१५-७-६ सं. गु०२ ५ क्षायक
२-११-१५-९-६ अनं गु०५ १ सनाणी
६-१२-१५-९-६ वि० ५ २ मतिश्रुति ज्ञानी ६-१०-१५-७-६, वि०३ ३ अवधि
२-१०-१५-७-६ असं० गु० २ ४ मनःपर्यव० १-७-१४-७-३ | स्तोक १ ५ केवलनाणी -२-४-२-१ | अनं० गु०४ १ मतिश्रुति अनाणी १४-२-१३-६-६, अनं० गु०२ २ विभंगनाणी २-२-१३-६-६ | स्तोक १ १ चक्षुदर्शन . ३६-१२-१४-१०-६ / असं गु० २ २ अचक्षुदर्शन १४-१२-१५-१०-६ | अनं० गु०४ ३ अवधिदर्शन २-१२-१५-१०-६ | स्तोक १ ५ केवलदर्शन १-२-७-२-१ | अनं० गु०३ १ संयती संयम १-९-१५-९-६ वि०६ २ सामायक. १-४-१५-७-६ / सं० गु०५ ३ छेदोपस्थापनीय , १-४-१५-७-६ / सं० गु०४ ४ परिहार विशुद्धि, १-२-९-७-३ | सं० गु. २ ५ सुक्ष्म संपराय " १-१-९-७-१ / स्तोक १
--
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१८५
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६ यथाख्यात १-४-११-९-१ | सं० गु० ३ .. ७ संयमासंयम १-१-१२-६-६ / असं• गु०७
८ असंयम १४-४-१३-९-६ / अनं० गु० ८ १ साकारउपयोग १४-१४-१५-१२-६ सं० गु० २ २ अनाकार उपयोग १४-१३-१५-१२-६ | स्तोक १ १ आहारिक १४-१३-१४-१२-६ / असं० गु०२ २ आणाहारिक ८-५-२-१०-६ | स्तोक १ १भाषक
५-१३-१४-१२-६ / स्तोक १ २ अभाषक
१.-५-५-१०-६ / अनं० गु०२ १ परत
१४-१४-१५-१२-६ | स्तोक १ २ अपरत
१४-१-१३-६-६ । अनं० गु०३ ३ नोपरतापरत -----२-..अनं० गु० २ १ पर्याप्ता
७-१४-१४-१२-६ सं. गु०३ २ अपर्याप्ता - ७-३-५-४-६ अनं० गु० २ ३ नोपर्याप्ताअपर्याप्ता ----2-२-० स्तोक १ १ सुक्ष्म
२-१-३-३-३ असं० गु०३ २ पादर
१२.१४-१५-१२-६ अनं० गु०२ ३ नोसुक्ष्मनोवादर -----२-० स्तोक १ १ संज्ञी
२-१२-१५-१०-६/ स्तोक १ २ असंझी
अनं० गु०३ ३ नोसंझीनोअसंही १-२-५७-२-१ | अनं० गु०२ .
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१८६ १ भव्य
१४-१४-१५-१२-६ / अनं० गु०३ २ अभव्य
१४-१-१३-६-६ स्तोक १ ३ नोभव्याभव्य o-o-०-२-० अनं० गु०२ १ चरम
१४-१४-१५-१२-६ / अनं० गु० २ २ अचरम
१४-१-१३-८-६ स्तोक १ पंच अस्तिकायकी अल्पाबहुत्व शीघ्रबोध भाग ८ वां में देखो।
सेवं भंते सेवं भते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १०८। श्री पन्नवणा सूत्र पद १० - (क्रियाधिकार) है भगवान ! जाव अन्त क्रिया करे ? गौतम ! कोई करे कोई न करे! एवं नरकादि यावत् २४ दंडक और एक समुचय जीव एवं २५ एक जीवाश्रीय और इसी तरह २५ दंडक घणा जीवाश्रीय कुल ५० सूत्र हुवे।
नारकी नारकीपने अन्त क्रिया करे? गौ नहीं करे एवं मनुष्य वर्जके शेष २३ दंडक भी कह देना । मनुष्य में कोई अन्त क्रिया करे कोई न करे । असुर कुमार असुर कुमारपने अन्त क्रिया करे ? गौ० नहीं करे एवं मनुष्य वर्जके २३ दंडक कहना और मनुष्यमें अन्त क्रिया कोई करे कोई न करे इसी तरह २४ दंडक चौवीस दंडक पने लगा लेना। चौवीसकों २४ गुणा करनेसे ५७६ सूत्र!
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नारकीसे निकल कर अनन्तर अन्त क्रिया करे या परंपर अन्त क्रिया करे ? गौ. अनन्तर और परम्पर अन्त क्रिया करे। एवं रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, पालूकाप्रभा, और पंकप्रभा, समझ लेना शेष धूमप्रभा, तमःप्रभा, और तमस्तमःप्रभा, अनन्तर अन्त क्रिया न करे किन्तु परम्पर अन्त क्रिया कर सके ! ____ असुरादि दशों देवता परंपर अनंतर दोनों अन्त करे । एवं पृथ्वी, पाणी, वनस्पति भी समझ लेना और तेउ पाउ, तीन विकलेन्द्रि अनंतर नहीं किन्तु परंपर अन्त क्रिया कर
सके।
तिर्यच पंचेन्द्रि मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक अनं० परं, दोनों करे। अगर जो नारकी अन्त क्रिया करे तो एक समय कितना करे इसका अधिकार सिझ्झणा द्वारमें सवि. स्तार लिखा है। देखो थोकडा नम्बर १२० ।
नारकी मरके नारकीमें उपजे ? गौः नहीं उपजे एवं २२ दंडक नारकी में नहीं उपजे । तीयेच पंचेन्द्रिमे कोई उपजे कोई नहीं उपजे । जो उपजे उसको केवली प्ररुपित धर्म सुनने कों मिले? कोईको मिले कोईको न मिले । जिसको मिले वह समजे ? कोई समजे कोई नहीं समजे । जो समझे उसको मतिश्रुति ज्ञान मिले ? हां नियमा मिले। जिसको मतिश्रुति ज्ञान मिले वह व्रत नियम उपवाम पोसह पञ्चकखाणादि करे? कोई करे कोई न करे। नो व्रतादि करे उसको अवधिज्ञान होवे ? किसीको अवधिज्ञान उपजे किसीको नहीं उपजे। जिसको अवधिज्ञान उपजे यह दिक्षाले ? नहीं लेवे।
नारकी मनुष्य पने उपजे उसको व्याख्या अवधिज्ञान तक 'तीर्थचवत् करनी । आगे जिसको अवधिज्ञान हो वह दिक्षा ले ? कोई ले और कोई न भी ले। जो दीक्षा ले उसको मनः ,
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१८८
र्यव ज्ञान उपजे ? किसीको उपजे किसीको नही उपजे । जिसको मनः पर्यव ज्ञान उपजे उसको केवल ज्ञान उपजे ? किसीको उपजे कीसीको नहीं भी उपजे । जिसको उपजे वह अन्त क्रिया करे ? हां केवल ज्ञानवाला नियमा अन्त क्रिया करे। .. दश भुवनपतिकी भी व्याख्या इसी तरह करनी; परन्तु इतना विशेष कि भुवनपति पृथ्वी, पाणी. घनस्पतिमे उपजे । परन्तु उस जगह केवली प्ररुपीत धर्म सुननेको ना मिले. शेष बोल नारकीवत् ।
पृथ्वी, पानी वनस्पति मरके पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रीमें कोई उपजे कोई नहीं उपजे । जो उपजे उसको केवली प्ररुपित धर्म सुननेको न मिले. श्रोत्रेन्द्रियका अभाव है । तिर्यंच पंचे. न्द्रिय और मनुष्य में उपजे उनको व्याख्या नारकीवत् । तेउ वाउ मरके पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रीमे उपजे उसकी व्याख्या पृथ्वीकाय वत् करनी । और जो तिर्यंच पंचेन्द्रीमें उपजे उसको केवली प्ररुपित धर्म किसीको मिले और किसीको नहीं मिले। जिसीको मिल भी जाय तो वह श्रद्धे नहीं और शेष मनुष्य, नारको देवताके दडकमें तेउ वाउ नहीं उपजे ।
बेन्द्रिय तेरिन्द्रिय चौरिन्द्रियकी व्याख्या पृथ्वीकायवत् करनी परन्तु इतना विशेष है कि मनुष्यमे मनःपर्यव ज्ञान उपार्जन करे । ( केवलज्ञान नहीं.)
तीर्यच पंचेन्द्रीकी व्याख्या पृथ्वीकायवत् । परन्तु इतना विशेष कि तीर्यच पंचेन्द्रिी नारकीमें भी कोई उपजे । कोई नहीं उपजे । जो उपजे उसको केवली प्ररूपित धर्य सुननेको मिले। किसको मिले किसीको न मिले! जिसको मिले वह समझे ? कोई समझे कोइ नहीं समझे । जो समझे वह श्रद्धे, परतीते, रुचे? हां समझे यावत् रुचे । जिसको रुचे उसको मति, श्रुति.
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१८६
अवधि ज्ञान होवे ? हाँ होवे । जिसको ज्ञान हावे वह व्रत नियम करे ? नही करे इसी तरह तिर्यच असुर कुमारादिसे यावत् ८ मां देवलोक तक देव पणे उपजे उसकी भी व्याख्या कर देनी मनुष्य में केवल ज्ञान और अन्त क्रिया भी कर सकते है । इसी माफीक मनुष्य श्री समझना व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिकी व्याख्या असुरकुमारवत् करनी ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
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थोकडा नं० १०६ ( पद्वि द्वार )
श्री पनवणा सूत्र तथा जम्बूद्वीप पन्नती सूत्रसे तेवीस पद्वि.
( १ ) सात एकेन्द्रिय रत्न
१ चक्ररत्न --- खंड साधनेका रहना बतानेवाला
२ छत्ररत्न - बारह योजनमें छाया करे
३ दन्डरत्न - तामस गुफाका कमाड खोले
४ खड्गरत्न –— वैरीको सजा देने के लिये ५० अंगुलका लंबा ९६ अंगुलका घोडा, आधा अंगुलका जाड़ा और ४ अंगुलकी
५ मणिरत्न
मूठ यह चारों रत्न आयुध शालामें उत्पन्न होते हैं -चार अंगुल लम्बा दो अंगुल चौडा अंधेरेमें प्रकाश करनेवाला |
६ कांगणी रत्न - सोनार की अरण के आकार । आठ सोनईयों भार तोलमें आठपासा. छे तला, बारहखूंणा. इससे तमिस्रा गुफा ४९ मांडले किये जाते है ।
चार चार
, हाथ के लम्बे होते हैं
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७ चामर रत्न-दो हाथका लम्बा होते है नदी उतरतां काम
आवे ( यह तीन रत्न लक्ष्मीके भंडारमें उत्पन्न होते है।
(२) सान पंचेन्द्रिय रत्न १ सेनापती रत्न-मध्य के दो खन्ड वर्जके शेष ४ खन्ड साधे । २ गाथापती रत्न-चौवीस प्रकारका अनाज निपजावे । पहिले
पेहरमें बोवे. दूजे पेहरमें पावे, तीजे पेहरमें
लूणे (काटे चौथे पहरमें स्थानपर पंहुचा दे। ३ वार्द्ध की रत्न-नगर वसावे ४२ भूमीया मेहल बनावे । ४ पुरोहित रत्न-शान्ती पाठ पढे या मुहूर्त बतलावे ये चारों
रत्न राजधानी में उत्पन्न होते है। और चक्र
वर्तीसे कुछ न्युन होते है। ५ हाथी रत्न- ये दोनों रत्न वैताब्य पर्वतके मूलसे प्राप्त होते है। ६ अश्व रत्न- और असवारीके काम आते है । ७ स्त्री रत्न-विद्याधरोंकी श्रेणी में उत्पन्न होती है और चक्रव
तिके भोगमें आती है । और चक्रवत्तिसे चार अंगुल न्यून होती है।
(३) नौ बडी पद्विये. १ तीर्थकर-चौतीस अतीशयादि सर्वज्ञ भगवान् २ चक्रवर्ती-८४ हजार हस्ती, अश्व, रथ ९६ कोड पैदल। ३ वासुदेव-चक्रवर्तीसे आधी ऋद्धि बल होता है। ४ बलदेव-दिक्षा लेके सदगतीमें जाते है ५ मंडलीक-देशका अधिपति एक राजा होता है। ६ केवली-अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र वीर्यगुण संयुक्त। । ७ साधू-८ श्रावक । ९ सम्यक दृष्टी।
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आवणहार. पहिली नारकीसे निकले हुवे जीवोंमे है सात एकेन्द्रिय वर्जके शेष १६ पद्वि पावे। दूसरी नरकसे निकले हुवेमे १५ पद्वि पावे (चक्रवर्ती वर्जके) तोसरी नरकसे निकला. १३ पद्वि पावे (बलदेव वासुदेव वर्जके) चौथी नरकसे निकला० १२ पद्वि पावे (तीर्थकर वर्जके) पांचमी नरकसे निकला०११ पद्वि पावे (केवली वर्ज के) छट्ठी नरकसे निकला० १० पद्वि पावे (साधु वर्जके) सातमी नरकसे निकला० ३ पति पावे. हस्ती अश्व और सम्य. कूदृष्टि, भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषीसे निकला हुवा २१ पछि पावे. तीर्थकर चक्रवर्ती वर्जके । पृथ्वी, पाणी, वन० सन्नी तिर्यंच
और सन्नी मनुष्यसे निकला १९ पद्वि पावे (ती-च-ब-वा वर्जके) तेउ, वाउ, विकलेन्द्रीसे निकला०९ पद्वि. (७ एकेन्द्रीय रत्न, हस्ती और अश्व असन्नी मनुष्य. तिर्यचसे निकला०१८ पद्वि पावे. ७ एकेन्द्री रत्न ७ पंचेन्द्री और · नं० म. सा. श्रा. स. एन १८ पहिले दूसरे देवलोकसे निकला २३ पद्वि पावे। तीजेसे आठवें देवलोक तकका निकला० १६ पद्वि पावें। (७ पद्वि पंचेन्द्री ९ मोटी और नौसे बारहवा तथा नौवेयकसे निकला १४ पछि पावे (हस्ती० अश्व नहीं) पंचानुत्तरसे निकला० ८ पद्वि पावे (वसुदेव वर्ज के ८ मोटी०)
जावणद्वार नारकी पहिलीसे चोथी तक ११ पद्वि वाले जीव जावे (७ पंचेन्द्रीय पद्वि, चक्री, वासुदेव, सम्यकदृष्टी और मंडलीक राजा) नारकी ५-६ में ९ पद्वि वाले जावें । (खी, सम्य गदृष्टीवर्जके) पांच स्थावरमें १४ पद्वि वाले जावें । एकेन्द्री ७ पंचेन्द्रीय ६ (स्त्री नहीं) और मंडलीक एवं १४ ॥ विकलेन्द्री ३ असन्नी मनुष्य तिर्यवमें
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१६२
१५ पद्विवाले जीव जावे यथा (१४ पूर्ववत् और सम्यगवृष्टी ) सन्नी मनुष्य तिर्यंचमें १५ पद्वि वाले जावे पूर्ववत् ।। भुवनपती १० व्यन्तर, ज्योतिषी, १-२ देवलोको १० पछि वाले नावे (स्त्री वर्जके ६ पंचेन्द्री, साधु, श्रावक, सम्यग० और मंडलीक तीजेसे आठमे देवलोक १० पद्वि वाये जावे पूर्ववत् परन्तु आराधिक । नौवेसे बारमें देवलौकमें ८ पद्वि वाले जावे पूर्ववत् परन्तु ( हस्ती अश्व वर्ज के) आराधिक । नौवेसे बारवें देवलो कमें ८ पद्वि पावे जावे साधु. श्रावक, सम्यक मंडलीक सेना पती, गाथापती, वार्द्धकी, पोहत नौग्रेवेक, पंचानुत्तरमें दो पदवी वाले जावे ( साधु. सम्यगदृष्टी।
पावणद्वार. नारकी देघतामें पदवी १ मिले सम्यगदृष्टी) पृथ्वीकायमे ७ पछि मिले (एकेन्द्री रत्न ७) चार स्थावर में पदवी नहीं मिले। विकलेन्द्री ३ में १ पद्वि मिले (सम्यगष्टी, अपर्याप्ति अवस्थामें) समुच्चय तिर्यंचमे ११ पद्वि मिले ( एकेन्द्री ७, अश्व, हस्ती, श्रावक, सम्यग्दृष्टी) तिर्यंचपंचेन्द्री में ४ पछि मिले हस्ती अश्व० श्रावक सम्यगष्टी) असन्नी तिर्यंच में ८ पछि मिले। साते केन्द्रि और सम्यग्दृष्टी) नपुंसकमे ११ पद्वि मिले (७ एकेन्द्री, साधु, केवली, श्रावक, सम्यग्दृष्टी) कृतनपुंसक ४ पड़ी मिले (साधु, केवली, श्रावक, सम्यग्दृष्टी) जन्मनपुंसकमे २ पद्वी मिले श्रावक, सम्यगदृष्टी] समुच्चयपंचेन्द्रीमें १६ पद्वि मिले ( एकेन्द्रीय ७ वर्जके) समुच्चय मनुष्य में १४ पति मिले (७ एकेन्द्रिीय, अश्व, हस्ती पर्जके) पुरुषवेदमें १२ पति मिले ७ एकेन्द्रीय और स्त्री० वर्ज के
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१६३ साधु १२ पशि मिले चार पांचेन्द्रिय ८ वडी पद्वि - अढाई बीपके बाहर २ पति मिले ( श्रावक सम्यग्दृष्टी।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० ११०
( गत्यागति) जीव मरके दूसरी गतीमें उत्पन्न होता है उसको गति कहते हैं । और जिस गतीसे आकार उत्पन्न होता है उसको भागती कहते हैं । जैसे नारकीसे निकलकर जिस गतिमें जावे ( यथा रत्नप्रभा नारकीका जीव तीर्यचके १० और मनुष्य गतिके ३. भेदोंमें उत्पन्न होता है । उसको गती कहते हैं। और १० भेदें तीर्यचके जीव १५ भेदे मनुष्य के जीव रत्नप्रभा नारकीमें उत्पन्न होता है उसको आगती कहते हैं । इसी तरह सब ज. गह समझ लेना। मार्गणा
न. ती. मनुष्य देवता. समुचय. १ रत्नप्रभा नारकीकी आगती ०-१०- १५- ०२. , , गती ०-१०- ३०- - ३ शर्कर० , आगती ०-५- १५है , , गती ०-१० ३०- - ४० ५ वालूप्रभा , आगती -+४- १५- ०- १९ ६ " " गती ०-१०- ३०- -
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१६४
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७ पंकप्रभा , आगती ०-३- १५-..-- १८
गती 0-100 ९ धूमप्रभा , आगती ०-४२- १५-.- १७ १० , , गती ०-१०- ३०- - ४० ११ तमप्रभा , आगती ०-x1- १५१२ ". , गती ०-१०- ३०१३ तमस्तमः ।, आगती ०- १- १५- - १४ तमस्तम नारकीकी गती १५ भुवनपति व्यंतर कि आगती -१०-१०१- ०-१११
गती ०-१६-३०- - ४६ १७ ज्योतिषी सौधर्म दे० आगती or ५- ४५- - ५० १८ , , गती ०-२६-३०- ०-४६ १९ दूजा दे० आगती
...-५-३५- ०-१० २० , गती
०-१६- ३०- ०-४६ २१ प्रथम किल्विषी कि आगती ०-५-२५२२
गती ०-१६- ३०२३ तीजेसे आठवे दे. आगती ०-५,
गती ०-१०-३०- - २५ नौवे दे से सर्वार्थसिद्ध आगतो ०-८- १- - १५ २६
गती २७ पृ० पाणी० वनः आगती ०-४८-१३१-६४-२४३ २८ , , , गती ०-४८-१३१- ०-१७९ २९ तेउ वाउ आगती
०-४८-१३१- ०-१७९ ३०., , गती
०-४८- - -१८ ३१ तीन विकलेन्द्री आगती ०-४८-१३१- 6-१७९ ३२ . , गती
०-४८-१३१-०-१७९ + भुज० वर्जे । खेचरवर्जे. थलचर. उजपुरवर्जे x
२४
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१६५
३३ असन्नी तीर्यच पंचेन्द्री. आगती ०-४८-१३१-०-१७९ ३४ ,
गती २-४८-२४३-०२-३९५ ३५ सन्नी ,
आगती ७-४८-१३१-८१-२६७
गती १४-४८-३०३-१६२-५२७ ३७ जलचर । आगती ... १४-४८-३०३-१६२-५२७ ३८ थलचर | पाँचोंकी ... ८-४८-३०३-१६२-५२१ ३९ खेचर - ३६७ की ... ६-४८-३०३-१६२-५१९ ४० उरपरी ) है. गती ... १०-४८-३०३-१६२-५२३ ४१ भुजपरी । कहते हैं ... ४-४८-३०३-१६२-५१७ ४२ असन्नी मनुष्यकि आगती ०-४०-१३१-- -१७१ ४३ , गती -४८-१३१- ०-१७९ ४४ सन्नी मनुष्यकि आगती ६-४०-१३१- ९९-२७६ ४५." " गतो १४-४८-३०३-१९८-५६३ ४६ देवकुरु उत्तरकुरुकि आगती -५- १५.०-२० ४७
गती ०-०-०-१२८-१२८ ४८ हरीवास रम्यककी आगती ०-५- १५- ०-२० ४९ ,
गती ०-०- ०-१२६-१२६ ५. हेमवय ऐरणवयकी आगती ०.५- १५- - २० ५१ ।
गती ०-०- ०-१२४-१२४ ५२ छप्पन अन्तरद्वीप आगती ०-१०- १५-०-२५
१-१०२-१०२ ५४ तीर्थकरकी आगती ५५, गती
...- मोक्ष ५६ केवलीकी आगती ४-८-१५- ८१-१०८ ५७ , गती
0- 0- - HIN ५८ चक्रवर्तीकी आगती १-०- ०-६१- २ ५९
गती १४- ०-०-०- १४
9:
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१६६
६० बलदेवकी आगती ६१ , गती पदवी अमर (दिक्षा ले) ६२ वासुदेवकि आगति २- - ०-३०- ३२ ६३ , गति ६४ मंडलीक राजा आगती ६-४०-१३१- ९९-२७६ ६५ , , गति १५-४८-३०३-१७०-५३६ ६६ साधु आराधिक आगती ५-४०-१३१- ९९-२७५ " गती
.-.- ०-७०-७० ६८ साधु विराधिक आगती ५-४०-१३१- ९४-२७० ६९ , , गती -०- ०-१२४-१२४ ७० श्रावक आराधिक आगती ६-४०-१३१- ९९-२७६ ७१ ,
गती - - -४२-४२ ७२ , विराधिक आगती ६-४०-१३१- ९४-२७१ ७३
गती - - ०-१२२-१२२ ७४ सम्यक्त्वदृष्टीकी आगती ७-४०-२१७- ९९-३६३ ७५
गती १२-१८- ३०-३२ ७६ मिथ्यादृष्टीकी आगती ७-४८-२१७- ९४-३६६
कम गती १४.४८-३०३-१८८-५५३ ७८ मिश्रदृष्टीकी आगती ७-४८-२१७- ९४-३६६ ७९
गती अमर (काल न करे) ८० स्त्रीवेदकी आगती ७-४८-२१७- ९९-३७१ ८१ गती १२-४८-३०३-१९८-५६१ ८२ पुरुष वेदकी आगती ७-४८-२१७- ९९-३७१
, गती १४-४८-३०३-१९८-५६३ ८४ नपुंसकवेदकी आगती ७-४८-१३ - ९९-२८६
, गती १४-४८-३०३-१९८-५६३ सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
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१६७ थोकडा नं० १११
श्री पन्नवणा सूत्र पद ६
( गत्यागती) १ रत्नप्रभा नारकीकी आगती ११ की-पाँच सन्नी तीर्यच, पांच असन्नी तीर्यच और संख्याते वर्षका कर्मभूमी मनुष्य. एवं ११ तथा गती ६ की पांच सन्नी तीर्यच और संख्याते वर्षका कर्मभूमी मनुष्य ।
२ शर्करप्रभा नारकीकी आगती ६ की-पांच सन्नी मनुष्य और संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य । तथा गती ६कीपांच सन्नी तोर्यच और संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य ।
३ वालुप्रभा नारकीकी आगति ५ की-भुजपरी तीर्यच वर्ज के उपरवत् पांच और गति ६ को पूर्ववत् ।
४ पंकप्रभा नारकीकी आगति ४ की खेचर वर्जके शेष ४ पूर्ववत् और गती ६ की पूर्ववत् ।
५ धूमप्रभा नारकीकी आगत ३ की-थलचर वर्जके शेष ३ पूर्ववत् और गति ६ की पूर्ववत् । .. ६ तमप्रभा नारकीकी आगत ४ की-स्त्री, पुरुष, नपुंसक और जलचर तथा गती ६ की पूर्ववत् ।।
७ तमातमप्रभा नारकीकी आगती ३ की-पुरुष, नपुंसक और जलचर तथा गती ५ की ( सन्नी तीर्यच पांच )
दश भुवनपती, व्यंतरकी आगती १६ की-पांच सन्नी पाँच असन्नी तीर्यच १० संख्याते वर्षका कर्म भूमि मनुष्य ११
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असंख्याते वर्षका कर्म भूमी मनुष्य १२ अकर्म भूमि १३ अन्तर द्वीप १४. खेचर युगलीया १५ थलचर युगलीया. १६ तथा गती ९ की--पांच सन्नी तीर्यच ५ संख्याता वर्षका कर्मभूमि मनुष्य ६ पृथ्वी० ७ अप्प० ८ वनास्पति ९। ___ ज्योतिषी सौधर्म ईशान देवलोककी आगती ९ की-पांच सन्नी तीर्यच, संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य, असंख्याते वर्षका कर्मभूमि, अकर्मभूमि, और थलचर युगलीया । तथा गती ९ की भुवनपतीवत् ।
तीजे देवलोकसे आठ देवलोक तककी आगती ६ कीपाँच सन्नी तीर्यच और संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य । तथा गती ६ की--पांच सन्नी तीर्यच और संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य। ___नौमें देवलोकसे बारमें देवलोक तककी आगती ४ कीसंयती, असंयती, संयतासंयती और मिथ्यादृष्टी मनुष्य । तथा गती १ संख्यात वर्षका कर्मभूमि मनुष्यकि.
नौग्रेवैक विमान की आगती २ की-साधुलिंग सम्यगदृष्टी और साधुलिंग मिथ्यादृष्टी। तथा गती १ संख्याते वर्षका कर्मभूमि मनुष्य ।
पांच अनुत्तर विमानकी आगती २ की-अप्रमत्त ऋद्धि पत्ता और अप्रमत अऋद्धि पत्ता। तथा गती 1 सं० वर्षका कर्म भूमि मनुष्य ।
पृथ्वी, अप्प. वनस्पति की आगती ७४ की-तीर्यच १६ (वनस्पति ६ की जगह ४ समझना ) मनुष्य ३ भुवनपती १० व्यन्तर ८ ज्योतिषी ५ सौधर्म, ईशान देवलोक । तथा गती १९ कि तीर्यच के ४६ मनुष्य के ३ ।
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१६६ तेउ० वायु० की आगती ४९ की-तीर्यच के ४६ मनुष्य ३ तथा गती ४६ कि तीर्यचके
विकलेन्द्रियकी आगती ४९ की पूर्ववत् तथा गती भी इसी तरह ४९ की।
तीर्यच पंचेन्द्रियकी आगती ८७ की-तीर्यच ४६ मनुष्य ३ भुवनपती १० व्यन्तर ८ ज्योतिषी ५ देवलोक ८ और नारकी ७ एवं ८७ तथा गती ९२ की-८७ पूर्ववत् संख्याते वर्षका कर्म भूमि असंख्याते वर्षका कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अन्तरद्वीपा, स्थलचर युगलीया एवं १२ ।
मनुष्य की आगती ९६ की-तीर्यच ३८ ( तेउ० वायुका ८ बर्जके) मनुष्य ३ भूवनपती १० व्यंतर ८ ज्योतिषी ५ देवलोक १२ ग्रैवेक विमान ९ अनुत्तर विमान ५ नारकी ६ एवं ९६ तथा गती १११ की-९६ पूर्ववत तेउ० वाउ०८ सातमी नारकी, असं ख्याते वर्ष कर्मभूमि अकर्मभूमि अन्तर द्वीपा स्थलचर युगलीया, खेचर युगलीया और सिद्ध गती एवं १११
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
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२०० थोकडा नं० ११२
श्री पन्नवणा सूत्र पद २१ ।
(शरीर) (१। नामद्वार -- औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर तेजस शरीर कार्मण शरीर.
(२) अर्थ द्वार-(१) औदारिक शरीर याने हाडमांस लोही राघयुक्त सडण पडण विद्धंसण धर्मवाला होने पर भी तीर्थकर गणधरादि इस शरीरको धारण किया है मोक्ष जानेमे यह शरीर प्रधान कारण है वास्ते इस शरीर को प्रधान माना गया है (२) वैक्रिय शरीर औदारिकसे विप्रीत और दृश्यावृश्य नाना प्रकारका रुप बनावे। (३) आहारीक शरीर चौदह पूर्वधर बनाधे जिसके चार कारण है यथा प्रश्न पूछने के लिये तीर्थंकरोंकी ऋद्धि देखने के लिये, संशय निवारण करनेके लिये जीव रक्षाके लिये । (४) तेजस शरीर, आहारके पाचन क्रिया करनेवाला (५) कार्मण शरीर, पचे हुवे आहारको यथायोग्य प्रणमावे ।
(३) अवगाहना द्वार--औदारिक, वैक्रियकी जघन्य अगुलके असं० भाग उ० औदारिककी १ हजार योजन साधिक, वैक्रियकी १ लक्षयोजन साधिक । आहारक शरीरकी ज० १ हाथ ऊणा उ० १ हाथ । तेजस, कार्मणकी ज• अंगुलके असं० भाग उ० १४ राज प्रमाण ।
(४) शरीर संयोग द्वार--औदारिकमें तेजस कार्मणकी नियमा शेष दोकी भजना। वैक्रियेमें तेजस कारमणकी नियमा
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औदारिककी भजना आहारक नहीं । आहारको वैक्रिय नहीं शेष ३ शरीरकी नियमा। तेजसमें कार्मणकी नियमा। कामणमें तेनसकी नियमा बाकी तीन शरीरकी भजना।
(५) द्रव्य द्वार--औदारिक वैक्रिय शरीरका द्रव्य असं. ख्याते असंख्याते है । आहारक० संख्याते। तेजस कार्मणका अनंते अनन्ते है।
(६) प्रदेश द्वार--प्रदेश पांचो शरीरोंके अनन्ते अनन्ते है।
(७) द्रव्यकी अल्पाबहुत्व द्वार--सबसे स्तोक आहारक शरीरके द्रव्य, धैक्रिय शः द्रव्य असं० गु० औदारिक श. द्रव्य असं० गु० तेजस कार्मण परस्पर तुल्य अनं० गु०।।
(८) प्रदेशका अल्पा बहुत्व- सर्वसे स्तोक आहारक शरीरका प्रदेश, । वक्रिय श०प्र० अस० गु० । औदारिक श० प्र० असं० गु० । तेजस श० प्र० अनं० गु० कार्मण श० प्र० अनं० गु०।
(६) द्रव्य प्रदेशकी अल्पा बहुत्व-- (१) सबसे स्तोक आहारक शरीरका द्रव्य (२) वैक्रिय श० का द्रव्य असं० गु० (३) औदारिक श का द्रव्य असं० गु० (४) आहा. रिक श० का प्रदेश अनं० गु. (५) वैक्रिय श० का प्रदेश असं० गु० (६) औदारिक श का प्रदेश असं० गु० (७) तेजस कार्मण श० द्रव्य अनन्त गु०१८) तेजस श० प्रदेश अनं. गु. (९) कार्मण श० प्रदेश अनं० गु०
(१०) स्वामी द्वार--औदारिक श० का स्वामी मनुष्य तीर्यच वैक्रिय श० का स्वामी चारों गतीके जीष । आहारक श. के स्वामी चौदह पूर्वधर मुनि । तेजस कारमण का स्वामि चारों गति के जीव होते है।
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(११) संस्थान द्वार---औदारिक, तेजस, कार्मण श० में छ संस्थान । वैक्रियमें दो ( सम हुड० ) आहारको १ समचौरस ।
(१२) संहनन द्वार-औदारिक, तेजस कार्मण छे संहनन क्रिय श० में संहनन नहीं । आहारको १ व्रजऋषभनाराच। .
(१३) सुक्ष्म बादर द्वार-(१) सबसे सुक्ष्म कार्मण श० (२) उससे तेजस बादर (३) आहारक बादर (४) वैक्रिय बादर (५) औदारिक बादर । सबसे बादर औदारिक उससे वैक्रिय सूक्ष्म । आहारक सुक्ष्म । तेजस सुक्ष्म । कार्मण सुक्ष्म ।
(१४) प्रयोजन द्वार-औदारिकका प्रयोजन आठ कर्मोंकों क्षय करके मोक्षमे नानेका है । वैक्रियका प्रयोजन नाना प्रकारका रुप बनाना । आहारकका प्रयोजन संशय छेदन करना । तेजस कार्मणका प्रयोजन संसारमें भवभ्रमण करानेका है।
(१५) विषय द्वार--औदारिककी विषय रुचकद्वीप, तक वैक्रियकि असंख्याते द्वीप समुद्र तक। आहारककि अढाई द्वीप तक । तेजस कार्मणकि चौदह गजलोक तक कि विषय है।
(१६) स्थिति द्वार-औदारिक, ज. अन्तर मु० उ० तीन पल्योपम । वैक्रिय ज०१ समय उ. ३३ सागरोपम | आहारक म. उ. अन्तर मुहूर्त । तेजस कार्मणकी अनादि अनन्त अनादि सान्त ।
(१७) अवगाहनाकी अल्पाबहुत्व । (१) सबसे स्तोक औदारिक शरीरकी ज• अवगाहना (२) तेजस कामणकी ज० अ० वि० । (१८) अल्पाबहुत्व बार (३) पैकियकी ज० अ० असं० गु. (१ स्तोक आहारीक शरीर (४) आहारककी ज. अ. " २) वैक्रय श. असं० गु.
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२०३
(५) " की उ० " वि० (३) औदारिक श० असं० गु. (६) औदारिकी " " सं.गु० (४) तेजस कारमण आपस (७) वैक्रियकी " " " में तल्य और अनंत गु. (८) तेजसकार्मण' " असं• गुरु
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं. ११३
श्री भगवती सूत्र श० १९ उ०३
(अवगाहना अल्पा०) (१) सबसे स्तोक सुक्ष्म निगोद के अपर्याप्ताकी जघन्य अवगाहना (२) सुक्ष्म वायुकायके अपर्या० की ज० अव० असं० गु० (३) सुक्ष्म तेउ० (४) सुक्ष्म अप्प
(५) सुक्ष्म पृथ्वी : (६) बादर वायु०
" , " (७) बादर तेउ० (८) वादर अप्प० " " " " " (९) बादर पृथ्वी० , " " " " (१०) बादर निगोद . , , , " " . (११) प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिके अप० ज० अव० असं० गु० (१२) सुक्ष्म निगोद पर्या० की ज. अव० असं० [. (१३) सुक्ष्म निगाद अप० की उत्कृष्ट अव० वि० (१४) , पर्या० की " , " .
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२०४
(१५) सुक्ष्म वायु० पर्य० ज० अब० असं० गु०. . . (१६) , अप० उ० अव०वि० (१७)
पर्या० उ. अव०वि० (१८) सुक्ष्म तेउ० पर्या० ज. अव० असं, गु० (१९)
अप० उ० अव० वि० (२०). , पर्या० उ० अव०वि० १२१) सुक्ष्म अप्प पर्या ज. अव० असं गु. (२२) , अप. उ. अव०वि० (२३) , पर्या० उ० अव. वि. (२४) सुक्ष्म पृथ्वी० पर्या ज. अवअ० सं०-गु० (२५) , अप० उ० अव० वि० (२६) , पर्या० उ० अव० वि० (२७) बादर वायु० पर्या. ज. अव असं० गु० (२८) , अप० उ० अव०वि० (२९) , पर्या० उ० अप० वि० (३०) बादर तेउ० पर्या० ज. अब० असं० गु. (३१)
अप० उ० अव०वि० (३२)
पर्या० उ० अव०वि० (३३) बादर अप्प० पर्या० ज० अव० असं० गु० (३४)
अप० उ. अव०वि० (३५) , पर्या० उ० अब० वि० (३६) बावर पृथ्वी० पर्या. ज. अव० असं० गु० (३७) , अप. उ. अव०वि० (३८)
पर्या० उ० अब० वि० (३९) बादर निगोद.पर्या० ज० अब० असं गु. (४०)
अप० उ. अव०वि० (४१) , पर्या० उ० अव०वि०
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२०५ (४२) प्रत्येक शरीर बादर वन पर्या० ज अव० असं० गु० (४३) , , अप. उ. अव० असं० गुरु (४४)
, पर्या० उ० अव० असं गु० सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० ११४ श्री भगवती सूत्र श० ८ उ० ५।
(सप्रदेश) पुद्गल चार प्रकारके होते है-द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे, और भावसे जिसमें द्रव्यसे पुद्गलोंके दो भेद सप्रदेशी (विपरमाणुवादि) और अप्रदेशी ( परमाणु क्षेत्रसे पु० के दो भेद-सप्रदेशी (दो प्रदेशीसे यावत् असं प्रदेश अवगाह ) और अप्रदेशी (एक आकाश प्रदेश अवगाही) कालसे पुद्गलोके दो भेद-सप्रदेशी (दो समयसे यावत् असं समयकी स्थितिका) और अप्रदेशी (एक समयकी स्थितिको) भावसे पुद्गलोंके दो भेद-सप्रदेशी (दो गुण कालेसे यावत् अनन्त गुण काला ) और अप्रदेशी (एक गुण काला) ... जहां द्रव्यसे अप्रदेशी है वहां क्षेत्रसे नियमा अप्रदेशी है। कालसे स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी । एवं भावसे और क्षेत्र से अप्रदेशी है वह द्रव्यसे स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी । एवं कालसे भाषसे ॥ और कालसे. अप्रदेशी है वह द्रव्यसे क्षेत्रसे भावसे स्यात् सप्रदेशी स्यात अप्रदेशी है। और भावसे अप्रदेशी है वह द्रव्यक्षेत्रकालसे स्यात सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी है और
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जो द्रव्यसे सप्रदेशी है वह क्षेत्रसे कालसे भावसे स्थात् सप्रदेश स्यात अप्रदेशी है। और क्षेत्रसे सप्रदेशी है वह द्रव्यसे नियम सप्रदेशी है। और कालसे भावसे स्यात सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी है। और कालसे सप्रदेशी है वह-द्रव्य क्षेत्र भावसे स्यात् सप्रदेशी स्यात् अप्रदेशी है । और भावसे सप्रदेशी है। वह द्रव्यसे क्षेत्रसे कालसे स्यात् सप्रदेशी स्यात अप्रदेशी है। .
( अल्पाबहुत्ष) (१) सबसे स्तोक भवसे अप्रदेशी द्रव्य (२) कालसे अप्रदेशी द्रव्य असं० गु० (३) द्रव्यसे अप्रदेशी द्रव्य असं० गु. (१) क्षेत्रले अप्रदेशी द्रव्य असं गु० (५) क्षेत्रसे सप्रदेशी द्रव्य असं० गु.. (६) द्रव्यसे सप्रदेशी द्रव्य वि० (७) कालसे सप्रदेशी द्रव्य वि. (८) भावसे सप्रदेशी द्रव्यवि.
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सञ्चम् ।
-- -- थोकडा नं. ११५
श्री भगवती सूत्र श० ५ उ०८।
(हियमाण वढमाण) हे भगवान् ! जीव हियमान (न्यन होना ) है बदमाण (वृद्धि होना) है या अवस्थित है ? गौ० जीव हियमान नहीं है।
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२०७
धिमान नहीं है किन्तु अवस्थित है । नारकीके नेरीयोंकी पृच्छा ? मारकीके नेरीया हियमान० भी है वृद्विमान भी है और अबस्थित भी है एवं यावत् २४ दंडक कहना सिद्ध भगवान वृद्धमान है और अवस्थित है। . समुचय जीव अवस्थित रहे तो सदाकाल सास्वता, नारकीका नैरीया हियमान वृद्धमान रहे तो ज. एक समय उ० आविलीकाके असं० भाग, और अपस्थित रहे तो विरह कालसे दुमुणा । "देखो शीघ्रबोध भाग १ में विरह द्वार"। एवं चौवीस दंडकमें हियमान वृद्धमान नारकीवत् और अवस्थित काल विरह बारसे दुगणा, परन्तु पांच स्थावरमें अवस्थित कालहियमानवत् समज लेना। सिद्धोमे वृद्धमान ज. एक समय उ. आठ समय और अवस्थित काल ज एक समय उ० छे मास इति।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नंबर ११६
श्री भगवती सूत्र श० ५ उ०८।
(सावचया सोवचया) .... हे भगवान ! जीव 'सावचया है या सोवचया है ? या सापचया सोषचया है ? या 'निरुवचया निरवचया ? जीव निस्वचया निरवचया? है शेष तीन भांगा नहीं। नारकी आदि २४ दंडकमें पूर्वोक्त चारों भांगा पावे । सिद्धोंमें भांगा दो [१] सावचया २] निरुवचया निरवचया।
१ वृद्धि । २ हानी। ३ वृद्धि हानी । ४ वृद्धि नहीं हानी नहीं ।
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२०८
समुचय जीवमें निरुवचया निरवचया है वह सर्वार्द्ध है और नारकी में निरुवचया निरषचया वर्जके शेष तीन भागकी स्थिति ज० एक समय उ० आवलीका के असं० भाग और निरुषचया freeeerat स्थिति विरह द्वार सदृश समझना परन्तु पांच स्थावरमें निरुवचया निरवचया भी ज० एक समय उ० आविलीकाके असं० भाग, सिद्ध भगवान में सावचया ज० एक समय उ० आठ समय और निरुवचया निरवचया ज० एक समय उ० है मासः इति ।
नोट- पांच स्थावरमें अवस्थित काल तथा निरुवचया निरवचया काल अवलिकाके असं० भाग कहा है वह परकाया पेक्षा है स्वकायका विरह नहीं 1
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् । -*O*--
थोकडा नं० १९७
श्री पन्नासूत्र पद १४.
( कषायपद )
जिन महात्माओंने चतुर्गती रूप घोर संसारको तैरके परम पदको प्राप्त किया है वे सब इस कषायके स्वरूपको समझके और इसका परित्याग करके ही अक्षय सुख [ मोक्ष पद ] को प्राप्त हुए हैं। बिना इसके परित्याग किये अक्षय सुखकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सक्ती इस लिये पहिले इसको यथावत् समझे और फिर उसका त्याग करें ।
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२०६ । कषाय चार प्रकारका है-क्राध, मान, माया और लोभ. जिसमे पहिले एक क्रोधकी व्याख्या करते हैं । क्रोधकी उत्पत्ती चार कारणों से होती है यथा।
[१] अपने लिये स्विकार्य] [२] परके लिये [ कुटुम्बादि ) [३ दोनोंके लिये स्वपर] [४] निरर्थक [बिना कारण]
और भी क्रोधके उत्पत्तीका चार कारण कहे है यथा । [१] शरीरके लिये । [ २ ] उपाधी-धनधान्यादि वस्तुके लिये । [३] क्षेत्र-नगा-जमीनादिके लिये । [४] वत्थु बागबगीचा खेती आदिके लिये।
क्रोध चार प्रकारका है।
१] अनन्तानुबंधी-पत्थरकी रेखा सदृश । २] अप्रत्याख्यानी-तलावके मट्टीकी रेखा सहश | ३) प्रत्याख्यानी गाडीके पहियेकी लकीर सदृश । ४' संज्वल-पानीकी लकीर सदृश ।
ओर भी क्रोध चार प्रकारका कहा है।
१] उपशान्त-उपशमा हुवा। [२] अनोपशान्त-उदयमें वर्तता। ३]. आभोग-नानता हुवा। [४] अनाभोग-अनजानता हुवा।
. एवं सोलह प्रकारका क्रोध समुचयजीव करे । इसी माफक २४ दंडकके जीवों करें। इस लिये १६ का २५ गुणा करनेसे ४०० मांगे हुवे । १.१४
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एक जीव क्रोध करनेसे भूत कालमें आठों कर्मों के पुल एकत्रित किये । वर्तमानमें करते है । और भविष्यमें करेंगे। एवं विशेषकर कर्म पुद्गलोको एकत्रितकर बन्ध सामग्री योग्य किया, "करे और करेंगे, इसी तरह क्रोध करके आठों कर्म बांध्यां बांधे, बाधसी.-उदीरीया, उहीरे, उदीरसी-वेदीया. वेदे, वेदसी-और निर्जरीया, निर्जरे, 'निर्जरसी एवं एक जीषा श्रीय क्रोधके १८ भांगे हुवे | इसी तरहे घणो जीवोंश्रय भी १८. कुल ३६ यह समुचय जीवोंश्रय कहा । इसी माफक २४ दंडकमे भी ३६-३६ भांगे लगानेसे २५ को ३६ गुणा करनेसे ९०० और पूर्वके ४०० एवं १३०० भांगे हुवे. इसी तरह मान, माया, लोभके लगानेसे १३०० को चारगुण कुल ५२०० भांगे हुवे ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
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थोकडा नं ११८
श्री भगवती सूत्र श० १ उ० ५।
( कपाय ) ____ स्थिति ४ अवगाहना ४ शरीर ५ संहनन ६ संस्थान ६ लेश्या ६ दृष्टी ३ नाण ८ योग ३ उपयाग २ एवं ४७ बोल जिसमें नारकी आदि २४ दंडकमें कितने कितने बोल मिले वह यंत्र द्वारा दिखाते है
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४ /६/६/६/३/८/३/२ नारकीमें भुषन व्यन्तर ज्यो यावत् अच्युत् दे० मौग्रेवक वै० अनुत्तर वैमान पृ. पा० वना० तेउ० वाउ. विकलेन्द्रिय तीर्यंच पंचेन्द्रिय | मनुष्यों
ક૭ | ક | કવિ દ પ રૂ ૮ રૂ૨ १ स्थितिके चार भेद है-यथा [१] जघन्य स्थिति [२] जघन्य स्थितिसे एक समय दो समय तीन समय यावत् संख्याते समय अधिक [३] संख्याते समयसे एक समय अधिक यावत् असंख्याते समय अधिक [४] उत्कृष्ट स्थिति। ... २ अवगाहनाके चार भेद है यथा-[१] जघन्य अवगाहना [२] जघन्य अवगाहनासे एक दो तीन ,यावत् संख्याते प्रदेश अधिक [:] संख्यातेसे एक दो तीन यावत् असंख्याते प्रदेश अधिक ४] उत्कृष्ट अवगाहना। __ शेष सात द्वारोंके बोल सुगम है देखो लघुदंडकमें।
नारकीमें बोल पावे २९ जोकी स्थिति के चार भेद हैं जिसमेसे दूसरा भेद और अवगाहनाके दूसरे तीसरे भेद और मिश्र वृष्टी एवं चार बोलोंमें क्रोधी मानी मायी लोभी इन चारों कषायके ८० भांगे होते हैं। शेष २५ बोलोंमें क्रोधादि चार कषायके २७ भांगे होते हैं । ये दोनों प्रकारके मांगे नीचे लीखे यंत्रसे समझना।
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२१२
८० भागोंकी स्थापना... असंयोगी ८ भांगा, बिसंयोगी २४ भांगा, त्रिकसंयोगी ३१ भांगा, चार संयोगी १६ भांगा, एवं ८० भांगा।
असंयोगी ८ यथा-क्रोधीएक, मानीएक, मायीएक, लोभीएक, कोधोघणा, मानीघणा, मायीघणा, लोभीपणा।
द्विसंयोगी भांगा २४ क्रो. मां. क्रो. मा. क्रो. लो. मां. मा. मां. लो. मा. लो.
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तीन संयोगी भांगा ३२ क्रो. मां. मा. क्रो. मा. लो. क्रो. मा. लो. मां. मा लो.
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२१३ चार संयोगी भांगा १६ क्रो. मां. मा. लो. क्रो. मां. मा. लो.
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एवं ८० भांगे । अब २७ भांगोकी स्थापना नीचे लिखते है यथा-[१] क्रोधके हरबख्तसे सास्वते मिलते है। [२] क्रोधका घणा और मानका एक [३] क्रोधका घणा और मानका घणा एवं दो मायाके और दो लोभके एवं ७ असंयोगी द्विसंयोगी भांगे हुधे, और तीन संयोगीके १२ भांगे। यंत्रसे।
। क्रो० मां० मा० | क्रोमां० लो० | क्रो० मा० लो०
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देवता भुवनपती यावत् बारहवें देवलोक तक अपने २ बोलोंसे चार २ बोल [ नारकीवत् ] में भाग ८० शेष बोलोंमें भांगे २७ है। जिसकी स्थापना उपरवत् । परन्तु नारकीके २७ भागों में क्रोधी सास्वते बहुवचन कहे हैं यहां देवतामें लोभी बहुवचन सास्वता कहना । एवं नौ नौयैवेक और पंचानुत्तर वैमानखें तीन बोल ( मिश्रदृष्टी वर्ज के) में भागा ८० शेष बोलोंमें भागा २७ कहना ।
पृथ्वी, पानी, वनस्पतिमें बोल २३ जिसमें तेजुलेशीमें भाँगा ८० शेष बोल २२ तथा तेउ वायुके २२ बोलोंमें अभंग है । याने चारों कषायवाले जीव हरसमय असंख्याते मिलते है । तीन विकलेन्द्रियमें बोल २६ जिसमें [ १ ] स्थितिका दूसरा बोल | [ २ ] अवगाहनाका दूसरा बोल [३] मतिज्ञान [४] श्रुतिज्ञान | [ ५ ] सम्यक्त्वदृष्टी इन पांचों बोलोंमें भांगा ८० शेष बोलोंमें अभंग । तीर्थच पंचेन्द्रिय नारकीवत् चार बोलों में भांगा ८० शेष बोलोंमें अभंग । मनुष्यमें बोल ४७ जिसमें दो स्थितिका दूजो तीजो बोल दो अवगाहनाका दूजो तीजो बोल आहारिक शरीर, और मिश्रदृष्टी इन छे बोलोंमें ८० भांगा शेष बोलोंमें अभंग । सेवंभते सेवते तमेव सच्चम् ।
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२१५ थोकडा नं० ११६
श्री पन्नवणा सूत्र पद १५ ।
(इन्द्रिय ) संसारी जीवोंके इन्द्रिय दो प्रकारकी है-एक द्रव्येन्द्रिय और दूसरी भावेन्द्रिय. द्रव्येन्द्रियद्वारा पुद्गलोंको ग्रहण करते हैजैसे कर्णेन्द्रियद्वारा पुगलोंको ग्रहण किया और वे पुद्गल इष्ट अनिष्ट होनेसे रागद्वेष होना यह भावेन्द्रिय है। अर्थात् द्रव्येन्द्रिय कारण है और भावेन्द्रिय कार्य है। यहां पर द्रव्येन्द्रियका ही अधिकार १८ द्वार करके लिखेंगे।
[१] नामद्वार-श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय।
२] संस्थानद्वार-श्रोतेन्द्रियका संस्थान कदम्ब वृक्ष के पुष्पाकार, चक्षुइन्द्रियका चन्द्र या मसूरकी दालके आकार, घ्राणेन्द्रिय लोहारकी धमणाकार, रसेन्द्रिय छूरपलाके आकार और स्पर्शेन्द्रिय नानाकार ।
[३] जाडपना द्वार-एकेक इन्द्रिय जघन्य और उत्कृष्ट अंगुलके असंख्य भाग जाडी है । यहां पर इतना अवश्य समझना चाहिये कि इन्द्रिय और इन्द्रियके उपगरण जैसे श्रोतेन्द्रिय अंगुलके असंख्यातमे भाग है और कान शरीर प्रमाण होते है । कानको उपगरण इन्द्रिय कहते है और जो पुद्गल ग्रहण किया जाता है यह इन्द्रिय द्वार उसीका यहां जाडपना बतलाता है।
[४] लम्बापनाद्वार-रसेन्द्रिय ज अंगुलके असंख्या
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तमें भाग उ० प्रत्येक अंगुलकी है। शेष चारोन्द्रिय ज. उ० अंगुल. के असंख्यातमें भाग है भावना तीजे द्वारकी माफक समझना।
[५] अवगाह्याद्वार-एकेकेन्द्रिय असंख्याते २ आकाश प्रदेश अवगाहा है। जिसकी तरतमता दिखाने के लिये अल्पा: बहुत्व कहते है।
[१] सर्वस्तोक चक्षु इन्द्रिय अवगाहा [ २ ] श्रोतेन्द्रिय अ० संख्यातगुणा । [३] घ्राणेन्द्रिय अ० सं० गुणा । [४] रसेन्द्रिय अ० असं० गुणा । [५] स्पर्शेन्द्रिय अ० सं० गुणा।
[६] पुद्गल लागाद्वार-एकेकेन्द्रियके अनन्ते अनन्ते पुद्गल लागा है। जिसकी अल्पाबहुत्व [१] चक्षु इन्द्रिय लागा, सबसे स्तोक [२] श्रोतेन्द्रिय लागा सं• गुणा। [३] घाणेन्द्रिय लागा सं० गु० ४ ] रसेन्द्रिय लागा असं• गु० [५] स्पर्शेन्द्रिय लागा सं० गुरु
[७] अवगाह्या लागाकी-सामल अल्पाबहुत्व-[१] चक्षु इन्द्रिय अवगाहा सबसे स्तोक [ २ ] श्रोतेन्द्रिय अ० सं• गु० [३] घ्राणेन्द्रिय अ० सं० गु० [४] रसेन्द्रिय अ. असं० गु० [५]स्पर्शेन्द्रिय अ० सं० गु० [६ चक्षु इन्द्रिय लागा० अनं० गु० [७ । श्रोतेन्द्रिय लागा सं० गु० [८ } घ्राणेन्द्रिय लागा सं० गु० [९] रसेन्द्रिय लागा असं० गु० [१०] स्पर्शेन्द्रिय लागा सं• गु०
[८] कक्खडा [कर्कश ] गुरुवा [ भारी] द्वार-एकेकेन्द्रियके अनन्ते अनन्ते पुद्गल लागा है। जिसकी अल्पाबहुत्व [१] सबसे स्तोक लागा चक्षु इन्द्रियके [२] श्रोतेन्द्रियके अनन्त गु० ३ ] घ्राणेन्द्रियके अनन्त गु० [४] रसेन्द्रियके अनन्त गु० [५] स्पर्शन्द्रियके अनन्त गु०
[१] लहुया [ हलका ] महुया [ कोमल ] द्वार--एके.
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२१७
केन्द्रियके अनन्ते २ पुद्गल लागा है। जिसकी अल्पाबहुत्व [१] सबसे स्तोक स्पर्शन्द्रियके लागा [२] रसेन्द्रियके लागा अनन्त गु० [ ३ ] घ्राणेन्द्रियके लागा अनन्त गु० [४] श्रोतेन्द्रियके लागा अनन्त गु० [५] चक्षुइन्द्रियके लागा अनन्त गुणा।
[१०] आठवा नौवा बोलकी सामील अल्पाबहुत्व-- [१] सबसे स्तोक चक्षु इन्द्रियके कक्खडा गुरुवा पुद्गलों लागा. (२) श्रोतेन्द्रियके कक्खडा गुरुवा लागा अनन्त गु० (३) घ्राणेन्द्रियके , " , " (४) रसेन्द्रियके , " " " (५) स्पर्शेन्द्रियके , " " " (६) , लहुया महुया लागा , (७) रसेन्द्रियके " " " " (८) घ्राणेन्द्रियके " " " " (९) श्रोतेन्द्रियके " " " " (१०) चक्षुन्द्रियके , , ,
(११) जघन्य उपयोगका कालद्वार(१) सबसे स्तोक चक्षु इन्द्रियका ज? उप० काल (२) श्रातेन्द्रियका न उप० काल विशेषाधिक (३) घ्राणेन्द्रियका ज० उप० काल " ( रसेन्द्रियका " , " (५. स्पर्शन्द्रियका , " " "
(१२) उत्कृष्टा उपयोगकि अल्पा० जघन्यवत्
(१३) जघन्य उत्कृष्टा उपयोग कालद्वार अल्पा० (१) चक्षु इन्द्रियका जघन्य उपयोग काल स्तोक (२) श्रोतेन्द्रियका
, ५ वि०
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२१८ (३) घ्राणेन्द्रियका , (४) रसेन्द्रियका " (१) स्पर्शन्द्रियका । (६) चक्षुन्द्रियका उत्कृष्ट (७) श्रोतेन्द्रियका (८) घाणेन्द्रियका " " " (९) रसेन्द्रियका " " (१०) स्पर्शेन्द्रियका " ,
(१४) विषयद्वार यन्त्र। मार्गणा स्पर्शेन्द्रिय रसैन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय चक्षुन्द्रिय श्रोतेंद्रिय एकेन्द्रिय | ४०००० बेरिन्द्रिय ८००० ६४०० ० तेरिन्द्रिय | १६००० १२८० १००ध . चौरिन्द्रिय ३२००८० २५६ध० २०.० २९५४२० . असन्नी पं० ६४२०५० ५१२२०४००० ५९०८१० १ योजन सन्नोपचेंद्रि ९ योजन ९ योजन ९ योजन लक्षयोः साधि १२योजन
(१५) अल्पा बहुत्व द्वार (१) श्रोतेन्द्रिय सबसे स्तोक (२) चक्षुन्द्रिय विशेषाधिक (३) घ्राणेन्द्रिय विशेषाधिक (४) रसेन्द्रिय विशेषाधिक (६) स्पर्शेन्द्रिय अनंतगु०
सेवभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
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सूत्र श्री पन्नवणा पद २० तथा नन्दी सूत्र ( सिद्ध द्वार )
कौनसे २ स्थान से आये हुए एक समयमें कितने २ जीब सिद्ध होते हैं वह इस थोकडे द्वारा कहेंगे। सर्व स्थान पर उत्कृष्ट पद समझना और जघन्य पद एक समय एक भी सिद्ध होता है । संख्या मार्गणा संख्या १ नरक गतिके निकले हुए एक | १५ वैमानिक
मार्गणा
समयमे १० सिद्ध होते है ।
१०
૨૦
१०८
२ तिर्यच
३ मनुष्य ४ देवगति
५. पहिली नरक, ६ दूसरी ७ तीसरी
८ चौथी
९ भवन पति
१० देवी
११ बाण व्यतंर
१२ देवी
१३ ज्योतिषी. १४ देवी
29
"
""
39
"
39
"
";
""
२१६
थोकडा नं. १२०
23
""
१०
१०
४
१०
१६ देवी
१७ पृथ्वीकाय
"
""
"
د.
१८ अप्पकाय
१९ वनस्पतिकाय
२० तिर्यच पंचेन्द्रिय,,
२१ तिर्यञ्चणी
२२ मनुष्य
२३ मनुष्यणी
२०
"
१०८
२४ पुरुष मर पुरुष हो २५ पुरुष मर स्त्री हो १० २६ पुरुष मर नपुंसक हो १०
२७ श्री मर पुरुष हो,, १०
२८ स्त्री मर स्त्री हो १०
"
२९ स्त्री मर नपुंसक हो
१०
ܕܪ
19
१०८
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२०
१०
१०
१०
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२२०
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३० नपुंसक मर पुरुष हो १०५४, ६ आरो १० ३१ नपुंसक मर स्त्री हो १०५५ जघन्य अवगाहना , ४ ३२ नपुंसकमर नपुंसक हो१. ५६ मध्यम ३३ तीर्थ में
५७ उत्कृष्ट ३४ अतीर्थमें
५८ नीचे लोक ३५ तिर्थंकर
५९ ऊंचे लोक . ३६ अतिर्थकर
६० ति लोक ३७ स्वयंबुद्ध
६१ समुद्र में ३८ प्रत्येक बुद्ध , ४ ६२ शेष जलमें ३९ बुद्ध बोधिता , १०८६३ विजयमें ४० पुरुषलिङ्ग , १०८ ६४ भद्रसालवन ४१ स्त्रीलिङ्ग , २०६५ नन्दनधन। ४२ नपुंसकलिंग
६६ सुदर्शनवन ४३ स्वलिङ्गी , १०८ ६७ पाण्डुकवन ४४ अन्यलिङ्गी
६८ भरतक्षेत्र ४५ गृहलिङ्गी , ६९ ऐरवत क्षेत्र ४६ एक समयमें , १ ७० पूर्व पधिम विदेह " १०८ ४७ एक समयमे ,, १०८ ७१ कर्मभूमि ४८ उतरतो काल १.२आरो१८ ७२ अकर्मभूमि ४९ , ३-४ आरो १०८ | ७३ सामायिक चारित्र ५० , ५-६ आरो १० ६४ छेदोपस्थानीय ५१ चढतो काल १२ आरो १० | ७५ परिहार विशुद्धि " १० ५२ , ३-४ आरो १०८ ७६ सूक्ष्म संपराय ५३ . ५ आरो २०७७ पथाख्यात
.. . . . . .. ..
-
21
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२२१
तक
७८ सा० छे० य. १८ । ९२ असोचा केवली , १० ७९ सा० सू० य. १०८ ९३ एक समयसे आठ ८० सा०प० य० सू० "१८ समय तक " ३२ ८१ सा० छे० सू० य० " १० | ९४ एक समयसे सात ८२ मति श्रुत " ४ समय तक , ८३ मति, श्रुति, अवधि ” १० ९५ एक समयसे छे समय ८४ मति,श्रुति, मनः पर्यव ,, १० ८५ मति, श्रुति, अवधि, ९६ एक समयसे पांच मनः
, १०८
समय तक ८६ अनन्तकाल पडिवाई,, १०८।।
. , ७२ १७ असंख्या कालके पडि- ९७ एक समयसे चार
१. समय तक , ८४ ८८ संख्याते कालके पडि- ९८ एक समयसे तीन वाई
समय तक , ९६ ८९ अपडिवाई , ४
९९ एक समयसे दो सम९० उपशम श्रेणिसे आये
" ५४ य तक .११ क्षपक श्रेणिसे आये १०० एक समय निरंतर , १०८
, १०८ १०१ सान्तर , १०८
बाई
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
-*
*
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________________
२२२
थोकडा नं १२१
वहु सूत्र।
( कालका अल्पा बहुत्व ) १ स्तोक एक समयका काल २ वैक्रिय शरीरके सर्व बन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा ३ सयोगी केवली अनाहारिक काल विशेषा० ४ स्थावर जीवोंकी विग्रह गतीका काल विशेषा ५ केवलो समुद्घ आहारिकका ६ केवली समुद्घत मध्य काल ७ छद्भस्थ संयतीके अवस्थित ८ केवली समुदघातका ९ परमाणु पुद्गल कम्पमानका ,, असंख्यात गुणा १० आवलिकाका ११ जघन्य आयु बन्धका
, संख्यात गुणा १२ उत्कृष्ट आयु बन्धका १३ एकेन्द्रिय अपर्याप्ता के जघन्य बन्धका ., १४ ,
उत्कृष्ट ,, ,, १५ पर्याप्ता जघन्य , , १६ निगोदका जघन्य १७ तसकायका विरह
,, संख्या १८ बेइन्द्रियको अपर्याप्ताका जघन्य , " " १९
, उत्कृष्ट , , २. बेइन्द्रियके पर्याप्ताका जघन्य , " " २१ तेइन्द्रियके अपर्याप्ताका जघन्य , "
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________________
२२३
.
,, वि०
२२ , , उत्कृष्ट ,, , , २३ । पर्याप्ता जघन्य , , २४ चौरेन्द्रियके अपर्याप्ताका जघन्य ,, २५
, उत्कृष्ट ,, , ,, २६ , पर्याप्ता जघन्य , , २७ पंचेन्द्रियके अपर्याप्ताका जघन्य , , , २८
, उत्कृष्ट . , , , २९
पर्याप्ता जघन्य ,, , ,, ३० उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्तका ३१ मुहूर्त्तका ३२ चारों गतिका विरह
,, संख्यातगुणा ३३ उत्कृष्ट दिनमानका ३४ असन्नी मनुष्यका विरह
" " ३५ अहोरात्रिका ३६ तेऊकायका भवस्थितिका ,, संख्यातगुणा ३७ दुसरी नारकीका विरह ३८ तीसरे देवलोकका विरह
,, वि. ३९ चौथे ४० तीसरी नारकीका घिरह ४१ पांचमे देवलोकका ,, ४२ नक्षत्र मासका ४३ चौथी नारकीका विरह ४४ छठे देवलोकका , ४५ असन्नि मनुष्यका अवस्थित ४६ तेइन्द्रियकी भवस्थितिका ४७ ऋतुका ४८ हरिवंश क्षेत्र युगल संरक्षण
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________________
२२४
४९ हेमवय क्षेत्र युगल , ५० सातमे देवलोकका विरह ५१ छठे देवलोकका अवस्थित ५२ छट्ठी नारकीका विरह ५३ सातमें देवलोकका अवस्थित ५४ अयनका . ५५ छट्ठी नारकीका अवस्थित ५६ संवत्सरका ५७ युगका ५८ तिर्यचनीका उ० गर्भस्थिति ५९ बेइन्द्रिकी भवस्थिति० उ० ६० तिर्थंकरोंकी जघन्य स्थिति ६१ वायुकायकी उ० भवस्थिति ६२ अप्पकायकी, ६३ वनस्पतिकी , , ६४ पृथ्वीकायकी,, ,
संख्या ६५ भुजपरिसर्पकी
विशे० ६६ उरपरिसर्पकी
" " , वि० ६७ खेचरकी ६८ खलचरकी ६९ पूर्वका ७० तिर्थंकरोंकी ७१ संयतीकी ७२ जलचरकी ७३ छप्पन अन्तरद्वीपोकी स्थिति ७४ उद्धार पल्योपमके संख्यातमे भागका,, ७५ उद्धार पल्योपमका
उ:स्थिति
"
"
मरख्या
असं.
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२२५
काल सं.
७६ उद्धार सागरोपमका ७७ जघन्य अर्धा पल्योपमके असंख्यातमे भागका अ० ७८ उत्कृष्ट अर्धा पल्योपमके , ७९ अर्धा पल्योपमका ८. मनुष्य तिर्यंचकी स्थिति ८१ अर्धा सागरोपमका ८२ देवता नारकीकी स्थिति ८३ कालचक्रका ८४ क्षेत्र पल्योपमका
" . " ८५. क्षेत्र सागरोपमका ८६ तेऊकायकी कायस्थितिका ८७ वायुकायकी काय स्थितिका ८८ अप्पकायकी कायस्थितिका ८९ पृथिवीकायकी कायस्थितिका ९. कार्मण पुद्गल परावर्तका ९१ तेजस ९२ औदारिक ९३ श्वासोश्वास ९४ मन ९५ वचन ९६ वैक्रिय ९७ वनस्पतिकायकी कायस्थितिका " " ९८ अतीतकालका ९९ अनागत कालका
" १०० सर्वकालका . .. सेवंभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ।
-*ER
गुणा
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२२६
थोकडा नं० १२२
सूत्र श्री अनुयोग द्वार।
(छै भाव) भाव ६ प्रकारका है यथा (१) उदय भाव (२) उपशम भाव (३) क्षायक भाव (४) क्षयोपशम भाव ५) परिणामिक भाव (६) सनिपातिक भाव ।
(१) उदयभावके दो भेद हैं उदय '(२) उदय निष्पन्न जिसमे उदय तो आठ कम्ौंका और उदय निष्पन्न के २ भेद है (१) जीव उदय निष्पन्न (२) अजीव उदय निष्पन्न, जिसमें जीव उदय निष्पन्नके ३३ बोल है-गात नरक, तियश्च, मनुष्य दे. बता । काय ६ पृथिवीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय, कषाय ४ क्रोध, मान, माया, लोभ, लश्या ६ कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल, वद ३ स्त्रीवेद. पु. रुषवेद नघुमकवेद, मिथ्यात्वी, अति, अज्ञानी, असन्नि, आहा. रिक, संसारिक छद्मस्थ, सयोगी, अकेवली, असिद्ध, एषम् ३३ * (२) अजीव उदय निष्पन्नके ३० बोल पांच शरीर औदारिक, वैक्रिय आहारिक, तेजस, कार्मण और पांच शरीरों में प्रणमें हुए पुद्गल एवम् १० और वर्ण ५ गन्ध २ रस ५ स्पर्श ८ सर्व मिलकर तीस बोल हुए। .
* जीन उदय निष्पन्नके ३३ बोल हैं, जिसमें अज्ञान, छद्मस्थ, अकेवली, असिद्ध, यह ४ बोल ज्ञानावरणीय कर्मके उदय हैं । आहारिक वेदनी कर्मका उदय है। तीन वेद. चार काय, अवत, मिथ्यात्व, यह नव बोल मोहिनी कर्मके उदय है। शेष १९ बोर नाम कमके उदय है।
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२२७
(२) उपशम भावके दो भेद है (१) उपशम (२) उपशम निष्पन्न जिसमें उपशम तो मोहिनी कर्मका और उपशम निष्पनके अनेक भेद हैं, उपशम क्रोध, उ० मान, उ. माया, उ० लोम, उ. राग, उ० द्वेष, उ. चारित्र मोहिनी, उ. दर्शन मोहिनी, उ. सम्यक्त्व लब्धी, उ० चारित्र लब्धी, छमस्थ कषाय, वीतराग इत्यादि।
(३) क्षायक भाव--क्षायक भाषके दो भेद हैं (१) मायक (२) क्षायक निष्पन्न जिसमें क्षायक तो आठ कम्ौका क्षय और मायक निष्पन्नके ३१ भेद हैं यथा ।
(१) ज्ञानावर्णीको पांच प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त केवल ज्ञानको प्राप्ति होती है । (२) दर्शनावर्णीकी नौ प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त केवल दर्शनकी प्राप्ति होती है । (३) वेदनीयको दो प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त अव्याबाध गुणकी प्राप्ति होती है। (४) मोहनीयकी दो प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त क्षायिक समकित गुणकी प्राप्ति होती है। (५) आयुष्यकी चार प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त अवगाहना गुणकी प्राप्ति होती है। (६) नामकर्मकी दो प्रकृति होनेसे अनन्त अमूर्ति गुण प्राप्त होता है । (७) गोत्रकर्मकी दो 'प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त अगुरु लघु गुणकी प्राप्ति होती है। (८) अंतरायकी पांच प्रकृति क्षय होनेसे अनन्त वीर्य गुणकी प्राप्ति होती है । ५ । ९।२।२।४।२।२।५। एवं ३१। । .. (४) क्षयोपशम भावके दो भेद है,-क्षयोपशम और क्षयोपशम निष्पन्न ।क्षयोपशम तो चारकर्मीका ज्ञानावरणीय, दर्शना. घरणीय मोहिनीय, अंतराय ) और क्षयोपशम निष्पन्न के ३२ भेद हैं. यथा ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होनेसे मति ज्ञान, श्रुति ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, और आगमका पठन, पाठन तथा मति अज्ञान, श्रुति अज्ञान, विभंग ज्ञान, एवं आठ बोलकी
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२२८
प्राप्ति होती है। दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशम से श्रोत्रेन्द्रिय, चइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, एवम् आठ बोलकी प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्मके क्षयोपशमसे पांच चारित्र और तीन दृष्टि एवम् आठ बोलकी प्राप्ति होती है। अंतराय कर्मके क्षयोपशमसे दानलब्धि. लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि, बाललब्धि, पंडितलब्धि और बालपंडित लब्धि पत्रम् आठ बोलोंकी प्राप्ति होती है एवम् चार कर्मोंके ३२ बोल हुए ।
( ५ ) परिणामिक भावके दो भेद हैं ( १ ) सादि परिणामिक ( २ ) अनादि परिणामिक । सार्दि परिणामिकके अनेक भेद हैं. यथा पुराणां गुड पुराणा मदिरा, अक्षत घृतादि तथा पुराणा गाम, नगर, पुर, पाटण, यावत् राजधानी इत्यादि जिस वस्तुकी आदि है कि अमुक दिनसे इस रूपपणे बनी है और जिसका अंत भी है. ( २ ) अनादि परिणामिकके दश भेद । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल द्रव्य तथा लोक, अलोक, भव्य, अभव्य, पवम् दस बोल |
( ६ ) सन्निपातिक भाव -- जो कि उपर पांच भाव कह आये हैं जिसके भांगे २६ नीचे यंत्र में लिखते हैं
द्विक संयोगी भांगा १०
१ उदय-उपशम
२ उदय - क्षायिक
३ उदय-क्षयोपशम
४ उदय - परिणामिक
५ उपशम
- क्षायिक
६ उपशम-क्षयोपशम
७ उपशम- परिणामिक
८ क्षायिक क्षयोपशम
९ क्षायिक परिणामिक
१० क्षयोपशम- परिणामिक
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२२६
त्रिक संयोगी भांगा १० १ उदय-उपशम क्षायिक । ६ उदय-क्षयोपशम-परिणामिक २ उदय-उपशम-क्षयोपशम । ७ उपशम-क्षायिक-क्षयोपशम ३ उदय-उपशम-परिणामिक ८ उपशम-क्षायिक-परिणामिक ४ उदय-क्षायिक-क्षयोपशम | ९ उपशम-क्षयोपशम-परिणामिक ५ उदय-क्षायिक-परिणामिक १० क्षायिक-क्षयोपशम-परिणामिक
चतुष्क संयोगी भांगा ५ १ उदय-उपशम-क्षायिक-क्षयोपशम २ उदय-उपशम-क्षायिक-परिणामिक ३ उदय-उपशम-क्षयोपशम-परिणामिक ४ उदय-क्षायिक-क्षयोपशम-परिणामिक ५ उपशम-क्षायिक-क्षयोपशम-परिणामिक
पञ्च संयोगी भांगा? (१) उदय, उपशम, क्षायिक, क्षयोपशम, परिणामिक, एवम् भांगा २६ है जिसमें भांगा बीस तो सून्य केवल प्ररूपणा मात्र है शेष भांगा ६ के स्वामी नीचे लिखते हैं
( १ ) बीक संयोगी भांगो नवमो सिद्धोंमें मिले क्षायिक परिणामिक, कारण परिणामिक जीव और क्षायिक समकित । - (२) त्रिक संयोगी भांगी पांचमो “ उदय क्षायिक परिणामिक" मनुष्य केवलीमें उदय मनुष्य गतिको क्षायिक समकित परिणामिक जीव ।
(३) त्रिक संयोगी भांगो छट्ठो " उदय क्षयोपशम परिणामिक" उदय गतिको क्षयोपशम इन्द्रियोंका परिणामिक जीव चारों गतिमे पावे।
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२३०
(४)चतुष्क संयोगी भागोतीजो "उदय उपशम क्षोपोशम.परिणामिक" उदय गतिका उपशम मोहका क्षयोपशम इन्द्रियोंका परिणामिक जीव चारों गतिमें तथा इग्यारहमें गुणस्थानमें पावे।
(५) चतुष्क संयोगी भांगो चोथो “ उदय क्षायिक क्षयोपशम परिणामिक" उदय गतिका क्षायिक मोहका क्षयोपशम इन्द्रि योंका परिणामिक जीव चारों गतिमें तथा बारमे गुणस्थानमें पावे।
(६) पश्च संयोगी एक भांगो क्षायिक समकितवाले जीव उपशम श्रेणी चढते हुएमे उदय गतिका उपशम मोहका क्षायिक समकित क्षयोपशम इन्द्रियोंका परिणामिक जीव इति ।
।। सेवंभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ॥
-*OKथोकडा नं. १२३
सूत्र श्री भगवती शतक २० उद्देशो १० (१) हे भगवान जीव 'सोपक्रम आयुष्यवाला है या निरुपक्रम आयुष्यवाला है ! या दोनों प्रकारके आयुष्यवाले जीव हैं।
नारकी आदि २४ दंडकके जीवोंकी पृच्छा ? नारकी, देवता, युगल मनुष्य, तिर्थकर, चक्रवर्ति, वासुदेव, वलदेव, प्रतिवासुदेव, हनोंका आयुष्य निरुपक्रमी होते है शेष सर्व जीवोंका आयुष्य सोपक्रमी निरुपक्रमी दोनों प्रकार होता है।
१ सात कारणोंसे आयुष्य तुटता है उसे सोपक्रमी आयुष्य कहते है। यथाजल, अग्नि, विष, शस्त्र, अति हर्ष, शोक, भय, ज्यादा चलना, ज्यादा भोजन करना, मेथुनादि अध्यवसायके खरच होनेसे ।
year
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२३?
(२) नारकी स्व उपक्रमसे उत्पन्न होते हैं ? पर उपक्रमसे ? विगर उपक्रमसे ? नारकी स्व उपक्रम (स्वहस्तसे शस्त्रादि ) से भी और पर उपक्रमसे भी तथा निरुपक्रमसे भी उत्पन्न होता है। भावार्थ-मनुष्य तिर्यंचमे रहे हुवे जीव नरकका आयुष्य बान्धा है मरती वखत स्वहस्तसे या पर हस्तसे मरे तथा विगर उपक्रम याने पूर्ण आयुष्यसे मरे । एवम् यावत् २४ दंडक समझना।
(३) नारकी नरकसे निकलते है वह क्या स्व उपक्रम, पर उपक्रम और विगर उपक्रमसे निकलते है ? स्व पर उपक्रमसे नहि किन्तु विगर उपक्रमसे निकलते है कारण वैक्रिय शरीर मारा हुवा नहीं मरते है एवं १३ दंडक देवतावोंका भी समझना । पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, तीर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य एवं १० दंडक तीनों प्रकारके उपक्रमसे निकलते है।
(४) नारकी क्या स्वात्म ऋद्धि ( नरकायुष्यादि ) से उत्पन्न होते है या पर ऋद्धिसे उत्पन्न होते है ? नारकी स्वऋद्धिसे उत्पन्न होते है परसे नहीं. एवं यावत् २३ दंडक समझना। इसी माफीक स्व स्व दंडकसे निकलना भी स्थऋद्धिसे होता है कारण जीव अपने किये हुवे शुभाशुभ कृत्यसे ही दंडकमे दंडाता है।
(५) नारकी क्या स्व प्रयोगसे उत्पन्न होता है कि पर प्रयोगसे ? स्व प्रयोग ( मन वचन कायाके प्रयोगोंसे ) किन्तु पर प्रयोगसे नहीं एवं २४ दंडक समझना इसी माफिक निकलना भी समझना।
(६) नारकी स्वकर्मोंसे उत्पन्न होता है कि पर कर्मोंसे ? स्व कर्मोसे किन्तु पर कर्मोंसे नहीं. एवं २४ दंडक तथा निकलना भी समझना। इतना विशेष है कि निकलने में जोतीषी विमानीके निकलने के बदले चषना कहना इति ।
॥ सेवभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ॥
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२३२ थोकडा नं० १२४
सूत्र श्री भगवती श० २० उ० १० ।
(क्रत संचय ) (१) क्रत संचय-जो एक समयमें दो जीवोंसे संख्याते जीव उत्पन्न होते है।
(२) अक्रत संचय-जो एक समयमें असंख्याते अनन्ते जीवों उत्पन्न होते है।
(३) अवक्तव्य संचय-एकसमयमें रकजीव उत्पन्न होते है।
हे भगवान् ! नारकीके नेरिये क्या क्रतसंचय है, अक्रत संचय है, अवक्तव्य संचय है ? नारकी तीनों प्रकार के हैं । इसी माफिक १० भुवनपति : विकलेन्द्रिय, तीर्यच पांचेन्द्रिय १ मनुष्य १ व्यान्तर १. ज्योतीषी १ विमानीक एवं १९ दंडक ॥ पृथ्वीकायकी पृच्छा! क्रत संचय नहीं है। अक्रत संचय है। अवक्तव्य संचय नहीं है कारण समय समय असंख्याते जीवों उत्पन्न होते है। अगर कोई स्थान पर १-२-३ भी कह्या है वह पर कायापेक्षा है एवं अप्काय तेउकाय वायुकाय वनस्पतिकाय भी समझना।
सिद्धोंकी पृच्छा ? ऋत संचय है, अवक्तव्य संचय है परन्तु अक्रत संचय नहीं है। अल्पाबहुत्व-नारकीमें सर्व स्तोक अवक्तव्य संचय उन्होंसे क्रत संचय संख्यात गुणा। अक्रत संचय असंख्यात गुणा एवं १९ दंडक समझना। ५ स्थावरमें अल्पा० नहीं है। सिद्धोंमें स्तोक क्रत संचय उन्होंसे अवक्तव्य संचय संख्यात गुणा।
॥ सेवंभंते सेवभंते तमेव सचम् ॥
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२३३ थोकडा नं० १२५
सूत्र श्री भगवती श० १२ उ०६
(पांचदेव द्वार ) नामबार १ लक्षणवार २ स्थितिद्वार ३ संचिट्ठणद्वार ४ अन्तरद्वार ५ अवगाहनाद्वार ६ गत्यागतिद्वार ७ वैक्रियद्वार ८ अल्पाबहुत्वद्वार ९।
[१] नामद्वार-भावि द्रव्यदेव १ नरदेव २ धर्मदेव ३ देवादिदेव ४ भावदेव ५।
[२] लक्षणद्वार -भावि द्रव्यदेव-मनुष्य तीर्यचके अन्दर रहा हुवा जीव देवका आयुष्य बांधकर बैठा है। भविष्यमे देवतोंमें जानेवाला हो उसे भावि द्रव्यदेव कहते हैं। १ नरदेव चक्रधरतकी ऋद्धि संयुक्त हो उसे नरदेव कहते हैं । २ धर्मदेव साधुके गुणयुक्त होता है । ३ देवादिदेव तीर्थकर केवलज्ञान केवल दर्शनादि अतिशय संयुक्त होता हैं। ४ भाषदेव, भुवनपति, बाणमित्र, जोतीषी, विमानीक यह चार प्रकार के देवताओंको भावदेव कहलाते हैं।
[३] स्थितिद्वार-~भावि द्रव्यदेव जघन्य अन्तरमुहूर्त उ. ३ पल्योपम । नरदेव ज० ७०० वर्ष उ०८४ लक्ष पूर्ष। धर्मदेव ज० अन्तरमुहूर्त उ० देशोणोक्रोड पूर्व । देवादिदेव ज०७२ वर्ष उ०८४ लक्ष पूर्व । भावदेव न० १००० वर्ष उ०३३ सागरोपम ।
[४] संचिट्ठणद्वार-स्थिति माफिक है परन्तु धर्मदेवका संचिट्ठण जघन्य एक समय समझना ।
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२३४
[५] अन्तरद्वार-भावि द्रव्यदेवको अन्तर ज० ११००० वर्ष उ० अनन्तकाल (वनस्पतिकाल)। नरदेव-ज०१ सागरोपम नाझरो और धर्मदेवको ज० प्रत्येक पल्योपम उ० नरदेव धर्मदेव दोनोंको देशोणी अर्द्ध पुद्गल प्र० । देवादि देवकों अन्तर नहीं है। भाषदेवकों ज• अन्तरमुहूर्त उ० अनन्तो काल ।
[६] अवगाहनाद्वार-भावि द्रव्यदेवको ज० आंगुलके असंख्यातमे भाग उ० हजार नोजन । नरदेव ज०७ धनुष्य । धर्मदेव ज. एक हस्त उणी। देवादिदेव ज०७ हस्त उ० तीनुकी ५०० धनुष्य । भावदेव ज· आंगु० असं० भाग उ०७ हस्तप्रमाण।
[७] गत्यागतिद्वार-यंत्रसे।
मार्गणा.
१ भाविभव्य द्रव्यदेवकी आगति |२८४
गति | १९८
२ नर
देवकी
आगति ८२
गति
३ धर्म
देवकी
आगति २७५
गति |७० आगति
* • • • | 3 | • • • 12 |•|• IETTE
४ देवादिदेवकी
____ गति मोक्ष
५ भाष
देवकी ,
आगति ११ गति | ४६ |
१६ | ३० ।
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२३५
[८] वैक्रयद्वार - भाषि द्रव्यदेव वैक्रय करे तो १-२-३ उ० संख्याते रूप करे और असंख्याताकी शक्ति है एवं नरदेवधर्मदेव भी । देवादिदेवमें अनन्त शक्ति है परन्तु करे नहीं । भावदेव १-२-३ उ० सं० असंख्याते रूप करे ।
[8] अल्पाबहुत्वद्वार -- स्तोक ( १ ) नरदेव ( २ ) दे वादिदेव संख्यात गुणा ( ३ ) धर्मदेव संख्यात गुणा ( ४ ) भावि देव असंख्यात गुणा ( ५ ) भावदेव असंख्यात गुणा इति ।
॥ सेवते सेवते तमेव सच्चम् ॥
||
इति श्री शीघ्रबोध भाग ६ वां समाप्तम्
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नम्बर ४२ ॥ श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः ॥
अथ श्री
शीघ्रबोध नाग १० वां
थोकडा नं. १२६
-
-
(चौवीस स्थानक ) चौवीस द्वारके २१९ बोलोको २१९ बोलोंपर उतारा जावेगा इस संबन्धको गहरी दृष्टिसे पढने से प्रशक्ति, तर्कशक्ति, और अध्यात्मज्ञानशक्ति बढ जाति है वास्ते आद्योपान्त पढके लाभ अवश्य उठाना चाहिये। १ गतिद्वार नरकादि ४ १३ सम्यक्त्वद्वार २ जातिद्वार एकेन्द्रियादि ५ / १४ आहारीकद्वार ३ कायाद्वार पृथ्व्यादि ६ / १५ गुणस्थानद्वार ४ योगद्वार मनादि १५ १६ जीवभेदद्वार ५ वेदद्वार स्त्रियादि ३ | १७ पर्याप्तिद्वार ६ कषायद्वार क्रोधादि २५ । १८ प्राणद्वार ७ ज्ञानद्वार मत्यादि ८ १९ संज्ञाद्वार ८ सयमद्वार सामायिकादि ७२० उपयोगवार ९ दर्शनद्वार चक्षुषादि ४ २१ दृष्टिबार १८ लेश्याद्वार कृष्णादि ६२२ कर्मद्वार ११ भव्यद्वार भव्यादि २ २३ शरीरद्वार १२ संज्ञीद्वार संही २२४ हेतुहार
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२३७ [ गतिद्वार १]
तिर्यच मनुष्य देव नंबर. नामद्वार. नरकगति.
गति. गति. गतिमें.
aan ma swovora
गतिद्वार
४१ १ . ११ अपनी अ. इन्द्रिय ५ पंचेन्द्रिय पचों० १ पंचे०१ पंचेः पनी गती ३ काय ६१ त्रसकाय छ काया १ स०१ त्रस० पावे. ४ | योग १५ वेद ३ १ नपुंसक
३ २ स्त्री.पु. कषाय २५ ज्ञान ८ संयम ७
९ दर्शन
savaw waran 9
ام مع امه سه م م م
१० | लेश्या २९ भव्य १२ सन्नी
सम्यक्त्व७ | आहारिकर
गुणस्था.१४ १६ जीवभेद१४ १७ पर्याप्ति ६
प्राण १० १९ संज्ञा ४ २० उपयोग २
६ नारकी दे२ वतामे जाण १ आश्री अस७ नी भी मि२ लते है.
م ه س م ه ه م س سه م
Ae AmarnNGuan .com.np
Huwarm own 9 armswar m var
देवता, ना
रकी मन २ और भाषा ३ एकसाथबां.
धे इसवास्ते ३५ कही है.
२१ दृष्टि
sarm 33
२३ । शरीर
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२३८
[ इन्द्रियद्वार २ ]
द्वार
केंद्रि बेरिद्रितेरिविचौरिंद्रि पंचेद्रि
गती, ४१
४ अपने अपनी
مم مم مم
ه م م
ه م له سه م م
६ कषाय २५ २३
ज्ञान | संयम ७ दर्शन ४ लेश्या ६४ भव्य सन्नी
सम्यक्त्व ७ १४ आहारिकर १५ गुणस्था.१४ १६ जीवभेद१४
पर्याप्ति ६ १८ प्राण १० १९ संज्ञा ४ २० उपयोग २
द्रष्टि
कर्म २३ शरीर
ง ง ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ " x 28 9 * * * *
* * * * * * * * * ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ ๙ • m 2
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१२ | १३-१४ गु.
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Page #265
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२३६
[ कायद्वार २]
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[योगद्वार ४]
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इन्द्रिय
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[ काषयद्वार ६ ] अनुता-अप्रत्या प्रत्याः सत्व हासादि ध घेद ३
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पहेले ५ वे द्वारमें लिखा है.
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२४४
[ ज्ञानद्वार ७ ]
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२४५
[ संयमद्वार ८]
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[ लेश्याद्वार १०]
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[भव्य और सन्नीद्वार ११-१२ ]
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( सम्यक्त्व द्वार १३)
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(आहारिक द्वार १४ प्राण द्वार १८)
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२४ हेतु १९ संज्ञा १२ सन्नी
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जीवभेद १४ गुणस्थान १४
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[गुणस्थानद्वार १५]
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गती इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान
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२५३
[जीव भेद द्वार १६]
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गती इन्द्रिय काय योग वेद कषाय
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उपयोग २१ दृष्टी २२ कम २३ शरीर . २४ हेतु
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२४ हेतु
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उपयोग संज्ञा प्राण पर्याप्ति सन्नी भव्य
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[ पर्याप्ति द्वार १७-१९-२०] द्वार. पर्याः ४ भाषा० मन० संज्ञा०
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२५६ [ दृष्टी-कर्म-शरीर द्वार २१-२२-२३ ] ..
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२५७ [हेतु द्वार २४ ] মিথ্যা অদ্ভুল হকঘাষ ২৭, যীল ২৫
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गुणस्थान के चमन्ति में
संयोगी गु० , १३ छमस्थ गु० , १४ सकषाय गु० ॥ १५ सधेदी गुल , १६ व्रती छमस्थ गु० १७ अप्रमत्त छद्मस्थ० १८ हास्यादि संयति , १९ हास्यादि अप्रमत्त,
व्रती सकषाय , व्रती सधेदी , व्रती छमस्थ ,
समदृष्टि सवेदी , २४ समष्टिसकषाय, २५ बाट बहे ता जीव में
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सबम्
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२५६ थोकडा नं. १२८
जीवोंके १४ भेदके प्रश्नोत्तर।
प्रश्न
उत्तर
१ जीवका एक भेद कहां पावे १ केवलीमें २ , दोय ,,
बेहन्द्रियमें ३ , तीन ,, , मनुष्यमे
एकेन्द्रियों ५ , पांच,
भाषकमे
सम्यग्दृष्टीमें . , सात,, ,
अपर्याप्तामे ८ , आठ,, ,, अनाहारीको
एकान्त सरागी प्रसमें १० , दश,
अस कायमे ११ , एग्यारे,
एकान्त बादर सरागीमें बारह ,,
बादरमें तेरह ,,
एकान्त छदमस्तमे __ चौदा, १ सर्व संसारी जीवोंमें
१४ गुणस्थानके प्रश्नोत्तर. प्रश्न
उत्तर १५ पक गुणस्थान कहां पाधे १ मिथ्यात्वी जीवमें . १६ दरोय ,, १-२ बेइन्द्रियों १७ तीन , १-१३-१३ अमरमें १८ चार , १-२-३-४ नारकी देवताधोंमें
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________________
२६०
१९ पाँच क्रमासर
तीर्यच पांचेन्द्रियमें . . २० छ क्रमासर
प्रमादी जीवोंमें २१ सात "
तेजो लेश्याम २२ आठ ,
हास्यादिकमे २३ नव ,
सवेदी जीवोमें २४ दश ,
सरागी नीयोंमें २५ इग्यारे,
मोह कर्मकी सतामे २६ बारह ,
छमस्त जीवोंमें २७ तेरह ,
संयोगी जीवोंमें २८ चौदा,
सर्व संसारी जीवोंमें २९ बाटे वहे तो मे गु० तीन । १।२।४। ३० अनाहारीक गु० पांच । १ ।२।४।१३।१४। ३१ सास्वता गु० पांच । १।४।५।६।१३। ३२ एकान्त संज्ञी गु० दश । तीजासे बारहतक । ३३ असंज्ञी गु० दोय । १।२ ३४ नोसंज्ञी नोअसंही गु० दोय । १३ । १४ । ३५ सम्यग्द्रष्टीमें गु० बारह । पहिलो तीजो वर्जके। ३६ साधुमे गु० नव-छठासे चौदमा तक। ३७ श्रावकमे गु० एक पांचमो ३८ अप्रमादिमें गु० आठ सातमा से चौदमा। ३९ वीतरागमे गु० चार । ११ । १२ । १३ । १४
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६१ थोकडा नं. १२६ १५ योगोंका प्रश्नोत्तर.
प्रश्न १ एक योग कीसमे पावे ? वाटे वेहता जीवमें-कार्माण २ दोय योग , बेंद्रियका पर्याप्तामें ३ तीन योग ,, ? पृथ्वीकायमे ४ चार योग , १ चौरिद्रियमें ५ पांच योग , ? वायुकायमें ६ छे योग , ? असंज्ञी जीवोंमें ७ सात योग , १ केवली तेरहवें गु में ८ आठ योग ।।. ? पांचेन्द्रिय अपर्याप्ता अनाहारीकके ९ नव योग , १ नव गुणस्थानमें। [अलद्धियामें १० दश योग , ? तीजा मिश्र गुण स्थानमें ११ इग्यारे योग ,, ? देवतावोंमें १२ बारह ,, , ? पांचमें गु० श्रावक १३ तेरह , , ? तीर्यचपांचेन्द्रिमें १४ चौदह ,, ,, ? आहारीक जीवों में १५ पन्दरा ,,, ? सर्व संसारी जीवोंमें
१२ उपयोगका प्रश्नोत्तर. १६ एक उपयोग ? साकार उपयोगमे सिद्ध होते समय १७ दो , ? केवली भगवान्में १८ तीन ,, ? एकेन्द्रिय जीवोमें
चार , १ असंज्ञी मनुध्यमें पांच , ? तेइन्द्रि जीवोंमें
Page #288
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________________
२६२
२१ छे , १ मिथ्यात्वी जीवोंमें २२ सात , ? छमस्त नीवोंमें २३ आठ ,, ? अचरम जीवों में २४ नव , १ देवतावोंमें २५ दश , ? छदमस्तजीवोंमें २६ इग्यारा,, ? नोभैजमें २७ बारह , सर्व जीवोंमें
थोकडा नं. १३०,
छे लेश्याका प्रश्नोत्तर। प्रश्न
उत्तर १ एक लेश्या ? अनुत्तर वैमानका देवतायोमें २ दोय लेश्या ? तीजी नरकमे ३ तीन लेश्या ? बेइन्द्रिय जीवोंमें ४ चार लेश्या ? युगल मनुष्योंमें ५ पांच लेश्या ? तीर्थकरों कि आगतिमें ६ छे लेश्या ? समुचय जीवोंमें ७ एकली कृष्ण ? सातमी नारकीमें ८ , निल० ? चोथी नरकमें ९ , कापोत? पहिली ,, १० , तेजस० ! ज्योतीषी देवोंमें
, पद्म ? पांचमा देवलोकके देवोंमें
, शुक्ल ? सर्वार्थ सिद्धके देवोंमें १३ , कृष्ण निल• ? पांचमी नरकमें
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________________
२६३
१४ ,, कृष्ण कापोत ? नारकीके चरमान्तमे १५ कृष्ण तेजसः ? लक्ष वर्षका देवतावोंमें १६ , पद्म ? परिव्राजक कि गतिका चरमान्तमें १७ , शुक्ल. उत्कष्ट स्थितिमें १८ निल. कापोत ? तीजी नारकी १९ , तेजस० ! पल्योपमके असंख्यात भाग कि स्थितिका
देवताओंमे २० , पन ? दश सागरोपमकि स्थितिमें। २१ , शुक्ल० ? दश सागरोपम और पल्योपमके असं
ख्यातमें भाग अधिक स्थितिवालामें २२ कापोत तेजस ? दोय सागरोपमकि स्थितिमें २३ , पन ! तीन सागरोपमकि स्थितिमे २४, शुक्ल ! वासुदेवकि आगतिका चरमान्तमे २५ तेजस० पन्न ? वैमानिक देवोकी प्रत्येक सागरोपमकि
स्थितिमे २६ तेजस० शुक्ला ? वैमानिक देवोंका चरमान्तमे २७ पन० , वैमानिकके एक वेदवालोंमें २८ निल कापोत सेजस० पद्म? प्रत्येक सागरोपम स्थितिमें २९ कृष्ण निल कापोत, तेजस, पद्म? पांचवा देवलोकमें ३० कापोत० तेजस० पद्म० शुक्ल ? बासुदेवकि आगतिमे । ३१ कृष्ण निल० कापोत तेजस शुक्ल० सर्वार्थ सिद्ध धैमानमें
थोकडा नम्बर १३१ (तीर्यचके ४८ भेदोंका प्रश्नोत्तर.) तीर्यचका एक भेद चार शरीरी एकेन्द्रियमें पावे ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ तोर्यचके दो भेद ? बेन्द्रिय जीवोंमे पाथे ।
तीन भेद ? तेजुलेशी एकेन्द्रियमे पावे । चार भेद ? पृथ्वीकायके जीवोंमे पावे । पांच भेद ? चार शरीरी तीर्यच पांचेन्द्रियमे । छे भेद ? पर्याप्ता मिश्र योगि तीर्यचमे । सात भेद ? बादर सत्व तीन शरीरी जीवों में। आठ भेद ? तेजुलेशी अपर्याप्ता तीर्यचमे । नौ भेद ? बादर एकेन्द्रिय तीन लेशीमें। दश भेद ? सुक्षम जीवोंमें पावे।। ११ भेद एकेन्द्रियके अपर्याप्ता जीवोमें। १२ भेद ? घ्राणेन्द्रि के पर्याप्ता जीवोमें। १३ भेद ? सम्यग्दष्टि अपर्याप्ता तीर्यचमे। १४ भेद ? मनुष्यकी अगतिके एकेन्द्रियमे। १५ भेद ? तीर्यच पांचेन्द्रिय मिश्रयोगमे । १६ भेद ? सम्यकदृष्टि चक्षुइन्द्रिय तीर्यच में १७ भेद ! सम्यकदृष्टि घ्रणेन्द्रिय तीयेचमें । १८ भेद ? सम्य दृष्टि तीर्यचमें ।
भेद ? तीन लेशी एकेन्द्रिय जीयो में । भेद ? तीर्यच पांचेन्द्रियमें। २१ भेद ? तीन शरीरी एकेन्द्रियमें । २२ भेद ? एकेन्द्रिय जीवोमें। २३ भेद ? उर्ध्व लोकके अपर्याप्ता तीर्यच में । २४ भेद ? तीर्यचके अपर्याप्तामें। २५ भेद ? पांचेन्द्रिय के अलछिया तीन लेशीमें । २६ भेद ? तीर्यच अस जीवोमें। २७ भेद ? पांचेन्द्रिय के अलद्धियेतीनशरीरी ती २८ भेद ? पांचेन्द्रिय के अलद्धियातीर्यचमें।
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२६५
२९ भेद ? तीर्यच एकान्तमिथ्यात्वी तीनशरीरी। ३० भेद ? तीर्यच एकान्त मिथ्यात्वीमे । ३१ भेद ? सम्यकदृष्टि घ्राणेन्द्रियके अलद्धियेतीय ३२ भेद ? बादर तीन शरीरीतीर्यच जीवोमें । ३३ भेद ? सम्य. ती० पांचेन्द्रिय अलद्धिय तीर्यचमें । ३४ भेद ? प्रत्येक शरीरी एक संस्थानी तीर्यचमे । ३५ भेद ? सम्य अपर्या० के अलद्धियातीर्यच में । ३६ भेद ? उर्वलोक एक संस्थानी तीर्यच में । ३७ भेद ! एकेन्द्रिय पर्याप्ताका अलद्धिया ती० ३८ भेद ? एक संस्थानी तीर्यचमे । ३९ भेद ? तेजु० एकेन्द्रि० अलद्धिया तीन शरीरी ती० ४० भेद ? मनुष्यकी आगतिके तीर्यच में । ४१ भेद ? तेजु० एकेन्द्रिः अलद्धिः प्रत्येक शरीरी ती० ४२ भेद ? उह्मलोकके प्रत्येक शरीरी तीर्यच में । ४३ भेद ? चार शरीरी पंचेन्द्रिके अलद्धिया तीर्यचमे । ४४ भेद ? प्रत्येक शरीरी तीर्यचमे । ४५ भेद तेजु० एकेन्द्रि० अलंधिया तीर्यच में । ४६ भेद ! उर्वलोकके तीर्यच में । ४७ भेद ? चार शरीरी एकेन्द्रि० अलद्धि तीर्यचमें । ४८ भेद ? समुच्चय तीर्यचमें ।
थोकडा नम्बर १३१
(गुणस्थानोंके प्रश्नोत्तर) पहला गुणस्थान पावे अभव्य जीवोंमें । पहला दुसरा गु० पावे असंही नोषोंमे ।
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पहलासे तीसरा गु० अज्ञानवादी समौसरणमें ।
चोथो , नारकी देवतोंमे पाये। पांचवो , तीर्यच जीवोमे पाये। छठ्ठो , प्रमादी जीवोंमे पाये। सातवां , पावे तेजोलेशी नीवोमें। आठवां , , छेहास्यादीमे पावे । नौवां , , सवेदी नीवोंमें । दशवां ., सकषायि जीवोंमें। इग्यारवां , , मोहकर्मकी सत्तामें । बारवां , , छमस्थ जीवों में । तेरहवां , ,, संयोगी जीवोमें।
चौदहवां ,, ,, सर्व संसारी जीवोंमें। पहला और चौदहवां गु० पावे गुणस्थानों के चरमान्तमें।
तेरहवां गु० । संयोगी गु० के घरमान्तमे। ,, बारहवो , छद्मस्थ गु० के चरमान्तमें ।
इग्यारवां , मोहकर्मकी सात गु० के चमान्तमें । दशवो , सकषायि गु० के नौवा , सवेदी , , आठवो , छेहास्यादि , , सातवो , तेजोलेशी ,, ,, छठ्ठो , प्रमादी " , पांचवो ,, तीर्यचके , ,, चोथो , देवगुणस्थानके गु० के , तीसरो , मिथ्यात्वकी क्रियावालोमें।
तीसरो गु० ? एकान्त भव्य क्रियावादी समौ० में । " , चौथो
, अव्रती सम्यक् दृष्टिमें। ,, , पांचवो ,, , , तीर्यच गु० चरमाम्तमें। , , छछो , , , प्रमादि गु.
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२४७
, ग्यारवा ,,
, सातवो , , , तेजुलेशी गुरु के ,, , आठवो ,, , हास्यादि गु० के , , नौवा ,
, सवेदी गु० के , दशवो
सकपायि गु० के ,
,, मोहकर्मकी सत्ताके,, " " बारहवा " " " छद्मस्थ गु० के " " " तेरहवा " " " संयोगी गु० के " चौदहवा "
" सर्वजीवोंके " तोसरा और चोथा ,, एक संज्ञी अव्रती जीवोंमें।
" " पांचवा " " " तीर्थच गु० के चरमान्त " " छठा ." " " प्रमादि ग० के "
" सातवा " " " तेजोलेशी गु० के" " आठवा " , " हास्यादि के "
नौषा गु० , सवेदी गु० के दशवा ,, , ,
सकषायि , के इग्यारवा० , , मोहसत्ता,, के , बारहवा गु० ,, , छद्मस्थ० ,, के , तेरहवा, " " संयोगी० ,, के ,
, चौदहवा० , , समुच्चय गु० के चोथो और पंचवा गु० क्षायक सम्य० वाले तीर्यच में । चोथो और छठ्ठो गु० ,, ,, प्रमादि गुरु के चरमान्तमें " , सातवा गु०
,, तेजोलेशी ,, , ,, ,, आठवा ,, , , हास्यादि ,,,, ,, नौवा
, सवेदी ., , दशवा
, सकपायि ,, ,, इग्यारवा ,
,, मोहकर्म सत्ता ,, , ,, बारहवा ,
, छद्मस्थ ,, ,तेरहवा ,
,, संयोगी
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२६८
., , चौदह ,, . , , समुच्चय ,,. पांचवो ओर छठो गु० व्रती प्रमादी गुल में पाये।
, सातवा ,, ,, तेजोलेशा के चरमान्तमे ,, ,, आठवो ,, , हास्यादि के चरमान्तम
,, ,, सवेदी गु० के , , , दशवो ,, ,, सकषायि , , . , ,, इग्यारवो,, ,, मोहसत्ता , , , , बारहवो ,,, छमस्थ , ,
, तेरहवा ,, ,, संयोगी ,
, चौदहवा,, ,, समुच्चय ,, ,, और सातवा गु० तेजोलेशी साधु में पावें ,, ,, आठवो ,, हास्यादि , के चरमान्तम , ,, नौवो ,, सवेदी ,, के
, दशवा ., सकषायि ,, के ,
, इग्यारवी,, मोहसत्ता , के , ,, , बारहवो , छमस्थ ,, के ,, ,, तेरहवो ,, सयोगी , के ,, , चौदहवा ,, समुच्चय ,, के । सातवां और आठवा० अप्रमादि हास्यादि गु० मे , , नौवा गु० , सवेदी के चरमान्त में , , दशधा , सकषायि , " . , इग्यारवा , मोहसत्ता के , , , बारहवा , छमस्थमेके ,, , , तेरहवा० १ , सयोगी के ,, , , चौदहवा ? , समुचय गु.के,, आठवां और नौवां गु० १ शुक्ल ध्यान सवेदी गु० में ,, ,, दशवा ? , सकषायि के चरमान्त में
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,, इग्यारवा ?
,, बारहवा १
तेरहवा १
चौदवा
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नौषा और दशवा गु०
१ अवेदी
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,, इग्यारवा ?
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मोहलता के
छद्मस्थ के
सयोगी के
समुचय "
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दशवा और इग्यारवा० ? मोह अबन्ध मोहसत्ता गु० में पावे
बारहवा १
छद्मस्थ गु० चरमान्तमे सयोगी के
तेरहवा ?
चौदवा ?
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समुचय गु० के
इग्यारवा और बारहवा ? वीतराग छद्मस्थ गु० ते पावे
तेरहवा ?
योगी के चरमान्त में
15
"
चोदहवा ? बारहवा और तेरहवा ? क्षीण मोह संयोगी में पावे
2)
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39
चौदहवाo ? समुचय गु० के चरमान्तमें तेरहवा और चोदहवा गु० ? केवली भगवान् में पावे
x नौवे
मु० के शेष दो समय रहते हुवे अवेदी हो जाते हैं।
छंदूमस्थ गु० के
संयोगी के
के
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समुचय गु० के सकषायि गु० में पावे
मोहसत्ता के चरमान्त में
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समुचय गु० के चरमान्त में
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२७० थोकडा नम्बर १३२
.0.0.0.0.0.0.0.0
दशवा तक ?
(त्रिक संयोगादि गुणस्थान-प्रश्नोत्तर) दूजो तीजो चोथो गु० ! एकान्त भव्य अव्रती में पावे । दूजा से पांचवे तक ! , , तीर्यच में पाये।
छटा तक! , , प्रमादी जीयो में पाये। सातवा तक! ,, तेजोलेशी में पावे । आठवा तक? ,, हास्यादि में पावे। नौवा तक ?
सवेदी में पावे।
सकषायि में पाये। इग्यारवा तक!
मोहसत्ता में पाये। बारहवा तक ? ,, छमस्थ में पावे। तेरहवा तक ?
,, · सयोगी में पाये। चौदहवा तक! ,, ,, समुच्चय गु० में पावे। तीनो चोथो पांचवो गुल ? एकान्त संज्ञी तीर्यच में पाये । तीजा से छटा तक ? , प्रमादी में पाये। सातवा तक !
तेजोलेशी में पाये। आठषा तक ?
हास्यादि मे पावे। नौवा तक ? ,, सवेदी में पावे। दशवा तक
सकषायि में पाये। इग्यारषा तक?
मोहसत्ता में पाये। बारहवा तक?
छमस्थ में पावे। तेरहवा तक?
सयोगी में पाये चौदवा तक? " " समुचय में पाये।
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૭૨
atri पांचो छठ्ठी गु० ? क्षायक सम्यक्त्व प्रमादो में पावे ।
"1
" तेजोलेशी में पावे ।
""
हास्यादि में
चोथासे सातवा तक
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आठवा तक ?
नौषा तक
दशवा तक
पांचवा छठ्ठो सातो ? व्रती
पांचवा से आठवातक ? taras ?
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दशघातक ?
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इग्यारवातक ? " बारहवTतक ? तेरवातक ? चौदहवrतक ? छटो सातवो आठवो ! छटासे नौवातक ? " दशवातक ?
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इग्यारवा तक,
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" तेरहवातक ?
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बारहवा तक तेरहवा तक चौदह तक ?
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चौदवातक ? सातवा आठवा नौवा सातवा दशवातक ? इग्यारवातक ?
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समुचय में मुनि हास्यादि में " मुनि सवेदी में
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" सकषायि में "
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समुचय गु०
अप्रमादीमें पावे ।
हास्यादि में पावे ।
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सवेदीमे सकषाय में " मोहसता में "
मोहलता में
छदमस्थो में ” संयोगी में
छदमस्थ में "
सयोगी में
समुचय में अप्रमत्त सवेदीमें पावे ।
अप्रमत्त सकषायिमें पावे ।
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मोहसत्ता में "
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मोहसत्ता में छद्मस्थोंमें
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27
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२७२
" तेरहवातक? " सयोगीमें .. " __" चौदहवातक? " समचयमें " आठवा मौवा दशवा? शुक्लध्यान सकषायिमें पावे । आठवासे इग्यारवा? " मोहसत्तामें " " बारहवातक! " छदमस्थोंमें " " तेरहवातक? " सयोगीमें "। चौदवातक!
समुचयमें " नौवा दशवा इग्यारवा : अवेदी मोहसत्तामे पावे । नौवासे बारहवातक! छद्मस्थोंमें "
" तेरहवातक! " सयोगीमें "
" चौदवातक? " समचयमें " दशवा इग्यारवा बारहवा ? अकषायि छदमस्थों में। दशवासे तेरहवातक? " सयोगीमें
" चौदहवांतक ? " समुचयमें पावे । इग्यारवा बारहवा तेरहवा ? वीतराग सयोगीमें पावे । इग्यारवासे चौदहवातक ? समुचयमें पावे। बारहवा तेरहवा चौदहवा ? क्षीण वीतरागीमें पावे ।
इनके सिवाय भी गुणस्थानों के विकल्प हो सकते है लेकीन जो उपर लिखे विकल्प कण्ठस्थ कर लेगा वह स्वयं ही हजारो विकल्प कर सकेगा वास्ते यहां इतनाही लिखा है इति ।
इति शीघ्रबोध भाग १० वां समाप्त ॥
समा त. VIRAL
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वन्दे वीरम्.
पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय मुनिश्री श्री १००८ श्री श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब का सं. १९८० का चतुर्मास लोहावट ग्राम में हुवा
जिसके जरिये धर्मोनति.
मारवाड स्टेट जोधपुर कस्बे फलोदी से आठ कोशके फासले पर लोहावट नाम का ग्राम है जिस्के दो वास. एक जाटावास जिसमें एक जिनमन्दिर एक धर्मशाला एक उपासरा १२५ घर जैनों के अच्छे धनाढ्य धर्मपर श्रद्धा रखनेवाले हैं दूसरा विसनोइवास जिसमें एक जिनमन्दिर एक धर्मशाला ४० धर जैनों के ४० घर स्थानकवासी भाइयों के हैं मुनि श्रीका चातुर्मास जाटावास में हुवा था आपश्री की विद्वता और मधुर व्याख्यान द्वारा जिन शासन कि अच्छी उन्नति हुई वह हमारे वाचक वर्ग के अनुमोदन के लिये यहां पर संक्षिप्तसे उल्लेख कर पूज्यवर मुनि महाराजों से मरूस्थल मे विहार करने कि सविनय विनति करते हैं ।
(१) तीन वर्षों से प्रार्थना-विनति करते हुवे हमारे सद्भाग्य से
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फागण वद २ के रोज फलोदी से प्रापश्री का पधारणा लोहावट हुवा श्री संघ की तरफ से नगर प्रेवश का महोत्सव वाजा गाजा के साथ कर वडी खुशी और आनन्द मनाया गया था।
(२) श्री संघ के अत्याग्रह से चैत वद ६ के गेज व्याख्यान में श्री भगवतीसूत्र प्रारंभ हुवा जिसका वरघोडा रात्री जागरण स्वामी वात्सल्य शाह रतनचंदजी छोगमलजी पारख की तर्फ से हुवा श्री संघ की तरफ से ज्ञानपूजा की गई थी जिसमें अठारा सुवर्ण मुद्रिकायें मिला के रु १०००) की आमदनी हुइ इस सुअवसर पर फलोदी से श्रावक समुदाय तथा श्री जैन नवयुवक प्रेम मण्डल के सेक्रेटंग-मेम्बरादिने पधार कर वरघोडादि में भक्तिका अच्छा लाभ लिया था ।
(३) जीवदयामें रस-अज्ञान के प्रभाव से हमारे ग्राम में अति घृणित रूढी थी कि तलाव में मास दोय मास का पाणी शेष रह जाता तब ग्रामवाले उस पाणी को अपने घरों मे भरती कर लेते थे जिससे अनेक जलचर जानवरों की हानि होती थी वह आपश्री के उपदेश द्वारा बन्ध हो गया, स्यात् पाणी रखे तो सात दिनों से ज्यादा भरती न करें . हमारे लिये यह महान् उपकार हुवा है ।
( ४ ) महान् प्रभावीक सूत्र श्री भावतीजी के वाचनासमयमें हमारे यहां भी सुखसागर ज्ञान प्रचारक सभा की स्थापना हुई जिसका खास उद्देश छोटे छोटे ट्रेक्ट द्वारा यानि सुखसागर के अमृतजल का बिन्दुवों
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द्वारा जनता को अमृतपान करानेका है, तदनुसार स्वल्प समय में २०००० ट्रेक्ट छपवा के जनता की सेवा में भेज दिये गये हैं।
(५) जमाना हाल के मुताबिक आपश्री के उपदेश से चैत वह ६ के रोज यहांपर श्री जैन नवयुवक मित्र मण्डल की स्थापना हुई जिसमें अच्छे अच्छे मातबर लोक शरीक है प्रेसिडन्ट सेक्रेटरी मेम्बरादि के ६५ नाम दर्ज है मण्डल का उद्देश समाज सेवा और ज्ञान प्रचार करने का है इस मण्डल के जरिये और बुजर्गो की सहायता से हमारी न्याति जाति में बहुत ही सुधारा हुवा है जैसे प्रोसवाल और इतर जाति एक ही पटे में जीमते थे वह अलग अलग करवा दिये गये-पाणी के वरतनो पर मेम्बर को मुकरर कर दिये गये वह पाणी छान के पीलाया कर जीमणवार में झूठा इतना पडता था कि घरधणी को वडीभारी नुकशान
और असंख्य जीवों की हानि होती थी वह कुरीवाज भी निर्मूल हो गया, इतना ही नहीं किन्तु फजूल खरचे पर भी अंकुश रखने से हजागे रूपैया का फायदा दरसाल में होने लग गया जिससे हमारी प्रार्थीक स्थिति में भी बहुत सुधारा हुवा और हो रहा है।
. (६) मित्र मण्डल के जरिये धार्मीक ज्ञान का भी प्रचार बहुत हुवा जो कि थोकडे जीवविचार नवतत्त्व दंडक प्रकरणादि बहुत से लोग कण्ठस्थ कर तत्त्वज्ञान में प्रवेश हुवे और होने के उम्मेदवार हो रहे है करीबन ४० मेम्बर थोकडे कगठस्थ करते हैं जिस्मे ५-६ जणे तो अच्छे श्रोता बन गये है और ज्ञानमें रूचि भी अधिक हो रही है।
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. (७) आपनी के विराजने से जिन भागमों का नाम तक हम नही जानते थे और उन आगमो का श्रवण करना तो हमारे लिये मरूस्थल में कल्पवृक्ष की माफिक मुश्किल था परन्तु आपश्री की कृपा से निम्न लिखित आगमों की वाचना हमारे यहां हुई थी।
१ श्रीमद् भगवतीजी सूत्र शतक ४१-१३८ ५ श्री निरियावलीकाजी सूत्र अध्ययन ५२ १ श्री दशवैकालिकजी सूत्र अध्ययन १० . १ श्री प्राचारांगजी सूत्र अध्ययन २५ १ श्री उतराध्ययनजी सूत्र अध्ययन ३६ १ श्री जम्बुद्विपपन्नति सूत्र. १ श्री पन्नवणाजी सूत्र पद ३६ १ श्री उपासकदशांग सूत्र अध्ययन १० कूल १२ सूत्र और ८ प्रकरण की वाचना हुई ।
आपश्रीकी व्याख्यान शैली-स्याद्वादमय और युक्ति दृष्टान्तादिसे समजानेकी शक्ति इतनी प्रबलथी कि सामान्य बुद्धिवाले के भी समजमे
आ जावे. आपके व्याख्यानमें जैनोंके सिवाय स्थानकवासी भाई तथा सरकारी कर्मचारी वर्ग स्टेशन बाबुजी, पोष्ट बाबुजी, मास्टरजी पुलीस थाणदारजी आदि भी पाया करते थे हमारे ग्राममे साधु साध्वियों सदेव आया करती है चतुर्मास भी हुवा करते है किन्तु इतने आगम इस खुलासाके साथ आपश्रीके मुखाविदसे ही सुने है ।
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(८) सभाओ, कमेटीओ, मिर्टीगो पब्लिक भाषणोद्वारा जमानेकी खबर जनताको दी गइ थी रेसम या बिदेशी, हिंसामय, पदार्थोंका त्याग भी कितनेही भाई बहिनोने किया था और समाजमें जागृतिभी अच्छी हुइ थी और श्री वीरजयन्ति श्री रत्नप्रभसूरी जयन्ति. दादाजीकी जयन्ति के समय पब्लिक सभावों द्वारा जैनधर्मकी महत्वता पर बडेही जोशीले भाषण हुवे थे.
(९) पुस्तकोंका प्रचारभी हमारा ग्राम और समय के मुकाबले कुच्छ कम नहीं हुवा, निम्न लिखित पुस्तके हमारे यहांसे प्रकाशित हुई है.
१००० श्री स्तवन संग्रह भाग चोथा. १००० श्री भावप्रकरण सावचूरी. ५००० श्री द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका. ५००० श्री शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ पांचो भागकि
हजार हजार नकल एकही कपडेकि जिल्दमे बन्धाइगइ है. १००० श्री गुणानुराग कूलक भाषान्तर. १००० श्री महासती सुरसुन्दरी रसीक कथा. १००० श्री मुनि नाममाला जिस्मे ७५० मुनीयोंको वन्दन. ५००० श्री पंचप्रतिक्रमण सूत्र विधि सहित. ( कूल २००००) ( १० ) पुस्तके छपानेमें मदद भी अच्छी मिलीथी. १०००) श्री भगवतीसूत्र प्रारंभमे पूजाका. २००) श्री भगवती सूत्र समाप्त मे पूजाका.
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२५०) शाह हजारीमल कुंवरलाल पारख. २००) शाहा लूणकरण धूलमल पारख. ६५) शाहा आइदांन अगरचंद पारख. ७५) शाहा जमनालाल इन्दरचंद पारख. ७५) शाहा फोजमल गैनमल पारख. ५१) शाहा मोतीलाल हीरालाल पारख. ५०) शाहा इन्दरचंद संपतलाल पारख. ५०) शाह माणकलाल चोपडा. २५) शाहा लीखमीचंद मूलचंद पारख. १२६) परचुन तथा बाहारकी आमदानी. ८००) पर्युषणोंमे स्वप्नोंकी श्रामदानी कुल ३०००)
पंचप्रतिक्रमण ५००० नकलो की छपाइ एक गुप्त दानेश्वरी की तरफसे मदद मिलीथी.
(११) ज्ञान पंचमिपर एक धर्म जलसा किया गया था वह मानो समौसरणकि रचनाहीका स्वरुप था १५ दिन तक महोत्सव रहा प्रतिदिन नइ नइ पूजा भणाइ गई थी करीबन एक हजार रुपैयोंका खरच हुवा था.
(१२) स्वामिवात्सल्य-स्वधर्मीभाइयों मे वात्सल्य वृद्धिके लिये स्वामिवात्सल्य ( १) श्री भगवतीसूत्रके प्रारंभ में फलोदीवाले आये थे उन्होंको स्वामिवात्सल्य शाह छोगमलजी पारखकी तरफसे हुवाथा, और
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प्रभावनाभी हुइथी (२) श्रावण वद ३ को फलोदीसे श्री संघझाबक गुलेच्छा कोचर वेद लोंकड ललवाणी लोढा लुणावत लुणीया छाजेड चोपडा मालु वोरा मीनी बुबकीया वरडीया छलाणी सराफ कानुंगा मडीया नेमाणी भन्साली कोठारी डाकलीया सेठीया नावटा नाहार कवाड चोरडीया संखलेचा वछाक्त पारख ढढा आदि करीबन २५०
आदमी और बाइयां मुनिश्री के दर्शनार्थी पाये थे उन फलोदीवालोकी तरफसे दोनों वासोके जैनोंको स्वामीवात्सल्य दिया गया था तथा शाहा धनराजजी आशकरणजी गुलेच्छाकी तर्फसे पूजा भणाइ गइ थी ओर चांदीकी ध्वजा और खोपरे रू १०१) के श्रीमन्दिरजीमें चढाये गये थे प्रभावना भी दी गइथी ( ३) श्री जैन नवयुवक मित्र मण्डलकी तरफसे स्वामिवात्सल्य फलोदीवालोंको दिया गया था ( ४ ) शाह शेरचंदजी पारखकी तरफसे ( ५ ) शाहा अगरचंदजी पारखकी तरफसे ( ६ ) श्री भगवतीजी समाप्त पर फलोदीवाले करीबन २५० आदमी और औरतों माइ थी जिसको शाह छोगमलजी कोचरकी तरफसे स्वामिवात्सल्य दिया गया था इस सुअवसरपर फलोदीवाले मुत्ताजी सीवदानमलजीकी तरफसे नालीयरों की प्रभावना हुईथी वेद ढंढोकी तरफसे तथा झाबकोंकी तरफसे तथा कोचगेकी तरफसे एवं च्यार प्रभावनाओ भी वडी उदारतासे हुइथी. अन्तमे जेठ वढ़ ७ को मुनिश्रीके विहार समय करीबन २५-३० भाइयों पली तक पहुचाने को गये वहां पलीमे शाह छोगमलजी कोचर की तरफसे स्वामिवात्सल्य हुवा था पली के न्यातिभाइयों को भी आमन्त्रण किया था यानि, धर्म की अच्छी उन्नति हुई ।
( १३ ) भगवान कि भक्तिके लिये वरघोडे भी वडी धामधूमसे
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चढाये गयेथे जिसमें जोधपुरसे अंग्रेजी वाजे भी मंगवाये गये थे। .. (१) श्री भगवती सूत्र प्रारंभमें शाहा छोगमलजी पारखकी तरफसे. (२) फलोदीवालोकी तरफसे श्रावण वद ४ को (३) पयुषणोमे चैत्यपरिपाटीका वरघोडा (४) श्री भगवतीजीसूत्र समाप्त का श्री संघकी तरफसे
( १४ ) मुनिश्री के विराजनेसे फलोदीवाले करीबन् २०००. श्रावक श्राविकाओं आपश्रीके दर्शनार्थी पधारे थे जिनोंकी स्वागत यथाशक्ति अच्छी हुइथी।
(१५) इनके सिवाय चांदीका मेरू, जोकि मेरू बहुतसे ग्रामोमें होते है किन्तु यह खास शास्त्रानुसार मेरू बनाया गया है तथा पूजा प्रभावना तपश्चर्या कण्ठस्थ ज्ञानध्यान समयानुसार हमारे ग्रामके मुकाबले बहुत अच्छा हुवा हमारे ग्राममे ऐसी धर्म उन्नति पहले स्यात् ही हुइ होगी हमने तो हमारे जीवनमें नही देखीथी और भी नवयुवक लोगोंमे भी अच्छी जागृती हुई वह लोग अपने कर्तव्यपर विचार करने लग गये है हम आपश्री से पुनः पुनः प्रार्थना करते है कि आपके लगाये हुवे कल्पवृक्षको जल्दी जल्दीसे अमृत सींचन करते रहे यानि ऐसे थली के क्षेत्रोमें बिहार कर हम लोगोंपर उपकार करते रहै यह ही हमारी अन्तिम प्रार्थना है इसे स्वीकार करावे ।
भवदीय
माणकलाल पारख, सेक्रेटरी श्री जैन नवयुवक मित्रमंडळ-लोहावट.
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॥ श्री वीतरागाय नमः॥
ता. श्री जैन नवयुवक मित्रमंडल.
मुः लोहावट-जाटावास ( मारवाड.) वीर सं. २४४६
विक्रम सं. १६७६ . पूज्य मुनि श्री हरिसागरजी तथा मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब के सद्उपदेशसे सं १९७६ का चैत पद ९ शनिश्चरवार को इस मंडलकी शुभ स्थापना हुई है। मित्र मंडलका खास उद्देश समाजसेषा और ज्ञानप्रचार करनेका है । पहले यह मंडल नवयुवकोंसे ही स्थापित हुवा था परन्तु मंडलका कार्यक्रम अच्छा होनेसे अधिक उम्मरवाले सजनोंने भी मंडलमें
सामिल हो कर मंडलके उत्साहमें अभिवृद्धि की है। सम्बर. मुबारिक नामावली. ग्राम. | पिताका नाम. वार्षीक चन्दा
-
११) | ११)
ق
| श्रीमान् प्रेसिडन्ट छोगमलजी कोचर लोहावट. चतर्भुजजी
, वाइस प्रेसीडेन्ट इन्द्रचन्द्रजी पारेख ,, राचलमलजी , नायब प्रेसिडेन्ट खेतमलजी कोचर ,, पीरदानजी ,, चीफ सेक्रेटरी रेखचंदजी पारख , हजारीमलजी
जोइन्ट सेक्रेटरी पुनमचंदजी लुणीया ,, रत्नालालजी ,, ,, ,, इन्द्रचंदजी पारख ।, चोनणमलजी , सेक्रेटरी माणकलालजी पारख , हीरालालजी
, आसीस्टेन्ट से. रीखवमलजी संघी कुचेरावाला ९ / श्रीयुक्त मेम्बर अगरचन्दजी पारख लोहावट. | आइदांनजी
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श्रीयुक्त मेम्बर पृथ्वीराजजी चोपडा
, ,, जीतमलजी भन्साली ,, ,, हस्तीमलजी पारख
..,, भेरूलालजी चोपडा ., जुगराजजी पारख ,, मनसुखदासजी पारख ,, कुंनणमलजी पारख , कुंनणमलजी कोचर ,, भभूतमलजी पारख , हीरालालजी चोपडा ,, जमनालालजी पारख ,, रेखचंदजी पारख
मभूतमलजी पारख , सुखलालजी चोपडा ,, फूलचन्दजी पारख , घेवरचंदजी गडीया ,, जेठमलजी डाकलीया ,, कुंनणमलजी पारख ,, जमनालालजी बोथरा ,, नेमिचन्दजी चोपडा ,, कुंनणमलजी चोपडा ,, पुखराजजी चोपडा ,, कुंवरलालजी पारख ,, चुनिलालजी पारख
लोहावट. । खुबचन्दजी .
तुलसीदासजी रावलमलजी रेखचंदजी रावलमलजी हजारीमलजी हीरालालजी हीरालालजी श्रीचंदजी मोतीलालजी रावलमलजी मोतीलालजी करणीदानजी हीरालालजी
केवलचन्दजी मथाणीया. | जुहारमलजी लो० प्रतापचंदजी
सहजरामजी अलसीदासजी पुनमचंदजी मालचन्दजी ताराचन्दजी सेरचन्दजी सीवलालजी
३)
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३४ | श्रीयुक्त मेम्बर सुखलालजी पारख
,, ,, सौमरथमलजी चोपडा , ,, अलसीदासजी कोचर
,, इन्द्रचंदजी वैद ,, ठाकुरलालजी चोपडा ,, घेवरचन्दजी बोथरा , कन्यालालजी पारख ,, संपतलालजी पारख ,, नेमिचंदजी पारख ,, हेमराजजी पारख
.,. भभूतमलजी कोचर ,, ,, भीखमचंदजी कोचर
,, गोदुलालजी सेठीया ,, जोरावरमलजी वैद ,, खेतमलजी पारख ,, गणेशमलजी पारख ,, संपतलालजी पारख ,, सहसमलजी पारख ,, तनसुखदासजी कोचर
भीखखमचंदजी पारख ,, सुगनमलजी पारख
,, जुगरामजी पारख ,, . ., जमनालालजी पारख ,, ,, खेतमलजी कोचर
लोहावट. | मोतीलालजी
हीरालालजी
पूनमचंदजी रातगढ सीवलालजी
रेखचंदजी रावलमलजी जमनालालजी इन्दरचंदजी हीरालालजी चांनणमलजी हस्तिमलजी मेघराजजी छोगमलजी
वदनमलजी लो०
हजारीमलजी मनसुखदासजी हीरालालजी छोगमलजी जेठमलजी . मुलचंदजी चुनिलालजी रतनलालजी मुलचंदजी प्रभुदानजी
फलोदी
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१८) श्रीयुक्त मेम्बर माणकलालजी कोचर
५९
मीसरीलालजी कोचर
६ ०
घेवरचंदजी कोचर
६१
नथमलजी पारख
६२
नेमिचंदजी पारख
६३
विजेलालजी पारख
૪
केशरीचंदजी पारख
६५
बंसीलालजी पारख
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दलीचंदजी
खेतमलजी
ज्ञानमलजी
हंसराजजी
मनमुखदासजी
लगनमलजी
धनराजजी
हस्तीमलजी
सुखसागर ज्ञान प्रचारक सभाकि तर्फसे प्रसिद्ध हुइ पुस्तके.
५००० श्री द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका
१००० श्री भाव प्रकरण सावचूरी
५००० श्री शीघ्रबोध भाग १-२-३-४-५ प्रत्येक कि हजार हजार नकल
१००० श्री गुणानुरागकूलक
३००० श्री शीघ्रबोध भाग ६-७-८ प्रत्येक की हजार हजार नकल तथा स्तवन संग्रह भाग चोथा १००० महा सती सुरसुन्दरी १००० मुनि नाममाला १००० पंच प्रतिक्रमण ५००० पुस्तकें श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला में भी हमारी तरफ से छपी हुई हैं - श्री सुखसागर ज्ञान प्रचारक सभा मु० लोहावट -- मारवाड.
पत्ता-
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पुष्प न. ७४.
॥ ॐ ॥
ता. २१-६-२४ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला ऑफीस फलोदीसे आजतक
पुस्तकें प्रसिद्ध हुइ जिस्का.
सूचीपत्र.
इस संस्थाका जन्म-पूज्यपाद परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज तथा मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महारानके सदुपदेशसे हुवा है. संस्थाका खास उद्देश छोटे छोटे ट्रेक्ट द्वारा समाजमें ज्ञानप्रचार बढानेका है. इस संस्था द्वारा ज्ञानप्रचार बढानेकों प्रथम सहायता फलोदी श्री संघकी तर्फसे मिली है, वास्ते यह संस्था फलोदी श्री संघका सहर्ष उपकार मानती है।
पुस्तकोंक नाम. विषय. कुल प्रति. कीमत. १ श्री प्रतिमा छत्तीसी . | ३२ सूत्रोंमें मूर्ति है । | २०००० २ गयवर विलास | ३२ सूत्रोंका मूल पाठ २८००
दान छत्तीसी तेरापन्थी दयादानका नि। ४/ अनुकम्पा छत्तीसी षेध करते है जिस्का उतर । ५ प्रश्नमाला प्रश्न १०० | ३२ सूत्रोंके मूल पाठसे प्रश्न ३००० ६) स्तवन संग्रह भाग १ लो | जिन स्तुति ७ पैंतीस बोलोंका थोकडा. | द्रव्यानुयोगके बोल ८ दादा साहिबकी पूजा | गुरुपद पूजा ९+चर्चाकी पब्लिक नोटीस | ढुंढकोंको चर्चाका आमंत्रण . १०००
१०००
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१० देवगुरु वन्दनमाला विधि सहित ११/ स्तवन संग्रह भाग २ जो | प्रभु स्तुति १२/ लिंगनिर्णय बहुत्तरी | जैन मुनियों के तथा ढुंढकों कि ३००० १३/ स्तवन संग्रह भाग ३ जो
| भगवानके भजन १४ सिद्धप्रतिमा मुक्तावली | प्रश्नोत्तरसे मूर्ति सिद्ध १५ +बत्तीस सूत्र दर्पण | बत्तीस सूत्रोंका सार १६, जैन नियमावली मार्गानुसारी बारहा व्रत १५ चौरासी आशातना जिन मन्दिरोंकी आशातना १० +डकेपर चोट ढुंढकोंका उत्तर , 1९/ आगमनिर्णय प्रथमांक | आगमोंके सारकी बातें २० चैत्यवन्दनादि चैत्यवन्दन स्तुति स्तवन २१ जिन स्तुति
संस्कृत श्लोक . २२ सुबोध नियमावली चौदा नियमादि २३) जैन दीक्षा प्रथमांक दीक्षाके लीये योगायोग २४ प्रभु पूजा.
पूजाकी विधि या पाशातना २५/ +व्याख्याविलास प्र. भा० विविध विषय २६ +शीघ्रबोध भाग १ ला द्रव्यानुयोग थोकडा १७ २५/ शीघ्रवोध भाग २ जा | नवतत्त्व पचवीस क्रिया २८ शीघ्रबोध भाग ३ जा नयनिक्षेपादि षट् द्रव्य २६ शीघ्रबोध भाग ४ था मुनिमार्गके थोकडा ३० शीघ्रबोध भाग ५ वां कर्ग विषय थोकडा ३१/ +सुखविपाक सूत्र दानमहात्म्य दश जीवोंका ३२/ +शीघ्रबोध भाग ६ ठा | पांच ज्ञान नन्दीसूत्र ३३ +दशवैकालिक मूल सूत्र । मुनिमार्ग
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५००
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३४ | शीघ्रबोध भाग ७ वां ३५ मेरनामो
गु० हि०
३६ तीन निर्नामा लेखों के उत्तर
३७ प्रोशीया ज्ञान लीस्ट
३८ शीघ्रबोध भाग ८वां
३६ शीघ्रबोध भाग ९ वां
४० नन्दीसूत्र मूलपाठ
४१ तीर्थयात्रा स्तवन
४२ शीघ्रबोध भाग १० वां
४३ अमे साधु शामाटे थया
४४ विनतिशतक
४५ वज्यानुयोग • प्रवेशिका
४६ शीघ्रबोध भाग ११ वां
४७ शीघ्रवोध भाग १२ वां
४८ शीघ्रबोध भाग १३ वां ४६) शीघ्रबोध भाग १४ वां ५०+ आनंदघन चौवीसी ५१ शीघ्रबोध भाग १५ वां ५२ शीघ्रबोध भाग १६ वां ५३ कक्का बत्तीसी
५४ व्याख्या विलास भाग २ जा
५५ व्याख्याविलिस भाग ३ जा
५६ व्याख्याविलास भाग ४ था
५७ स्वाध्याय गहुंली संग्रह
१५.
विविध प्रश्नोत्तर
वर्तमान धमालका दर्शन सत्यताकी कसोटी
पुस्तक नाम नम्बर
भगवतीसूत्रका सूक्ष्म वि० गुणस्थानादि विविध वि०
पांच ज्ञान
यात्रा दरम्यान तिर्थ
चौवीस ठाणा द्रव्यानु०
साधुवोंका कर्तव्य
वर्तमान वर्तारो
द्रव्यानुयोग विषय
प्रज्ञापना सूत्रका सार
प्रज्ञापना सूत्रका सार गणितानुयोग
नारकी देवलोकादि क्षेत्र
चौवीस भगवानके स्तवन आगमोंके प्रश्नोत्तर
आगमों के प्रश्नोत्तर
चैतन्यके सुमति कुमति
संस्कृत श्लोक
प्राकृत श्लोक
भाषाकी कविता
विविध विषय
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ज्ञान वि.
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________________ / 100 100 बारहा सूत्रोंका भाषांतर 1000 1000 / 100 / 1000 1000 -- | हुवा ज्ञान 58 राइदेवसि प्रतिक्रमण आवश्यक सूत्र ke, शीघ्रबोध भाग 17 वां उपासकदशांगादि तीन सूत्र | 100 60 शीघ्रबोध भाग 18 वां निरियावलीका पांच सूत्र 61, शीघ्रबोध भाग 16 वां बृहत्कल्प सूत्र शीघ्रबोध भाग 20 वां | दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र 63 शीघ्रबोध भाग 21 वां व्यवहार सूत्र 64 शीघ्रबोध भाग 22 वां निशिथ सूत्र 65/ उपकेश गच्छ लघु पट्टावली | उपकेश गच्छाचार्यके नाम 66, वर्णमाला बालावबोध अक्षरके नाम 67 शीघ्रबोध भाग 23 वां भगवती सूत्रका सूक्ष्मज्ञा६८ शीघ्रवोध भाग 24 वां | नकों थोकडेरुपसे लिखा 1000 69/ शीघ्रबोध भाग 25 वां | 1900 70/ तीन चातुर्मासका दिग्दर्शन | फलौदीके तीन चौमांसा 1000 71/ तेरहा प्रश्नोंका उत्तर हितशिक्षा 72/ स्तवन संग्रह भाग 4 था / ज्ञान चौवीसे 1000 विवाहचूलिकाकी समालोचना बावीस टोले ढुंढकोकि 74 पुस्तकोंका सूचीपत्र पुस्तकोंका नाम किंमत 75/ सुर सुन्दरी कथा कर्मफल 1000 पंच प्रतिक्रमण विधि सहित | आवश्यक 77/ मुनि नाममाला / वन्दन पाठ नोट:-ज्ञानविलासमें उपरके 25 पुस्तकें है किंमत रु. 1 // + ऐसे चिन्हवाली पुस्तकें खलास हो चुकी हैं / मिलनेका पत्ता-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला. मु० फलोधी ( मारवाड) : 1000 1000 1000 . 5000