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समुचय जीवमें निरुवचया निरवचया है वह सर्वार्द्ध है और नारकी में निरुवचया निरषचया वर्जके शेष तीन भागकी स्थिति ज० एक समय उ० आवलीका के असं० भाग और निरुषचया freeeerat स्थिति विरह द्वार सदृश समझना परन्तु पांच स्थावरमें निरुवचया निरवचया भी ज० एक समय उ० आविलीकाके असं० भाग, सिद्ध भगवान में सावचया ज० एक समय उ० आठ समय और निरुवचया निरवचया ज० एक समय उ० है मासः इति ।
नोट- पांच स्थावरमें अवस्थित काल तथा निरुवचया निरवचया काल अवलिकाके असं० भाग कहा है वह परकाया पेक्षा है स्वकायका विरह नहीं 1
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् । -*O*--
थोकडा नं० १९७
श्री पन्नासूत्र पद १४.
( कषायपद )
जिन महात्माओंने चतुर्गती रूप घोर संसारको तैरके परम पदको प्राप्त किया है वे सब इस कषायके स्वरूपको समझके और इसका परित्याग करके ही अक्षय सुख [ मोक्ष पद ] को प्राप्त हुए हैं। बिना इसके परित्याग किये अक्षय सुखकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सक्ती इस लिये पहिले इसको यथावत् समझे और फिर उसका त्याग करें ।