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(६) नाकि देवताओंके ज्ञान है सो अवस्थीत है कारण वह भवप्रत्य ज्ञान है और मनुष्य तीर्यचके ज्ञान तीनो प्रकारका है हियमान वृद्धमान और अवस्थीत ।
(७) नारकि देवताओके अवधिज्ञान अनुगामि है याने नहां जाते है वहां साथमें चलता है और मनुष्य तीर्यचमे अनुगामि अनानुगामि दोनो प्रकारसे होता है।
(८: नारकि देवताओंके अवधिज्ञान अप्रतिपाति है कारण यह भवप्रत्य होता है और तीयेच पांचेन्द्रियमें प्रतिपाति है मनुध्यके दोनो प्रकारका होता है प्रतिपाति अप्रतिपाति कारण मनुज्यमें केवलझान भी होता है परम अवधिज्ञान भी होता है इति
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सक्षम
--- - थोकडा नम्बर ६८
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मूत्रश्री भगवतीजी शतक : उ० २ पांच ज्ञानकि लब्धि ।
द्वारोंके नाम. जीव, गति, इन्द्रिय, काय, सूक्षम, पर्याप्ति, भवार्थी, भवसिद्धि, संज्ञी, लब्धि, ज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, कषाय, वेद, आहार, नाण, काल, अन्तर. अल्पाबहुत्व, ज्ञानपांच, मतिज्ञान, धृतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, तथा अज्ञान तीन मतिअज्ञान, श्रृतिअज्ञान, विभंगहान, चन्हनहां. भ हो वहा भजना, स्यात् हो स्यात न भी हो स्यात् कम भी हो. जहा नि-नियम. निश्चय कर होता ही है।