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(१७ ) लोकोत्तर मिथ्यात्व-मोक्षके लिये करने योग्य क्रिया करके लौकिक सुखकी इच्छा करे या वीतराग देवके पास लौकीक सुख सम्पदा धनादिकी प्रार्थना करे । उसे लोकोत्तर मिथ्यात्व कहते है।
[१८] ऊंणो मिथ्यात्व-धीतरागके वचनोंसे न्यून प्ररुपणा करे तथा नीयको अंगुष्ट प्रमाण माने या न्युन क्रिया करे । मि.
। [१९] अधिक मिथ्यात्व-वीतरागके वचनोंसे अधिक प्ररुपणा करे। या अधिक क्रिया करे-मनःकल्पित क्रिया करे। मि.
[२०] विपरीत मिथ्यात्व-वीतरागके वचनोंसे विपरीत प्ररुपणा करे या विपरीत क्रिया करे-कुलिंगादि को धारण करे।
[२१] गुरुगत मिथ्यात्व-अगुरुको गुरु करके माने जैसे जंगम, जोगी, सेवडा, चमखंडा चमचीरीया की जिसमें गुरुका गुण न हो लक्षण न हो और लिंग न हो अथवा स्वलिंगी पासत्था उसन्ना संसक्ता कुर्लिग्यादिको गुरु माने । मि.
( २२ ) देवगत-जो रागी द्वेषी आरम्भ उपदेशी जिनकी मुद्रामे राग द्वेष विषय कषाय भरा है ऐसे देव हरी, हलधर भेरु भवानी शीतला मातादिको देव माने । मि०
( २३ ) पर्वगत-जैसे होली, कष्ण अष्टमी, गोगानवमी, आमावास्यादि लौकिक पर्वको पर्व मान कर मिथ्यात्वको क्रिया करे । मि०
(२४) अक्रिय मिथ्यात्व-क्रिया करनेसे क्या फल होता है इत्यादि माने-क्रिया का नास्तिपणा बतलाना । मि०
( २५ ) अविनय मिथ्यात्व-देव, गुरु, संघ, स्वाधर्मी भाइयों का उचित विनय न करके उनका अविनय-आशातना करे। मि.
यह २५ प्रकारका मिथ्यात्व कहा। इसके सिवाय शास्त्रका