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श्रुति ज्ञान पर दीर्घकालका विचार करना तथा श्रुतिज्ञान द्वारा निश्चय करे ( . ) हेतुबाद-हितोपदेशादि अषण कर श्रुतिज्ञान प्राप्त करना (३) दृष्टिबाद-द्वादशांगी अन्तर्गत दृष्टिबाद अङ्ग को पठन पाठन कर श्रुतिज्ञान हांसल करे इस्को संज्ञी श्रुतिज्ञान कहते है।
(४) असंज्ञी श्रुतिज्ञान-मन और संज्ञीएणे के अभाव एसे पके. न्द्रिसे असंज्ञी पांचेन्द्रिय के जीवों को होता है वह अव्यक्तपणे संज्ञा मात्र से ही प्रवृति करते है जिस्के तीन भेद है स्वल्प काल कि संज्ञा अहेतुबाद अदृष्टिबाद याने संज्ञीसे विप्रीत समझना।
(५) सम्यक् श्रुतिज्ञान-श्री सर्वज्ञ धोतराग-जिन-केवलीअरिहन्त-भगवान प्रणित स्यावाद तत्व विचार-षद्रव्य नय निक्षेप प्रमाण द्रव्य गुण पर्याय परस्पर अविरूद्ध श्री तीर्थकर भगवान त्रिलोक्य पूजनीय भव्य जीवों के हितके लिये अर्थरूप फरमाइ हुइ वाणि जिस्कों सुगमता के लिये गणधरोंने सूत्र रूपसे गुंथी और पूर्व महा रूषियोंने उसके विवरणरूप रची हुइ पाँचांगी उसे सम्यकसूत्र कहते है या चौदा पूर्वघरो के रचित तथा अभिन्न दश पूर्वधरों के रचित ग्रन्थों को भी सम्यक् श्रुतिज्ञान कहते है।। उस्के नाम आगे लिखेंगे।
(६) मिथ्याश्रुतिज्ञान-असर्वज्ञ सरागी छदमस्त अपनि बुद्धि से स्वछंदे परस्पर विरुद्ध जिस्मे प्राणबधादि का उपदेश । स्वार्थ पोषक हठकदाग्रह रूप जीवों के अहितकारी जो रचे हुवे अनेक प्रकार के कुरांणपूरांण ग्रन्थ है उसमें जीवादि का विप्रीत स्वरुप तथा यज्ञ होम पिंडदान स्तुवान प्राणबधादि लोक अहित कारक उपदेश हो उसे मिथ्याश्रुतिज्ञान कहते है।
( क ) सम्यग्दृष्टियों के सम्यकसूत्र तथा मिथ्यासूत्र दोनों सम्यग श्रतिज्ञानपणे प्रणमते है कारण वह सम्यग्दृष्टि होनेसे जैसी वस्तु हो उसे वैसी ही श्रद्धता है और मिथ्यादृष्टियोंके सम्यगसूत्र