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लेखक की कुछ असावधानी से ऐसा शब्दभेद होना सम्भव है। __ यहाँ एक विशेषता यह देखी जाती है कि लोहार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्द्धदत्त इन चार आरातीय अन्य आचार्यों के नामों का भी निर्देश एक साथ किया गया है। धवला में इनका कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस और महाकम्मपयडिपाहुड आदि के धारक रह गये, इस प्रकार महर्षियों की परम्परा से आकर वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ । वहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कितने महर्षियों की परम्परा से आकर वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।
ऐसी स्थिति में आ० इन्द्रनन्दी के द्वारा श्रुतावतार में जो उपर्युक्त विनयधर आदि अन्य चार आरातीय आचार्यों का उल्लेख किया गया है वह अपना अलग महत्त्व रखता है।
किन्तु वह महाकम्मपयडिपाहुड धरसेनाचार्य को साक्षात् किस महर्षि से प्राप्त हुआ, इसका उल्लेख न धवलाकार ने कहीं किया है और न इन्द्रनन्दी ने ही। इससे धरसेनाचार्य के गरु कौन थे, यह जानना कठिन है । इन्द्रनन्दी ने तो गुणधर भट्टारक और धरसेनाचार्य में पूर्वोत्तरकालवर्ती कौन है, इस विषय में भी अपनी अजानकारी प्रकट की है।'
इन्द्रनन्दी ने विनयधर आदि उन चार आचार्यों के उल्लेख के पश्चात् अर्हदबलि का उल्लेख करते हुए कहा है कि पूर्वदेश के मध्यवर्ती पुण्ड्रवर्धन नगर में अर्हद्बलि नामक मुनि द्वारा जो सब अंग-पूर्वो के देशकदेश के ज्ञाता थे। संघ के अनुग्रह व निग्रह में समर्थ वे अष्टांगनिमित्त के ज्ञाता होकर पांच वर्षों के अन्त में सौ योजन के मध्यवर्ती मुनिजन समाज के साथ यगप्रतिक्रमण करते हुए स्थित थे। किसी समय युग के अन्त में प्रतिक्रमण करते हुए उन्होंने समागत मुनिजन समूह से पूछा कि क्या सब यतिजन आ गये हैं। उत्तर में उन सब ने कहा कि भगवन् ! हम सब अपने-अपने संघ के साथ आ गये हैं। इस उत्तर को सुनकर उन्होंने विचार किया कि इस कलिकाल में यहाँ से लेकर आगे अब यह जैन-धर्म गण-पक्षपात के भेदों के साथ रहेगा, उदासीनभाव से नहीं रहेगा। ऐसा सोचकर गणी (संघप्रवर्तक) उन अर्हदबलि ने जो मुनिजन गुफा से आये थे उनमें किन्हीं का 'नन्दी' और किन्हीं का. 'वीर' नाम किया। जो अशोकवाट से आये थे उनमें किन्हीं को 'अपराजित' और किन्हीं को 'देव' नाम दिया । जो पंचस्तप्यनिवास से आये थे उनमें किन्हीं का 'सेन' और किन्हीं का 'भद्र' नाम किया। जो शाल्मली वृक्ष के मूल से आये थे उनमें किन्हीं का 'गुणधर' और किन्हीं का 'गुप्त' नाम किया। जो खण्डकेसर वृक्ष के मूल से आये थे उनमें किन्हीं का 'सिंह' और किन्हीं का 'चन्द्र' नाम किया।
इसकी पुष्टि आगे इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक एक अन्य पद्य के
१. गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्याभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागम-मुनिजनाभावात् ।।-इ० श्रुतावतार १५१ २. इ० श्रुतावतार ८५-६५
षट्खण्डागम : पीठिका | १३
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