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॥ अब जिनवाणीका वर्णन ॥ मत्रैया २३ सा ॥जोगधरी रहे जोगसु भिन्न, अनंत गुणातम केवलज्ञानी ॥ तासु हदै द्रहसो निकसि, सरिता समन्हे श्रुत सिंधु समानी ॥ याते अनंत नातम लक्षण, सत्य सरूप सिद्धांत वखानी ॥
बुद्ध लखे दुरखुद्ध लखेनहि, सदा जगमाहि जगे जिनवाणी ॥३॥ अर्थ-कैसी है जिनवाणी ? केवलज्ञानी जिनभगवान्, मन वचन अर शरीरके योगते सहित है । तथापि योगद्वारे ज्ञानका अनुभव लेय नहीं है, इस कारण ते योगसे पृथक् है, ऐसे अनंत गुणस्वरूपी केवलज्ञानी जिनभगवान् है । तिनके हृदयरूप सरोवरते नदी समान निकसी शालरूप समुद्र समान हो रही है, ऐसी इह जिनवाणी है। इसिको अनंत नयरूप लक्षणकू धर सत्यस्वरूप सिद्धांतम व्याख्यान कीया है । या वाणीकुं बुद्धिवंत तत्वदर्शीही देखे है जाने है; दुर्बुद्धि मिथ्यात्वी देखे नहीर अर जानेहि नही है, ऐसी या जिनवाणी है, सो जगतमें सदाकाल जाग्रत दीपकरूप हो रही है. जो इसिका आराधना ( अभ्यास ) करेगा ताको सत्य अर असत्यका ज्ञान होयगा ॥ ३ ॥
॥ अथ प्रथम जीवद्वार प्रारंभ ॥१॥ कवि व्यवस्था कथन ॥ छप्पछंद ॥ हूं निश्चय तिहु काल, शुद्ध चेतनमय मूरति । पर परणति संयोग, भई जडता विस्फूरति ।मोहकर्म पर हेतु पाइ, चेतन पर स्चयोज्यौ धतुर रस पान करत, नर बहुविध नच्चय । अव समयसार वर्णन करत, परम शुद्धता होहु मुझ । अनयास बनारसीदास कही, मिटो सहज भ्रमकी अरुझ ॥ ४॥
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॥१०॥