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अनेकांतात्मक वस्तुपना दिखाया है अर झाममात्र कहनेका प्रयोजन दिखाया है, जो लक्षणकी
प्रसिद्धिकरि लक्ष्य प्रसिद्ध होय है, तातें ज्ञान लक्षण है, आत्मा लक्ष्य है ऐसा वर्णन है। बहुरि " 卐 एक ज्ञानक्रियाही रूप परिणमति (मिति ) आत्मा, अनंतशक्ति प्रगट है। तिनिमसू सैंतालीस ॥
शक्तिके नाम लक्षण कहे हैं । आगें उपायोपेयभावका वर्णन है, तहाँ आत्मा परिणामी है, तातें । साधकपणा अर सिद्धपणा दोऊ भाव भलेप्रकार बने हैं, ऐसे कहि स्याद्वादकी महिमा करि, इस ॥ समयसार शुद्ध आत्माका अनुभवकी वढाई करि, ग्रंथ पूर्ण किया है। इस सर्वविशुद्धज्ञानके
अधिकारमैं गाथा एकसौ सात है अर कलशरूप काव्य तीयासी ८३ हैं। सर्व अधिकारनिकी : # गाथा चारसौ चौदा ४१४ हैं अर कलशरूप काव्य दोयसौ सतहत्तर हैं २७७ । अब ग्रंथकी - वनिकाका प्रारंभ है। दोहा- समयसार जिनराज है, स्यावाद जिनवैन ।
मुद्रा जिन निरग्रंथता, नमूं करै सब चैन ॥१॥ ___ अयानंतर संस्कृतटीकाकार श्रीमान् अनृतचंद्र नामा आचार्य ग्रंथको आदिके विषे मंगलके : 9 भर्थि इष्टदेवकू नमस्कार करे हैं।
नमः समयसाराय, स्वानुभत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावान्तरच्छिदे ॥१॥ 卐 याका अर्थ-समय कहिये जीव नामा पदार्थ, ताविर्षे सार जो द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहित . शुद्ध आत्मा, ताके अर्थ मेरा नमस्कार होऊ। कैसा है ? 'भावाय' कहिये शुद्ध सत्तारूप
वस्तु है। इस विशेषणकरि सर्वथाअभाववादी जो नास्तिकताका, परिहार है। बहुरि कैसा है!卐 'चिस्वभावाय कहिये घेतनागुणरूप है स्वभाव जाका । इस विशेषणकरि गुणगुणिक सर्वभाभेद .. माननेवाला जो नैयायिक, ताका निषेध है। बहुरि कैसा है ? 'स्वानुमूल्या चकासते कहिये अपनी
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