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४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य साधना मे दत्तचित्त रहे । ऐसा करने से अवश्यमेव यह आत्मा उम अनन्त ज्योति को प्राप्त कर गलेगी। कहा भी है -
जाए सखाए निसंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अण पालिज्जा, गुणे आयरियसम्मए ।।
-भगवान महावीर हे जितेन्द्रिय | जो साधक जिस श्रद्धा मे प्रधान प्रव्रज्या स्थान प्राप्त करने को माया मय काम रूप ससार से पृथक हुआ है, उमी शुद्ध भावना मे जीवन पर्यन्त उस माधक को तीर्थकर प्रापित गुणों मे रमण एव गुणो की वृद्धि करनी चाहिए।
यह जग मुसाफिर साना है,
तन कुटिया न्यारी न्यारी है। सभी हिलमिल कर धर्म फमाओ,
जाना समी को अनिवारी है ।
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