________________
२ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
न्तर कही किसी श्रीमत के यहा अपनी कला का परीक्षण भी करता है । परन्तु यह गाधना, कुसाधना, ऐसी उपासना कुउपासना, ऐसी कला कुकला एव ऐमा लिग कुलिंग माना गया है । वाद्य दिखावटी साधना से भले कुछ समय के लिए स्व-पर का मनोरजन हो जाय, किन्तु देव दुर्लभ यह देह अघ पतन के गहरे गर्न मे अवश्य जा गिरता है । क्यो कि तत् (माधना) जनित कटु कठोर फल विपाक उग राही को भव भवा तर की भूल-भुलया मे डाले विना नही चूकते हैं । अतएव आर्थिक-गौतिक एव दिखावटी माधना की अपेक्षा आत्मचिंतन, स्व-पर भेद विज्ञान सर्वोदय एव रत्नप्रय को साधना-अन्येपणा गर्वोत्तम-श्रेष्ठतम मर्योपरि एव पवित्र प्रशस्त मानी गई है । यथा --
तिविहेण वियाण माहणे, आयहिते अणियाणा सवले । एव सिद्धा अणतसो, सपइ जे अणागया बरे ॥
-भगवान महावीर हे साधक | जो आत्महित के लिए एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय पर्यन्त प्राणी मात्र की मनसा-वाचाकर्मणा हिंसा नही करते हैं और अपनी इन्द्रियो को विषय वासना की ओर घूमने नहीं देते हैं, बस इसी व्रत के पालन करते रहने से भूतकाल मे अनत जीव मोक्ष पहुंचे और वर्तमान मे जा रहे है इसी तरह भी जावेंगे।
इस प्रकार सर्व सुखाय-हिताय एव सर्वोदय माधना को चार विभागो मे विभक्त किया गया है
विणए सुए य तवे, आयारे निच्च पडिया। अभिरामयति अप्पाण, जे भवति जिइन्दिया ।।
-दशवकालिक जो जितेन्द्रिय साधक है, वे विनय,, श्रुत, तप और आचार रूप साधना महोदधि मे अपनी आत्मा को सदा लगाए रहते हैं। वे ही सच्चे साधक हैं ।
साधना का विस्तृत क्षेत्र इस प्रकार साधनास्थली का क्षेत्र महामनीपियो ने पंतालीसलाख योजन जितना विराट विस्तृत व्यक्त किया है। किसी एक स्थान पर ही अर्थात् अमुक मदिर मस्जिद-मठ मे वा अमुक गुरु के पास ही साधना परिपक्व दशा को प्राप्त होती हो, ऐसा नही। साधना की आराधना, शून्यागार, श्मशान झाड-पहाड एव निर्जन वन-वाटिका आदि कही भी निर्दोप शात स्थान पर माधली जाती है । अर्थात पैतालीस लाख योजन के विशाल भू-भाग पर साधक साधना मे सफलता पा सकता है । भगवान् वर्द्धमान ने भी ऐसा ही अनुकूल क्षेत्र चुना था-जैसा कि
कभी जगल उद्यान, कभी शून्य श्मशान, शात एकान्त जगह मे ध्यान धर रहे। मन अमल-विमल, तन मेरु सा अचल नहीं परवाह करे दुख पीर को यह कहानी है श्रमण महावीर की ।
- कविवर केवल मुनि