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प्रथम खण्ड ससार एक साधना-स्थलो | ३
साधक के लिए सावधानी परन्तु शतं यह है कि साधक की इन्द्रिया और मन अपने स्थान पर हो, यदि त्रय योग स्व-धर्म से दूर है, तो वह साधक भले सगमरमर के मनोज्ञ मदिर मे तो क्या परन्तु तीर्थकर प्रभु के अभिमुख बैठकर साधना कर रहा हो तो भी उसको इच्छित-अभीष्ट फल (साव्य) की उपलब्धि नही हो सकेगी। अतएव डग-डग और पग-पग पर साधक को विवेक, सावधानी और दीर्घ दृष्टि रखना जरूरी है । अन्यथा "लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता" अर्थात् लाभ की आशा मे मूल भी जाता रहेगा । ऐसी स्थिति यदाकदा साधको की भी बन जाती है ।
जहा ससार की चप्पा-चप्पा भूमि साधनास्थली है, वहाँ अगणित विगाडू डुबोने वाले एव साधना मार्ग से रखलित करने वाले नैमित्तिक तत्त्व भी विद्यमान है । जो उपादान (साधक) द्वारा की गई शत-सहस्र वर्षों की घोरातिघोर साधना को एक क्षण, एक पल मे भस्मीभूत कर देते हैं । एक दार्शनिक की भापा मे-"मानव । तेरे द्वारा की गई सौ वर्षों की साधना सेवा पर एक मिनिट की बुराई-बदनामी, किया कराया गुड का गोवर कर देती है अतएव सदैव साधक को अपनी साधना सुरक्षा हेतु सजग सचेत रहना चाहिए। कहा भी है -
मुह मुहूं मोह गुणो जयत, अणेगरूवा समण चरतं । फासा फुसती असमजस च, ण तेसु भिक्खु मणसा पउस्से ।।
-भगवान महावीर निरतर मोह गुणो को जीतते हुए सयम मे विचरण करने वाले साधको को अनेक प्रकार के प्रतिकूल विपय स्पर्श करते हैं । किन्तु साधक उन दुःखदायक विषयो की न कामना करें और उन पर राग-द्वेप भी न करें।
साधना का आराधक कौन ? जो डरपोक और बुजदिलवाले मानव हैं वे प्रथम तो साधना के मैदान मे उतरते ही नही, यदि भूल-चूक के देखा-देखी कभी उतर भी गये, तो पुन थोडी सी कठिनता आने पर मैदान छोड भाग निकलेते हैं । क्योकि उनका मन मस्तिष्क हमेशा सशकित कमजोर एव कायरता का किंकर बना रहता है । वे भीरु साधक सोचते हैं कि क्या पता | साधना सफल होगी या नही | क्या पता, फल मिलेगा या नही । क्या पता, स्वर्ग अपवर्ग है या नही ? और क्या पता भविष्य मे पुन भोग-परिभोग मिलेगा कि नही ? इस प्रकार शका के वशवर्ती वनकर शुभ शुद्ध प्रक्रिया प्रारम्भ ही नही कर पाते हैं । परन्तु जो धीर-वीर गभीर एव मजबूत मन वाले होते हैं वे साधक हिमाचल की तरह अडोल एव श्रद्धा विश्वास मे सुमेरु की भांति अविचल वनकर फलाभिलापा मे विरक्त-विमुक्त रहते हुए और विध्नधनो को चीरते-फाडते हुए कर्म (साधना) कूप मे कूद पडते हैं । केवल सम्यक् परिश्रम पुरुपार्य एव उद्यम करना ही उनका एक मात्र चरम परम लक्ष्य रहता है।
अत सचमुच ही सच्चे एव निष्कामी वरिष्ठ आत्मयोगी साधको के लिए यह ससार एक साधना-स्थली अवश्य है । यदि ज्ञानी और गुणी नही होंगे तो ज्ञान और गुणो का निवास कैसे और कहा रहेगा ? इसी तरह आधार (ससार स्थली) का सद्भाव रहेगा तो ही आधे य-साधक वृन्द भी कुछ काम अवश्य कर पायेंगे इमलिए साधनास्थली का भी काफी महत्त्व है। साधक वर्ग को चाहिए कि वे अपनी