Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
| आमुख
XXIX
दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवण्णरस खंडियं एगो।
एगो पुण सामाइयं, करइ न पहुप्पए तरस।। पूज्य चरितनायक तो सतत सामायिक की उत्कृष्ट साधना में लीन साधक थे, अतः उनके द्वारा दी गई सामायिक की प्रेरणा का मूल्य तो अकूत ही हो सकता है। आचार्य श्री ऐसे संत महापुरुष थे, जिनके चरणों में || बड़े-बड़े न्यायविद्, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, डॉक्टर, राजनेता, उच्च प्रशासनिक अधिकारी, अभियन्ता आदि भी नत || मस्तक होकर अपनी रिक्तता को दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। इसमें जाति एवं धर्म की दीवारें कभी || आड़े नहीं आई। वहाँ तो सबके लिए सदैव श्रमण मर्यादानुसार द्वार खुले रहते थे। साधारण से साधारण व्यक्ति पर भी आपकी वहीं कृपादृष्टि थी, जैसी समाज के अग्रगण्य लोगों पर होती है। समानरूप से सभी आगन्तुकों के || लिए सदैव दरवाजे खुले रहते थे। वे लोगों की बाह्य रूप सम्पदा को नहीं, उनकी अन्तश्चेतना को संवारने में || संलग्न रहते थे। इसीलिए श्रमिक से लेकर सत्ताधीश तक आपके चरणों में बैठकर अपनी व्यथा का निवारण कर || अपने को कृतकृत्य समझते थे।
$ $ $ $ पूज्यपाद आचार्यप्रवर का ध्यान समाज के प्रत्येक अंग के समुचित विकास की ओर था। वे बालक, बालिका, युवक,नारी आदि सभी के जीवन-निर्माण और दोष निवारण के लिए सतत हृदयस्पर्शी प्रेरणा करते रहे। बालकों में प्रारम्भ से ही सत्संस्कारों का वपन हो, इस ओर माता-पिता एवं अभिभावकों का ध्यान केन्द्रित करते हुए आचार्य श्री फरमाते थे कि संतान को जन्म देना आसान है, किन्तु उसे सत्संस्कारी बनाने पर ही || माता-पिता का दायित्व पूर्ण होता है। यदि उन्हें सत्संस्कारी नहीं बनाया गया तो वे माता-पिता के लिए भी परेशानी का कारण बन सकते हैं। इसके लिए आप फरमाते थे कि उपदेश देने से संस्कार नहीं आते हैं, उन्हें संस्कार देने के लिए माता-पिता को वैसा आचरण करना पड़ता है तथा धीरज से समझाना होता है। एक बार बालक हाथ से निकल गया तो फिर लाख कोशिश करने पर भी उसे समझाना कठिन होता है। बच्चों में शिष्टाचार, सदाचार और नैतिकता के मूल्य ही सत्संस्कार के स्वरूप हैं। बड़ों के साथ किस प्रकार बोलना, घर से कहीं जाते समय बड़ों से पूछकर जाना, कुसंगति से बचना, खान-पान में शुद्धता एवं सात्त्विकता रखना, परस्पर हिलमिल कर रहना, एक दूसरे का सहयोग करना, प्राणिमात्र के प्रति संवेदनशील होना, बिना पूछे किसी
की वस्तु न लेना, अश्लील साहित्य न पढ़ना, जुआ न खेलना, धूमपान-गुटखा एवं मद्य का सेवन नहीं करना, | मांसाहारी भोजनालय में नहीं जाना. वचनों में प्रामाणिकता रखना, किसी कमजोर की हंसी न उडाना, घर में बड़ों
की, बीमार की और पड़ोस में असहाय की सेवा करना, मूक पशु और पक्षियों को अपने समान समझना एवं उन्हें न छेड़ना और उनके प्राणों की रक्षा करना, अकारण वनस्पति को हानि न पहुंचाना, मित्रों के साथ सहृदयता का व्यवहार करना, संतों की सन्निधि का लाभ उठाना, निन्दा-विकथा में रस न लेना, महापुरुषों की कृतियों का अध्ययन करना, सहनशीलता का विकास करना, बड़ों के सामने पलटकर उत्तेजना पूर्वक जवाब न देना, स्व-विवेक का उपयोग करना, किसी की चुगली न करना, बिना आवश्यकता के वस्तुएँ नहीं खरीदना, अतिथियों का आदर करना, फैशन एवं फिजूलखर्ची से बचना, प्रतिदिन परमेष्ठी स्मरण एवं स्वाध्याय करना आदि सत्संस्कार के विविध रूप हैं। इन सत्संस्कारों से बालक के जीवन का निर्माण होता है। आचार्य श्री फरमाते थे कि शिक्षा दो प्रकार की होती है-1.जीवन निर्वाहकारी शिक्षा 2. जीवन निर्माणकारी शिक्षा। जीवन का निर्वाह तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं, कीट-पतंगे भी कर लेते हैं, किन्तु मानव ही ऐसा प्राणी है जो जीवन निर्वाह के साथ जीवन का निर्माण भी कर सकता है। माता-पिता बालक के जीवन निर्वाह के लिए तो चिन्तित रहते हैं, किन्तु जीवन-निर्माण के प्रति भी उनकी सजगता की ओर आचार्य श्री ने श्रावकों का ध्यान आकृष्ट किया। इस ओर