Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख
XXVII सबको सहज सुलभ हो सकता है। आचार्य श्री ने इस उपाय को अपनाने की जन-जन में महती प्रेरणा की। शिक्षित स्त्री हो या पुरुष सबको स्वाध्याय का नियम कराया। प्रारम्भ में 15-20 मिनिट स्वाध्याय करने का', नियम कराते थे, किन्तु पाठक जब उसमें रसास्वादन कर आगे बढ़ने की रुचि दिखाता तो आप उसे और अधिक समय तक स्वाध्याय करने की प्रेरणा करते। अध्ययन किए गए सार तत्त्व को अपने जीवन में स्थान देने के लिए मनन करने की भी भावप्रवण प्रेरणा करते। आपने स्वाध्याय के प्रति जन-जन में रुचि जागृत करने के लिए कई पदों या भजनों की भी रचना की, जिनमें 'हम करके नित स्वाध्याय ज्ञान की ज्योति जगायेंगे', जिनराज भजो सब दोष तजो, अब सूत्रों का स्वाध्याय करो', 'ऐ वीरों निद्रा दूर करो, तन-धन दे जीवन सफल करो', 'कर लो कर लो, अय प्यारे सजनों, जिनवाणी का ज्ञान', 'कर लो श्रुतवाणी का पाठ, भविक जन मन-मल हरने को' आदि लोकप्रिय हैं। आपने स्वाध्याय की मशाल से अज्ञान अंधकार को दूर करने की अलख जगाने का संदेश दिया
घर-घर में अलख जगा देना, स्वाध्याय मशाल जला देना।
वीरों का एक ही नारा हो, जन-जन स्वाध्याय प्रसार हो। सत्साहित्य का स्वाध्याय करने में प्रवृत्त जनों को आपने आगमों के स्वाध्याय से भी जोड़ा। आगम-ज्ञान का रसास्वादन प्रत्येक जन कर सके, इसके लिए आपने आगमों का हिन्दी पद्यानुवाद भी उपादेय समझा। दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन सूत्र के हिन्दी पद्यानुवाद इस दिशा में उपयोगी सिद्ध हुए। आपकी अभिलाषा थी कि उत्तराध्ययन सूत्र को जैन गीता के रूप में लोकप्रियता प्राप्त हो। आगमों का विशद विवेचन करने के साथ, जैन कथाओं, भजनों एवं पदों के माध्यम से भी आपने श्रावक समुदाय को स्वाध्याय में रस लेकर विचारों को सात्त्विक बनाने की प्रेरणा की। स्वाध्याय से जीवन-निर्माण के साथ समाज को एक नई उपलब्धि हुई। नियमित स्वाध्याय से स्वाध्यायियों का विकास हुआ और धीरे-धीरे ऐसे सैकड़ों स्वाध्यायी तैयार हुए जो पर्युषण पर्व में || सन्त-सतियों के चातुर्मास से विरहित क्षेत्रों में धर्माराधन कराने लगे। इस प्रवृत्ति के सम्यक् संचालन हेतु || स्वाध्याय संघ बना। इस उत्तम प्रवृत्ति की महत्ता को देखते हुए विभिन्न सम्प्रदायों ने भी इसे अपनाया और आज || देश में अनेक स्वाध्याय संघ कार्यरत हैं।
स्वाध्याय के क्रियात्मक पक्ष को पुष्ट करने के लिए आचार्य श्री ने सामायिक की प्रेरणा की, क्योंकि स्वाध्याय और सामायिक का जीवन को ऊँचा उठाने से सीधा संबंध है। सामायिक समभाव की साधना का प्रायोगिक अभ्यास है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जीवन पर पड़ता है। यह क्रिया का उजला पक्ष है। मन, वचन और || काया को नियन्त्रित करने का सामायिक एक सुन्दर साधन है। आचार्य श्री ने अपने भजनों में स्वयं फरमाया कि शरीर के पोषण के लिए जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम उपयोगी है उसी प्रकार मन के सम्यक पोषण के लिए शुभध्यान उपयोगी है
तनपुष्टि हित व्यायाम चला, मन पोषण को शुभ ध्यान भला।
आध्यात्मिक बल पाना चाहो तो सामायिक साधन कर लो..॥ सामायिक के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए आपने 'जीवन उन्नत करना चाहो, तो सामायिक साधन कर लो', 'कर लो सामायिक रो साधन, जीवन उज्ज्वल होवेला', 'अगर जीवन बनाना है तो सामायिक तू करता जा','करने जीवन का उत्थान, करो नित समता रस का पान',सामायिक में सार है,टारे विषय विकार है' आदि अनेक गेय भजनों एवं पदों की रचना की. जिससे सामायिक जन-जन में प्रिय होती चली गई। लोगों को यह समझ में आ गया कि सामायिक में आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करते हुए धर्मध्यान (शुभ ध्यान) का अभ्यास किया जाता है। सामायिक कोई साधारण साधना नहीं, यह अति उच्च कोटि की साधना है, जिसमें
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