________________ षष्ठः सर्गः णिच् + लङ / यावत् अअल्पत् यावत् के योग में न्यावत्-पुगनिपातयोर्लट (3 / 3 / 4) से प्राप्त लट् के स्थान में लङ चिन्त्य है। ___ अनुवाद-वह ( नल ) कल्पना द्वारा सामने लाई हुई प्रेयसी ( दमयन्ती / को दिक्पालों का सन्देश थोड़ा-सा कह पाये ही थे कि तभी अदृश्य की ओर से आई हुई आवाज से डरी हुई ( रनिवास की) बहुत-सी डरपोक स्त्रियों का हल्ला उन (नल) को सचेत कर बैठा // 17 // टिप्पणी-अदृश्य-वाणी तो भूत-प्रेतादि को होती है, इसीलिए उसे सुनकर भय से युवतियों का हल्ला मचाना और हल्ले से नल का कल्पना लोक से तथ्यजगत् में आ जाना स्वाभाविक ही था। इसलिए इसे हम स्वभावोक्ति कहेंगे। विद्याधर के अनुसार राजाको विबोध भाव हो जाने से यहाँ भावोदयालंकार है। 'भूरि भीरु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूरिभीरुभंवो-नारायण का यह पाठ व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य है / उनकी 'भीरवो भयशीला या बालास्ताभ्यो भव उत्पन्नः' यह व्याख्या इसे एक ही समस्तपद मान रही है। ऐसी स्थिति में भीरु शब्द में आये हुए रेफ की कोई प्रयोजनीयता नहीं, केवल छन्दःपूर्ति अवश्य हो जाती है। इसे हम च्युतसंस्कृति दोष कहेंगे। दूसरी ओर, मल्लिनाथ बिना रेफ वाला 'भीरुभवो' पाठ देते हैं जिसमें व्याकरण तो ठीक बैठ जाता है, लेकिन छन्द भंग हो जाने से हतवृत्तता दोष आ जाता है। अतएव हमारे विचार से यहाँ उह शब्द से 'ऊतः ' (4 / 1 / 66) से स्त्रीलिङ्ग में ऊङ प्रत्यय कर देने पर भीरू' पाठ देने से च्युतसंस्कृति और हतवृत्तता दोनों दोषों का निराकरण हो जाता है। प्रियांविकल्पोहताम्हम देखते हैं कवि ने पूर्ववर्ती श्लोक में राजा को 'विबुद्धः' बता रखा है / बिबुद्ध हो जाने पर विकल्पोपहृत' दमयन्ती को देखना अनुपपन्न है / यह कवि की विसंगति समझिए। हाँ, इस श्लोक से पहले कवि को चाहिए था कि वह कामोद्रक से फिर राजा को मोह में डाल देता और तब उसके आगे 'प्रिया' को 'विकल्पोपहृत' रूप में खड़ा कर देता। पश्यन्स तस्मिन्मरुतापि तन्व्याः स्तनो परिस्प्रष्टुमिवास्तवस्त्री। अक्षान्तपक्षान्तमगाङ्कमास्यं दधार तिर्यग्वलितं विलक्षः // 18 // अन्वयः–स तस्मिन् मरुता अपि परिस्प्रष्टुम् इव अस्त-वस्त्री तन्व्या