________________ षष्ठः सर्गः मूर्ति देख रहे थे / वहाँ अप्सरा जैसी अन्य सुन्दरियां भी दीख रही थीं, किन्तु नल को वे क्यों रुचतीं? उनमें वे दमयन्ती का भ्रम क्यों करते? दमयन्ती की अपेक्षा वे रूप में मेल ही नहीं खाती थीं। जब रूप-सादृश्य ही नहीं मिलता, तो उनमें दमयन्ती का भ्रम कैसे हो ? भ्रम सदा सादृश्यमूलक ही होता है। यहां युवतियों की अप्सराओं से तुलना की गई है, अतः उपमा है, किन्तु विद्याधर अप्सरात्व का आरोप करके रूपक मानते हैं, जिसके साथ वे उत्प्रेक्षा भी कहते हैं, जो हम नहीं समझ पाये / शब्दालंकारों में 'स्यान्य-कन्या' 'रसो' 'रसाय' 'भैमीभ्रम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैमीनिराशे हृदि मन्मथेन दत्तस्वहस्ताद्विरहाद्विहस्तः। स तामलोकामवलोक्य तत्र क्षणादपश्यन्व्यषदद्विबुद्धः // 16 // अन्वय-भैमी निराशे हृदि मन्मथेन दत्त-स्वहस्तात् विरहात् विहस्तः स तत्र अलीकाम् ताम् अवलोक्य क्षणात् विबुद्धः सन् ( ताम् ) अपश्यन् व्यषदत् / टोका-भैम्याम् दमयन्ती-विषये देवानां दौत्याङ्गीकरणात् निराशे निर्गता आशा यस्मात् तथाभूते ( प्रादि ब० वी० ) हताशे हृदि हृदये मन्मथेन कामेन दत्त: वितीर्णः स्वः स्वकीयः हस्त: हस्तावलम्बः साहाय्यमिति यावत् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्मै तथाभूतात् कामोत्पादितादित्यर्थः विरहात् वियोगात् कारणात विहस्त: व्याकुल: ( "विहस्तव्याकुलो समौ' इत्यमरः ) स नलः तत्र अन्तःपुरे अलीकाम् भ्रमकल्पिताम् ताम् दमयन्तीम् अवलोक्य दृष्ट्वा क्षणात् क्षणे विबुद्धा विबोधं प्राप्तः भ्रमरहित इत्यर्थः सन् अपश्यन् दमयन्तीम् अनालोकयन् व्यषदद विषादमवाप्तवान् / दौत्यमङ्गीकृत्य दमयन्त्यां निराशेऽपि नले कामेन तद्विरहव्यथा समुत्पादितैव, विरहे चासो तत्रालीकां दमन्तीमपश्यत्, किन्तु क्षणानन्तरं दूतोऽहमिति विबोधे जाते पुनः स तां नापश्यत्, भ्रमजनितदमयन्तीविलोपे दुःखितश्चाभवदिति भावः // 16 // व्याकरण-मन्मथ: मन: मथ्नातीति मनस् + /मथ् + अच् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / विहस्तः विगतो हस्तो यस्येति (प्रादि ब० बी० ) / विबुद्धः वि+Vबुध् + क्तः ( कर्तरि ) व्यषदत् वि+/सद् + लुङ ( लूदित्वात् अङ) स को ष। अनुवाद-दमयन्ती की ओर से निराश हुए हृदय में कामदेव के हाथों