________________ षष्ठः सर्गः (ब० वी० ) कामदेवस्य [ कामदेवो हि प्रद्युम्न-रूपेण कृष्णपुत्रत्वं प्राप्तः शम्बरं हतवानिति पुराणवार्ता ] शाम्बरी माया ( 'स्यान्माया शाम्बरी' इत्यमरः) तस्याः शिल्पम् निर्माणम् (10 तत्पु०) जाता उत्पन्ना एव, कामदेवेनैव स्वमायया सृष्टेत्यर्थः सा भीमस्य सुता पुत्री दमयन्तीत्यर्थः (10 तत्पु० ) नलेन दिक्षु निखिलासु दिशासु अलक्षि दृष्टा, अन्तःपुरे नल: भ्रमात् सर्वत्र दिशासु दमयन्तीम् अपश्यदिति भावः / - व्याकरण-सर्गः सृज् + धञ्। स्रक सृज्यते इति सृज + क्विन् / शाम्बरी शम्बरस्येयम् इति शम्बर + अण+ डीप. शम्बर शब्द विशेष राक्षस का वाचक होते हुए भी यहाँ सभी राक्षसों का उपलक्षक है। राक्षस सभी मायावी हुआ करते हैं, इसलिए उनकी विशेषता को शाम्बरी अर्थात् माया कहते हैं। अलक्षि-Vलक्ष + लुङ् ( कर्मणि)। __ अनुवाद-अनादि काल से चली आ रही सृष्टि-परम्परा में अथवा चित्रों में देखी हुई अथवा शम्बरारि-कामदेव की माया-रूप में रची वह दमयन्ती नल को चारों ओर दिखाई पड़ी // 14 // टिप्पणो-मोह अथवा भ्रमवश नल रनिवासमें सर्वत्र दमयन्ती को देखने लगे, लेकिन प्रश्न उठता है कि भ्रम उसी वस्तु का होता है जिसे हमने पहले देख रखा हो। नल ने जब दमयन्ती पहले देखी ही नहीं, तो भ्रम कैसे ? बिना पहले साँप को देखे रस्सी पर साँप का भ्रम हो ही नहीं सकता। इसके समाधान हेतु कवि को पूर्वजन्म की कल्पना करनी पड़ रही है, जिसमें नल ने दमयन्ती को पहले कई बार देख रखा था, कई बार उसका पाणिग्रहण कर रखा था। यदि पूर्वजन्म की बात प्रामाणिक न मानी जाय तो कवि विकल्प में चित्र देता है, जिसमें नल ने दमयन्ती देख ही रखी है। किन्तु चित्र तो रङ्ग-भरी रेखामात्र ही होता है, जिसके साथ आलिंगन आदि क्रियायें नहीं हो सकतीं। इधर देखो. तो नल ने भ्रमात्मक दमयन्ती के साथ आलिंगन आदि किया है, जैसा कि हम आगे बतायेंगे। इसक लिए मूर्त-मांसल तत्त्व होना चाहिए। ऐसी स्थिति में कवि तीसरा विकल्प देता है अर्थात् यह कामदेव की निर्माण कला है, जिसने माया-शक्ति से नल के आगे दमयन्ती को मूर्त-रूप में खड़ा कर दिया। विद्याधर ने यहाँ विशेष अलंकार माना है। यह वहाँ होता है, जहाँ बिना आधार के आधेय की कल्पना की जाती है। यहाँ आधार