________________ 14 नैषधीयचरित सञ्चरन्त्या परवा अन्यया स्त्रिया संघट्टम् अभिघातम् मासाद्य प्राप्य चमच्चकार चकितो बभूव / / 13 // व्याकरण-समालन्धुम् सम् + आ + लभ् + तुमुन् / संकृत सम् + V + क्तः ( कर्मणि)। निमोलित नि +/मील् + क्त (कर्मणि ) संघट्टः सम् + Vघट्ट + अच् / चमच्चकार मल्लिनाथ चमत् को शब्दानुकृति मान रहे हैं, जो हमारी समझ में नहीं आता है। आश्चर्य में भला 'चमत्' ध्वनि करने का क्या मतलब, आप्टे इसे/चम् (पीना, चाटना) धातु का शवन्त रूप करके V से जोड़ते हैं जिससे ओंठ चाटने वाला बना देना अर्थ निकलता है, जो कुछ ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि आश्चर्य में आदमी जैसे मुंह बायें रह जाता है उसी तरह ओंठ चाटने अथवा दाँतों से ओंठ दबाने लग जाता है। किन्तु कवि का यहाँ कर्तृप्रधान प्रयोग चिन्त्य है या तो फिर 'ताम्' का अध्याहार करके 'नल ने दूसरी स्त्री को चौंका दिया' - यह अर्थ करना होगा। अनुवाद-वह (नल ) रनिवास के भीतर उबटन लगाने हेतु उघड़ी हुई जांघों वाली किसी युवती को देखकर आंखें नीचे किये हुए थे कि घूमती हुई दूसरी स्त्री से टकराकर चौंक उठे॥ 13 // टिप्पणी-'न नग्नां स्त्रियमीक्षेत' इस धर्मशास्त्र के अनुसार नंगी जांधों वाली युवती को देखकर नल का आँखें बन्दकर देना स्वाभाविक ही था। इसी. लिए हम यहाँ स्वभावोक्ति कहेंगे, 'अन्तःपुरान्तः' "विलोक्य बालां' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है कवि ने य हाँ संस्कृत की 'एकं संधिसतोऽपरं प्रच्यवते' इस लोकोक्ति का समन्वय किया है अर्थात् एक से निपटना चाह रहे थे कि झट दूसरा सिर पर आ चढ़ा। अनादिसर्गस्रजि वानुभूता चित्रेषु वा भीमसुता नलेन / जातेव यद्वा जितशम्बरस्य सा शाम्बरीशिल्पमलक्षि दिक्षु // 14 // अन्वयः-अनादि-सर्गसजि वा चित्रेषु वा अनुभूता, यद्वा जितशम्बरस्य शाम्बरी-शिल्पम् जाता एव सा भीमसुता नलेन दिक्षु अलक्षि / टीका-न आदिः आरम्भः यस्याः तथाभूता ( नञ् ब० बी०) सर्गस्त्रक ( कर्मधा०) सर्गाणाम् सृष्टीनाम् स्त्रक् माला परम्परेत्यर्थः (10 तत्पु० ) तस्याम्, वा अथवा चित्रेषु आलेख्येषु अनुभूता अनुभवविषयीकृता, यद्वा अथवा जितः पराजितः हत इत्यर्थः शम्बरः एतदाख्यो राक्षसविशेषो येन तथाभूतस्य