Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 15
________________ नैषधीयचरिते तत्पु० ) तः अदृष्टः तिरस्करणी-विद्याकारणात् अनवलोकितः, भैमीम् दमयन्तीम् विवृक्षुः द्रष्टुमिच्छु: ( अत एव ) दिक्षु चतुर्दिशासु चक्षुः दृष्टिम् बहु वारंवारं दिशन् प्रक्षिपन् विशङ्कः विगता शङ्का यस्य तथाभूतः ( प्रादि ब० बी० ) निःशङ्कः सन् अमराः वरुणादयः त्रयश्च इन्द्रश्च तेषाम् ( द्वन्द्व ) अथवा प्राधान्यात् अमरेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य (10 तत्पु० ) कार्यात् दौत्यकर्महेतोः ताम् प्रसिद्धाम् उपकार्याम् उपकारिकाम् राजसमेति यावत् ( 'उपकार्या राज-सद्मनि' इति विश्वः) अविशत् प्राविशत् यत्र दमयन्ती निवसति स्मेत्यर्थः। व्याकरण-अधिकृतैः अधि + /कृ + क्तः ( कर्तरि ) / दिक्षुः / दश + सन्, द्वित्व + उः ( कर्तरि ) / कार्यात् कर्तुं योग्यमिति कृ + ण्यत् / अनुवाद-इसके बाद वह ( नल ) कमरों में ( बैठे ) रक्षाधिकारियों से अदृश्य बने, दमयन्ती को देखने के इच्छुक हुए, (अत एव) चारों ओर दृष्टि डालते हुए, निःशङ्क हो ( वरुणादि ) देवताओं और इन्द्र के कार्य हेतु उस महल में प्रविष्ट हो गये ( जहाँ दमयन्ती रहती थी ) // 11 // टिप्पणी-अमरेन्द्रकार्यात्-नारायण ने इस समस्त पद को 'अधिकृतः अदृष्टः' के साथ जोड़ा है अर्थात् नल रक्षापुरुषों को इसलिए अदृष्ट बने हए थे क्योंकि इन्द्र ने उन्हें अदृश्य हो जाने का कार्य अर्थात् घरदान दे रखा था। "कार्या' 'कार्या' में यमक, 'कक्षा' 'रक्षा', 'दृक्ष' 'दिक्ष' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अयं क इत्यन्यनिवारकाणां गिरा विभारि विभुज्य कण्ठम् / दृशं ददौ विस्मयनिस्तरङ्गां स लङ्घितायामपि राजसिंहः // 12 // अन्वयः–स विभुः राजसिंहः लवितायाम् अपि द्वारि 'अयम् कः' इति अन्यनिवारकाणाम् गिरा कण्ठम् विभुज्य विस्मय-निस्तरङ्गाम् दृशम् ददौ। टीका–स विभुः महिमशाली राजसिंहः राजा सिंहः इव ( उपमित तत्पु०) अथवा प्रशस्तो राजा-( कर्मधा० ) नलः लंधितायाम् अतिक्रान्तायाम् अपि द्वारि उपकार्यायाः द्वारे 'अयम् एष कः ?' इति उच्चस्वरेण अन्यस्य स्वभिन्नस्य जनस्य निवारकाणाम् निरोधकानां रक्षिणां गिरा वाण्या ( कारणेन / कण्ठम् ग्रीवाम् विभुज्य वक्रीकृत्य पश्चात् कृत्वेति यावत् विस्मयेन 'अपि किम् एभिः अहं दृष्टः ?' इत्याश्चर्येण निस्तरङ्गाम् निश्चलाम् निनिमेषामिति यावत् (तृ० सत्पु० ) निस्तरङ्गाम् निर्गताः तरङ्गाः यस्या इति तथाविधाम् ( प्रादि ब० वी०)

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