Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ नैषधीयचरिते अर्थात् असुन्दर लेकर कवि ने विरोध खड़ा कर दिया। इस तरह यहाँ दो विरोधाभासों की संसृष्टि है / "चित्रं 'चित्र' तथा 'मूर्तिर्' 'मूतिः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जनैर्विदग्धर्भवनैश्च मुग्धैः पदे पदे विस्मयकल्पवल्लीम् / 'तां गाहमानास्य चिरं नलस्य दृष्टिर्ययो राजकुलातिथित्वम् // 9 // अन्वयः - विदग्धः जनैः मुग्धैः भवनैः च पदे पदे विस्मय-कल्पवल्लीम् ताम् चिरम् गाहमानस्य अस्य नलस्य दृष्टिः राजकुलातिथित्वम् ययौ। ___टोका-विदग्धैः चतुरैः जनः लोकैः, मुग्धेः मोहकैः सुन्दरैरिति यावत् भवन: गृहैः च कृत्वा पदे पदे प्रतिपदम् विस्मयस्य आश्चर्यस्य कल्पवल्लीम् कल्पलताम् ( व० तत्पु० ) चतुरजनानां सुन्दरभवनानां च कारणात् सर्वमनोरथपूरककल्पलतावत् महाश्चर्यकरीमित्यर्थः ताम् कुण्डिनपुरीम् चिरम् चिरकालम् गाहमानस्य उल्लङ्घयतः गच्छत इत्यर्थः अस्य नलस्य दृष्टिः चक्षुः राज्ञः भीमनृपस्य कुलम् गृहम् ( 'कुलं जनपदे गृहे' इति विश्वः ) तस्य अतिथित्वम् प्राघुणिकत्वम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) ययौ प्राप चिरं नगरीम् लङ्घयन् नलोऽन्ते राजप्रासादमालोकयदिति भावः // 9 // व्याकरण-विदग्धेः वि + /दह + क्तः ( जले, खूब तपे, परिपक्व, चतुर ) / मुग्धैः मुह + क्तः / पदे पदे वीप्सायां द्वित्वम् / विस्मयः वि + स्मि + अच। अनुवाद-निपुण लोगों और सुन्दर भवनों द्वारा पग-पग पर आश्चर्य की कल्पलता बनी हुई उस नगरी को देर से पार करके ( अन्त में ) राजमहल उस नल की दृष्टि का पाहुना बना // 9 // टिप्पणी- यहाँ कुण्डिनपुरी पर कवि ने कल्पवल्लीत्व का आरोप कर रखा है क्योंकि कल्पवल्ली जैसे आश्चर्य में डाल देती है, वैसे कुण्डिनपुरी भी आश्चर्य में डाल देती है। इस तरह यह रूपक है। पदे पदे में छेक अथवा किन्हीं आलंकारिकों के मत से वीप्सा और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आँखों का पाहुना बनना एक लाक्षणिक प्रयोग है जिसका अर्थ देखना होता है। हेलो दधी रक्षिजनेऽस्त्रसज्जे लोनश्चरामोति हृदा ललज्जे / द्रक्ष्यामि भेमोमिति संतुतोष दूतं विचिन्त्य स्वमसी शुशोच // 10 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 590