Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 11
________________ नैष गेयचरिते किन्तु कवि भूल गया है कि यहां चक्षु नपुंसक होकर पुंस्त्व-प्रतीति में बाधक बना हुआ है। नपुंसक को भला क्या सात्त्विक भाव होते हैं। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है। स्फुरत्त्वात-दक्षिण चक्षु का स्फुरण बताकर कवि की यहाँ यह ध्वनि है कि नल अपने 'दूत्य-कर्म' में सफल नहीं होंगे और दमयन्ती किसी भी देवता का वरण न करे अन्ततः नल का ही वरण करेगी। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार पुरुष का दक्षिण नयनस्फुरण शुभ सूचक होता है। रथादसौ सारथिना सनाथाद्राजावतीर्याथ पुरं विवेश / निर्गत्य बिम्बादिव भानवीयात्सौधाकरं मण्डलमंशुसङ्घः // 7 // अन्वयः-अथ असी राजा सारथिना सनाथात् रथात् अवतीर्य अंशु-सङ्घः भानवीयात् बिम्बात् निर्गत्य सौधाकरम् मण्डलम् इव पुरम् विवेश / टीका-अथ तदनन्तरम् असौ राजा नल: सारथिना सूतेन सनाथात् नाथेन सहितात् ( ब० वी० ) अधिष्ठितात् सहितादिति यावत् रयात स्यन्दनात् अवतीयं अवरुह्य अंशूनाम् किरणानां सङ्घः समूहः ( ष. तपु० ) भानवीयात् सौरात् बिम्बात मण्डलात् निर्गत्य निःसृत्य सौधाकरम् चान्द्रम् मण्डलम् बिम्बम् इव पुरम् कुण्डिननगरम् विवेश प्राविशत् / यथा सूर्यमण्डलात् निःसृत्य किरण-समूहः चन्द्रमण्डलं प्रविशति, तथैव नलोऽपि रथादवतीर्य पुरं प्रविष्टवानिति भावः // 7 व्याकरण-सारथिः रथेन सहितोऽश्व इति सरथः तत्र नियुक्त इति सरथ + इन् / भानवीयात् भानोरयमिति भानु + छ:, छ को ईय / सौधाकरम् सुधाकरस्येदमिति सुधाकर + अण् / / अनुवाद-तदनन्तर वह राजा ( नल ) सारथि-सहित रथ से उतरकर इस तरह पुर में प्रविष्ट हुए जैसे किरण-समूह सूर्य-मण्डल से निकलकर चन्द्रमण्डल में प्रविष्ट होता है / // 7 // टिप्पणी-यहाँ रथ से उतरकर नल के पुर में प्रवेश की तुलना सूर्यमण्डल से उतरकर सूर्यकिरण समूह की चन्द्रमण्डल में प्रवेश से की जाने से उपमा है / भारतीय नक्षत्रविदों को बहुत पहले यह ज्ञात हो गया था कि चन्द्रमा में जो प्रकाश है, वह उसका अपना नहीं बल्कि वह उसे सूर्य से प्राप्त होता है। यास्काचार्य ने इस पर प्रमाण दिया है -'सुषुम्णः सूय-रश्मिः, चन्द्रमा गन्धर्वः' अर्थात् सुषुम्ण नाम की सूर्य की रश्मि चन्द्रमा को प्रकाशित करती है / इसीलिए चन्द्रमा को 'गन्धर्व' = गाम् = सुषुम्णनामकसूर्यरश्मिं धरतीति कहते हैं / ज्योतिषशास्त्र भी

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