Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वेदगो खुद्दाभव० अंतोमु०, उक्क. सगढिदी । णस० जह० खुद्दाभव० अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमाणि पुव्यकोडिपुधत्तेणमहियाणि । णरि पंचिं तिरि पन्ज० इस्थिवेद० णत्थि । जोगिणी० पुरिस०-गस० गायि सम्मअजह अंतामुक्कली तिग्ण पलिदो० देसणाणि । पंचिंतिरि०अपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णस० जह खुद्दाभव०, उक्क अंतीमु० । सोलसक०-छएणोक तिरिक्खोघं ।
४३. मणुसेसु पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि सम्म० जह० अंतोमु० । तिण्णिवे० जह० एयसः । एवं मणुसपज्ज० । वरि सम्म० ज० एयसः । इत्थिवे० गस्थि । मिच्छ० जह• अंतोमु० । मणुसिणी. मणुसोघं । णवरि मिच्छ० जह० अंतोमु० । पुरिस-णस० णस्थि ।
उदीरकका जघन्य काल सामान्य पञ्चेन्द्रिय तिर्वाञ्चोंमें क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण और शेष दो में अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कास्थितिप्रमाण है। नपुसकवेदके उदीरकका जबन्य काल पञ्चेन्द्रिय तियोमबाम तुम्बकमवग्रहणप्रमाण और शेपमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल पूर्व कोटिपृथक्त्य है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकों में खीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा योनिनी तिर्यश्लोंमें पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है । सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तियांश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकाम मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उदीरकका जघन्य काल क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सोलह कपाय और छह मोकपायोंका भंग सामान्य तिगेडचोंके समान है।
विशेषार्थ-ज्ञायिकसम्यक्त्वके सन्मुख क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर योनिनी तिर्यलोंमें नहीं उत्पन्न होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । तथा नपुसकवेदकी उदीरणा और उदय भोगभूमिमें नहीं होता, इसलिए इसके उदीरक तिर्यश्चोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्वप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है।
४३. मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्याम्चोंके समान भंग है। किन्त इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके उदोरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है । तथा तीनों वेदोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व के उदीरकका जघन्य काल एक समय है। इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । तथा मिथ्यात्वके उदीरकका जवन्य काल अन्तमुहूर्त है। मनुष्यनियों में सामान्य मनुष्योंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। तथा इनमें पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उतीरणा नहीं होती।
विशेषार्थ_पहले पञ्चेन्द्रिय तिर्वाञ्चोंमें सम्यक्त्वके उदरीकका जघन्य काल एक समय कह पाये हैं, इसलिए यहाँ सामान्य मनुष्योंमें उसका निषेध करके वह अन्तर्मुहर्त बतलाया है। वैसे मनुष्य पर्याप्तकोंमें यह काल एक समय बन जाता है, क्योंकि जिसने पहले मनुष्यायुका बन्ध किया है ऐसा मनुयिनी जीव यदि क्षायिक सम्यक्त्त्रको उत्पन्न करता हुश्रा सम्यक्त्वकी उदीरणा में एक समय शेष रहने पर मर कर यदि पर्याप्त मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तो उसके सम्यक्त्वकी