Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 24
________________ २ कसाय पाहुडसुत्त बारेमें प्रश्न मात्र ही किया गया है । कुछ गाथाऍ ऐसी भी है कि जिनमें प्रतिपाद्य विषयकी सूचेना भी की गई है | कुछ प्रश्नात्मक गाथासूत्र ऐसे भी है कि जिनको दुरूह समझकर ग्रन्थकारने स्वयं ही उनका उत्तर भाष्य-गाथाऍ रच करके दिया है । यदि इन भाष्य - गाथाओंकी रचना ग्रन्थकारने स्वय न की होती, तो आज उनके प्रतिपाद्य अर्थका जानना कठिन ही नहीं, असम्भव होता । यही कारण है कि जयधवलाकारने इन गाथाओंको 'अनन्त अर्थ से गर्भित' कहा है ‡ । गाथाओंका महत्व इससे ही सिद्ध है कि गणधर प्रथित जिस पेज्जदोस पाहुडमें सोलह हजार मध्यम पद थे अर्थात् जिनके अक्षरोंका परिमाण दो कोडाकोडी, इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख, आठ हजार था, इतने महान विस्तृत ग्रन्थ का सार या निचोड़ मात्र २३३ गाथाओं में खींच करके निबद्ध कर दिया है । इससे प्रस्तुत ग्रन्थके महत्वका और ग्रन्थकारके अनुपम पाण्डित्यका अनुमान पाठक स्वयं लगा सकेंगे । कसायपाहुड की अन्य ग्रन्थोंसे तुलना जिस प्रकार ज्ञानप्रवादपूर्व-गत विस्तृत पेज्जदोसपाहुडका उपसहार करके सक्षिप्त रूपमें गाथाओं के द्वारा कसायपाहुडकी रचना की गई, उसी प्रकार उस समय दिन पर दिन 'लुप्त होते हुए श्रुतके विभिन्न अङ्ग और पूर्वोका उपसंहार करके भिन्न भिन्न रूप से अनेक प्रकरणोंकी गाथा - बद्ध रचना तत्तद्विषय के पारगामी आचार्यांने की है । शतकप्रकरणका उपसंहार करते हुए उसके रचयिता लिखते है - एसो बंधसमासो विंदुक्खेवेण नि कोइ । कम्मप्पवायसुयसागरस्स स्सिदमे वा ॥ १०४ ॥ अर्थात् यह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशवन्ध विषयक कुछ थोड़ा सा कथन मैंने कर्मप्रवादरूप श्रुतसागरके बिन्दु ग्रहणरूपसे निष्यन्दमात्र अत्यन्त संक्षिप्तरूपमे किया है । इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि शतकप्रकरणका उद्गमस्थान कर्मप्रवाद नामका आठवां पूर्व है और यह प्रकरण उसीका संक्षिप्त संस्करण है । कर्मों वन्ध, उदय और सत्त्वसम्बन्धी स्थानोके भंगों का प्रतिपादन करने वाला एक सित्तरी नामक सत्तर गाथात्मक प्रकरण है । उसका प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैंसिद्ध एहि महत्थं बंधोदय संतपगइठाणाणं । वोच्छं सुख संखेवं नीसंदं दिडिवायस्स ॥ १ ॥ अर्थात् — कर्मोंके बन्ध, उदय और सत्त्वप्रकृतियों के स्थानोंका मै सिद्धपदो के द्वारा संक्षेपरूप से कथन करता हूँ, सो हे शिष्य तुम सुनो। यह कथन संक्षेपरूप होते हुए भी महार्थक है और दृष्टिवाद का निष्यन्दरूप है, अर्थात् निचोड़ है । इस गाथाके चतुर्थ चरणकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं 'निस्संदं दिडिवायस्स' चि परिकम्म १ सुत्त २ पढमासुयोग ३ पुन्यगय ४ चूलियामय ५ पंचविहमूलभेयस्स दिडिवायस्स, तत्थ चोदसरहं पुत्राणं पीयाओ + श्रतत्यगन्भायो । जयघ० ।

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